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कैसे बिगड़ा भारत में किसानों का अर्थशास्त्र?

Bharat Ek Soch: आखिर अन्नदाता की हालत खराब क्यों है, वे आत्महत्या करने पर मजबूर क्यों हो रहे हैं, आइए जानते हैं...

Edited By : Anurradha Prasad | Updated: Dec 23, 2023 21:59
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news 24 editor in chief anuradha prasad special show on agriculture
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Bharat Ek Soch: एक बहुत ही प्रचलित कहावत है- उत्तम खेती, मध्यम बान…निषिद चाकरी, भीख समान। मतलब, खेती को सबसे बेहतर…उसके बाद कारोबार और फिर नौकरी को माना जाता था, लेकिन वक्त बदला और खेती मुनाफे की जगह घाटे का सौदा मानी जाने लगी। किसान भी धीरे-धीरे खेती से किनारा करने में अपनी बेहतरी समझने लगे। कमाई के मामले में मजदूरों की स्थिति किसानों से बेहतर होती जा रही है। दिल्ली में एक अनट्रेंड मजदूर की प्रतिदिन की न्यूनतम मजदूरी 673 रुपये है, लेकिन देश में हर महीना एक किसान औसत 10,218 रुपये की कमाई करता है।

जरा सोचिए…कमाई के मामले में किसान की स्थिति बेहतर है या मजदूर की। अब आपके जेहन में सवाल उठ रहा होगा कि हम आज अचानक किसानों की बात क्यों करने लगे। दरअसल, हमारे देश में 23 दिसंबर की तारीख को किसान दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन पूर्व प्रधानमंत्री और जाने-माने किसान नेता चौधरी चरण सिंह का जन्म हुआ था। इस मौके पर विशालकाय भारत के किसानों की स्थिति पर एक ईमानदार मंथन की जरूरत है। आज आपको बताने की कोशिश करेंगे कि जिस सरकार ने अन्नदाता की जेब में सीधा कैश डालने के लिए किसान सम्मान निधि की शुरुआत की, जिस देश में किसान सबसे बड़ा वोट बैंक हैं, जहां की आबादी का बड़ा हिस्सा किसानी से जुड़ा है…उस देश में अन्नदाता की आर्थिक हालत इतनी खराब क्यों है?

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चमकते-दमकते भारत में अन्नदाता आखिर खेती छोड़ने और आत्महत्या के लिए मजबूर क्यों हैं? क्या किसानों की हालत एक दिन में खराब हुई है? किसानों को अपनी पैदावार की सही कीमत क्यों नहीं मिलती…कैसे खेती घाटे का सौदा बनती जा रही है? क्या वाकई खेती-बाड़ी में देश की 40 फीसदी आबादी के जुड़ने की जरूरत है? क्या खेती में जबरन लगी वर्क फोर्स को कहीं और शिफ्ट नहीं किया जा सकता? क्या खेती लायक जमीन पर उत्पादन और नहीं बढ़ाया जा सकता? ये कुछ ऐसे सुलगते सवाल हैं–जिनका जवाब तलाशने के लिए देश में किसानी के अतीत के पन्नों को भी पलटना होगा…आजादी के बाद खेतीबाड़ी को लेकर सियासतदानों के नजरिए और किसानी के तौर-तरीकों दोनों को समझने की कोशिश करेंगे– अपने खास कार्यक्रम अन्नदाता का ‘अग्निपथ’ में।

भारत में किसान हमेशा से स्वाभिमानी..आत्मनिर्भर और मेहनती रहे हैं। देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ और सामाजिक विकास में धुरी की भूमिका में रहे हैं… 30-40 साल पहले की बात है। दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले एक प्रोफेसर अक्सर कहा करते थे कि ग्रामीण क्षेत्र के किसान परिवारों से आने वाले छात्रों का तौर-तरीका बिल्कुल किसी राजकुमार दिखता है।

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दरअसल, प्रोफेसर साहब के भीतर ये सोच इसलिए आकार ली होगी..क्योंकि, डीयू में अपने बच्चों को पढ़ाने की क्षमता रखने वाले किसान एक तरह से बड़ी जोत के मालिक होंगे। उनका रुतबा जमींदार जैसा होगा…लेकिन आज की तारीख में देश में किसानों के खेत का औसत आकार 1.08 हेक्टेयर है। देश के किसानों की सही स्थिति को समझने के लिए इतिहास के पन्नों को पलटते हुए अंग्रेजों के दौर में लेकर चलते हैं। अंग्रेजों के आने से पहले भारत दुनिया के लिए सोने की चिड़िया था…तब दुनिया की जीडीपी में भारत का हिस्सा करीब पच्चीस फीसदी था…जिसका मजबूत स्तंभ किसानी थी।

