दशहरा यानी बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व. पूरे देश में इस दिन रावण का वध होता है, उसके पुतले जलाए जाते हैं. लेकिन राजधानी दिल्ली से कुछ ही दूरी पर उत्तर प्रदेश का बागपत जिला एक अलग परंपरा का गवाह है. यहां के बड़ागांव में रावण को देवता माना जाता है और उसकी पूजा होती है.
बागपत का बड़ागांव, जिसे लोग “रावण गांव” भी कहते हैं, धार्मिक और ऐतिहासिक मान्यता से जुड़ा है. ग्रामीणों का विश्वास है कि मां मंशादेवी स्वयं रावण की वजह से यहां विराजमान हुईं. पौराणिक कथा के अनुसार, मान्यता है कि त्रेता युग में रावण मां मंशादेवी को हिमालय से लंका ले जाना चाहता था. यात्रा के दौरान जब वह बड़ागांव पहुंचा तो लघुशंका के कारण उसने देवी का शक्तिपुंज एक ग्वाले को थमा दिया. ग्वाला मां के तेज को सहन नहीं कर सका और शक्तिपुंज को जमीन पर रख दिया. मान्यता के अनुसार देवी ने यहीं विराजमान होने का संकल्प लिया और तभी से यह गांव रावण और मंशादेवी से जुड़ा पवित्र स्थल बन गया.
इस गांव में न रामलीला और न होता है दशहरा
यही कारण है कि बड़ागांव में दशहरे पर न तो रामलीला होती है और न ही रावण दहन. इसके बजाय ग्रामीण आटे से प्रतीकात्मक रावण बनाकर पूजा करते हैं. उनका मानना है कि रावण केवल लंका का राजा ही नहीं था, बल्कि महान पंडित और उनका वंशज भी था. यही वजह है कि इस गांव में रावण को अपमानित करना पाप समझा जाता है. इतिहासकार भी मानते हैं कि रावण कुंड और प्राचीन मंदिर इस बात के साक्षी हैं कि यह स्थान पुरातत्व और धार्मिक दृष्टिकोण से विशेष महत्व रखता है. यहां के लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी रावण की स्मृति को संजोए हुए हैं.
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रावण उर्फ बड़ागांव
राजस्व रिकॉर्ड में भी गांव का नाम “रावण उर्फ बड़ागांव” दर्ज है. मंदिरों, प्राचीन मूर्तियों और रावण कुंड जैसे अवशेष इस आस्था को और प्रामाणिक बनाते हैं.
बागपत का यह गांव हमें यह भी सिखाता है कि आस्था और परंपरा हर जगह एक जैसी नहीं होतीं. परंपरा अलग है, लेकिन आस्था उतनी ही गहरी है. जहां एक ओर रावण को बुराई का प्रतीक मानकर उसका दहन किया जाता है, वहीं बड़ागांव के लोग उसे पूजनीय मानते हैं. यही भारत की विविधता है, जहां हर विश्वास की अपनी अलग शक्ति है.