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पाकिस्तान पर भारत की ऐतिहासिक जीत की राह किसने आसान बनाई?

Bharat Ek Soch: 1971 के जिस युद्ध को महीनेभर चलने का अनुमान लगाया गया, वह आखिर 13 दिन में ही कैसे खत्म हो गया?

Edited By : Anurradha Prasad | Updated: Dec 10, 2023 21:38
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Bharat Ek Soch

Bharat Ek Soch: जरा सोचिए…52 साल पहले पाकिस्तान के साथ एक हफ्ते तक युद्ध लड़ने के बाद तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दिमाग में क्या चल रहा होगा। तब के आर्मी चीफ जनरल सैम मानेकशॉ को कौन सी चिंता सबसे ज्यादा सता रही होगी? नेवी और एयरफोर्स चीफ किस तरह दुश्मन की कमर तोड़ने में जुटे हुए थे। पूर्वी और पश्चिमी मोर्चे पर अपने प्राणों की बाजी लगाकर लड़ रहे फौजियों के दिलो-दिमाग में क्या होगा?

1971…युद्ध एक, मोर्चा अनेक की पहली किस्त में आपको बता चुके हैं कि जंग की आहट भांपते हुए किस तरह से भारत ने तैयारियां शुरू कर दी थी। आज आपको बताने की कोशिश करेंगे कि आठ महीने में भारत ने जिन-जिन मोर्चों पर कील-कांटे दुरुस्त किए, उसका नतीजा क्या रहा? जिस युद्ध को महीनेभर चलने का अनुमान लगाया गया था- वो आखिर 13 दिन में ही कैसे खत्म हो गया? पाकिस्तान पर भारत की ऐतिहासिक जीत की राह किसने और किस तरीके से आसान बनाई? ऐसे सभी सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे– अपने खास कार्यक्रम 1971…युद्ध एक, मोर्चा अनेक पार्ट -2 में…

अप्रैल 1971 के बाद सैम मानेकशॉ के नेतृत्व में भारतीय फौज ने अपनी तैयारियां पूरी कर लीं। उन्होंने कई बहुत ही काबिल अफसरों मसलन, लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा, लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह, मेजर जनरल जेएफआर जेकब, मेजर जनरल इंद्रजीत सिंह गिल, मेजर जनरल जीएस नागरा को अहम जिम्मेदारी सौंपी। इसी तरह एयर चीफ मार्शल पी सी लाल और नेवी चीफ एडमिरल एसएम नंदा ने भी अपने चुनिंदा अफसरों को अहम मोर्चे पर लगाया… हर स्थिति से निपटने के लिए कई प्लान पर एक साथ काम चल रहा था।

समानांतर काम कर रहा था मजबूत मैकेनिज्म 

युद्ध के दौरान हर तरह स्थिति से निपटने के लिए आपसी सहयोग और समन्यव का बहुत ही मजबूत मैकेनिज्म भी समानांतर काम कर रहा था। पूर्वी पाकिस्तान में मुक्ति वाहिनी के लड़ाके भारत की हर तरह से मदद के लिए तैयार थे…मतलब, पूर्व और पश्चिम दोनों ही मोर्चों पर दुश्मन को पटखनी देने का इंतजाम हो चुका था, लेकिन पूरी तैयारी के बावजूद भारतीय फौज सरहद से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी। पाकिस्तान ने एक मूर्खता कर दी, उसे लगा कि अगर हम भारत के पश्चिमी हिस्से को निशाना बनाएंगे तो भारत पूर्वी इलाके से पीछे हट जाएगा। उसे भारत की तैयारियों का अंदाजा नहीं था… पाकिस्तान ने 3 दिसंबर,1971 को भारत के कई अहम हवाई अड्डों पर एक साथ बमबारी शुरू कर दी और युद्ध का आगाज हो गया।

पश्चिमी मोर्चे से लेकर पूर्वी मोर्चे तक इंडियन आर्मी, नेवी और एयरफोर्स ने पाकिस्तान को इतना कड़ा जवाब देना शुरू किया। जिसके बारे में पाकिस्तानी आर्मी के जनरलों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। भारतीय सेना के जवान नॉर्थ ईस्ट के कई राज्यों से पूर्वी पाकिस्तान की आर्मी की घेराबंदी तोड़ते हुए सरहद के भीतर दाखिल हो गए और आगे बढ़ने लगे। भारतीय फौज के प्रचंड प्रहार को देखते हुए पाकिस्तान फौज ने संख्या में अधिक होने के बाद भी सरेंडर करना शुरू कर दिया।

शुरुआती हमले में ही पूर्वी पाकिस्तान में मौजूद फौजियों का कनेक्शन पश्चिमी पाकिस्तान से कट गया। इस जंग में मीडिया भी बड़ी भूमिका निभा रहा था क्योंकि, मोर्चे पर लड़ रहे फौजियों के पास खबर जानने का एक ही बड़ा साधन था– रेडियो। दोनों ही ओर के फौजियों को बीबीसी के न्यूज बुलेटिन का बेसब्री से इंतजार रहता था।

ऐसे में मीडिया पर प्रसारित खबरें भी मोर्चे पर लड़ रहे जवानों का हौसला बढ़ाने और गिराने में अहम भूमिका निभा रही थीं। दूसरी ओर, इंडियन नेवी ने शुरुआती दौर में ही एक अमेरिका से मिली पाकिस्तान की परमाणु पनडुब्बी PNS गाजी को डुबो दिया…दूसरी ओर, भारतीय नेवी के प्रचंड प्रहार से कराची कांपने लगा। तीन दिनों तक कराची के लोगों को सूरज के दर्शन तक नहीं हुए…धीरे-धीरे पाकिस्तानी सैनिकों की हिम्मत टूटने लगी।

भारतीय वायुसेना का फाइटर जेट पूरब से लेकर पश्चिम तक दुश्मन के लिए काल बने हुए थे। पूर्वी मोर्चे पर पाकिस्तान के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी आखिरी गोली तक लड़ने का दावा कर रहे थे…उन्हें उम्मीद थी कि अमेरिका पाकिस्तान की जरूर मदद करेगा। अमेरिका ने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। यहां तक कि अपना सबसे मजबूत 7th Fleet भारत की ओर रवाना कर दिया… जैसे ही ये खबर भारत पहुंची जनरल मानेक शॉ से भी पूछा जाने लगा कि अब क्या होगा?

अगर अमेरिकी फौजी भी मैदान-ए-जंग में पाकिस्तान की मदद के लिए आ गए तो क्या होगा? सैम मानेकशॉ इस बात को लेकर तो कॉन्फिडेंट थे कि जमीनी लड़ाई में वो अमेरिका को भी हरा देंगे… लेकिन, 7th Fleet की काट उनके पास नहीं थी। तब की पीएम इंदिरा गांधी इस बात को लेकर पूरी तरह कॉन्फिडेंट थीं कि अमेरिकी नौसेना के सबसे ताकतवर 7th Fleet कुछ नहीं कर पाएगा… क्योंकि, रूस के साथ दोस्ती कर अमेरिका की काट इंदिरा गांधी ने तैयार कर ली थी। पाकिस्तान को बुरी तरह से पिटता देख कर अमेरिका किस तिकड़म को आजमाएगा और संयुक्त राष्ट्र में उसके मंसूबों को किस तरह नाकाम किया जाएगा, इसकी मुकम्मल तैयारी इंदिरा गांधी ने कर रखी थी।

कोई भी युद्ध हथियार, हौसला, कूटनीति, खुफिया सूचना के समेत कई मोर्चों पर एक साथ लड़ा जाता है। सेना, राजनीतिक नेतृत्व, कूटनीतिज्ञ, जासूस और मुल्क के लोग सभी बराबर की भूमिका निभाते हैं। साल 1971 के युद्ध की जीत में भारतीय वायु सेना के अदम्य शौर्य के एक खास पन्ने का जिक्र करना भी जरूरी है। संभवत: उसी हमले ने पूर्वी पाकिस्तान के कमांडरों के हौसले बुरी तरह से पस्त कर दिए… वो तारीख थी 14 दिसंबर की।

गवर्नर हाउस पर बम गिराने का बड़ा फैसला 

ढाका के गवर्नर हाउस में एक अहम मीटिंग की खबर भारत के हाथ लगी…ढाका में मौजूद पाकिस्तानी नुमाइंदों और सेना के बड़े अफसरों का मनोबल तोड़ने के लिए शायद ही इससे बेहतर कोई और मौका मिलता..ऐसे में इंडियन एयरफोर्स ने पूर्वी पाकिस्तान के कंट्रोल रूम यानी ढाका गवर्नर हाउस पर बम गिराने का बड़ा फैसला किया। जनरल मानेक शॉ की समझ में एक बात अच्छी तरह आ चुकी थी कि पूर्वी पाकिस्तान के फौजी अब किसी भी समय सरेंडर कर सकते हैं। ऐसे में सरेंडर किस तरह से हो…कहां हो…कैसे हो… इसकी स्क्रिप्ट पर भी काम शुरू हो गया।

ढाका में सरेंडर की खबर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जनरल सैम मानेकशॉ ने दी…मिसेज गांधी ने लोकसभा में शोर-शराबे के बीच ऐलान किया कि ढाका अब एक स्वतंत्र देश की राजधानी है। पाकिस्तान के 93 हजार अफसर और जवानों ने सरेंडर कर दिया…ये दुनिया के इतिहास में सबसे बड़ा सरेंडर है। सरेंडर के वक्त ढाका के रेसकोर्स मैदान में भारतीय फौजियों की तुलना में पाकिस्तानी फौजियों की तादाद 9 गुना से ज्यादा थी… लेकिन, उनके हौसले बुरी तरह टूट चुके थे।

भारतीय फौज किन आदर्शों पर चलती है- दुश्मन देश के युद्धबंदियों के साथ किस तरह का सुलूक करती है इसकी अनगिनत कहानियां सरेंडर करने वाले पाकिस्तान फौज के जवान और अफसरों के घर में आज भी कही सुनी जाती है। भारतीय फौज कितनी अनुशासित है – इसकी भी नजीर 1971 का युद्ध है …भारतीय फौज के शूरवीरों ने जंग जीता और उसके बाद आगे का फैसला तब के राजनीतिक नेतृत्व पर छोड़ दिया।

ये भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक नेतृत्व के काम करने का तरीका है – जिसमें युद्ध में जीत का क्रेडिट तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी देश के लोगों को देती हैं… सेना के जवानों को देती हैं। ये विपक्षी दलों का संसदीय राजनीति में कामकाज का तरीका है –जिसमें जीत के बाद अटल बिहारी वाजपेयी इंदिरा गांधी की तुलना शक्ति की दुर्गा से करते हैं यानी कोई भी जंग सिर्फ और सिर्फ हथियारों के दम पर नहीं लड़ी जाती है..उसमें कई फ्रंट पर तैयारियां करनी पड़ती है, तभी 1971 जैसी जीत मिलती है। जिससे देश का दम पूरी दुनिया को बताना नहीं पड़ता..पूरी दुनिया खुद महसूस करती है।

First published on: Dec 10, 2023 08:59 PM

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