औद्योगिक क्रांति के बाद अर्थव्यवस्था का पहिया कुछ इस तरह घूमा की भारत पिछड़ने लगा..ब्रिटिश इंडिया में किसानों का बहुत शोषण हुआ, 1947आजादी भी बंटवारे की शर्त पर मिली। बंटवारे का सीधा असर हमारी खेती-बड़ी पर पड़ा। दुनिया का सबसे बेहतर चावल और जूट उत्पादन वाला क्षेत्र यानी पाकिस्तान के हिस्से गया…जिसे आज की तारीख में बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है… वहीं, पश्चिम में गेहूं और कपास उत्पादन का बड़ा हिस्सा भी पाकिस्तान के हिस्से गया। ऐसे में भारत की बड़ी आबादी को खिलाने के लिए चावल और गेहूं की कमी पड़ गई, तब देश की GDP में कृषि का योगदान 60 फीसदी था और 75 फीसदी आबादी इस पर निर्भर थी। ऐसे में आजाद भारत की कमान संभाल रहे पंडित नेहरू ने भारत की तस्वीर और तकदीर बदलने के लिए सबसे पहले कृषि पर ध्यान दिया…उनका साफ-साफ कहना था कि बाकी सभी चीजों के लिए इंतजार किया जा सकता है, लेकिन कृषि के लिए नहीं।

1960 के दशक में एंट्री तक तमाम कोशिशों के बाद भी हमारे देश के किसान इतना अनाज नहीं उगा पा रहे थे- जिससे लोगों की भूख मिटाई जा सके। लोगों की भूख शांत करने के लिए विदेशी अनाज की ओर देखना पड़ रहा था…ऐसे में भारत की स्थिति Ship to Mouth वाली बनी रही। साल 1962 में चीन युद्ध के बाद भारत को अपना ध्यान सरहदों की सुरक्षा की ओर लगाना पड़ा। कृषि और औद्योगिक विकास की जगह सैन्य साजो-सामान पर खर्च बढ़ाना पड़ा। पंडित नेहरू की मौत के बाद देश की कमान लाल बहादुर शास्त्री के कंधों पर आई..उनके सामने एक ओर सरहदों की सुरक्षा थी, तो दूसरी ओर लोगों की भूख मिटाने की चुनौती। ऐसे में शास्त्री जी ने लोगों से देश का स्वाभिमान बनाए रखने के लिए एक दिन के उपवास का आह्वान किया तो उसी दौर में भारत में हरित क्रांति यानी Green Revolution की स्क्रिप्ट तैयार हुई..जिसने भारत को अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बना दिया। उसी दौर में किसानों को पैदावार की खरीद के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी MSP की व्यवस्था शुरू की गई।

1980 के दशक में चावल-गेहूं उगाने से ज्यादा जोर Fishery, Poultry, Vegetables, Fruits की ओर शिफ्ट होने लगा। नीली क्रांति, पीली क्रांति, गोल क्रांति, लाल क्रांति समेत कई क्रांतियों ने भारत में उत्पादन के नए-नए रिकॉर्ड बनाए। कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी देने की परंपरा मजबूत आकार लेने लगी… तो 1991 में उदारीकरण के दौरान उद्योगों के लिए सरकार ने खिड़की-दरवाजे तो खोल दिए, लेकिन कृषि क्षेत्र हाशिए पर रहा।

दूसरी ओर विश्व व्यापार संगठन यानी WTO की शर्तों के मुताबिक, भारत पर कृषि क्षेत्र में सब्सिडी कम करने का दबाव भी बढ़ा…वहीं, अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के देशों WTO के नियमों के बीच से ही अपने किसानों का सब्सिडी देने का रास्ता निकाल लिया और अपने किसानों को भारी-भरकम सब्सिडी देना जारी रखा।

वहीं, भारत जैसे विकासशील देशों पर सब्सिडी नहीं देने के लिए दबाव बनाते रहते हैं। अमेरिका में किसानों की आबादी सिर्फ 26 लाख के आसपास है। वहां के हर किसान के पास औसत ढाई सौ हेक्टेयर जमीन है। वहीं, भारत में किसानों की संख्या 15 करोड़ के आसपास है और जमीन 1.08 हेक्टेयर…ऐसे में ये जानना भी जरूरी है कि हमारी कृषि व्यवस्था में किस तरह के बदलाव की जरूरत है।

भारतीय किसान एक साथ कई मोर्चों पर जूझ रहे हैं। एक ओर कृषि उत्पादों पर लगातार कम होती सब्सिडी…दूसरी ओर खेती में बढ़ती लागत और बढ़ती आबादी के साथ लगातार छोटी होती जोत। ऐसे में किसान लगातार अपनी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग जोर-शोर से करने लगे। किसानों की नाराजगी देखते हुए केंद्र सरकार ने साल 2004 में MS स्वामीनाथन की अगुवाई में नेशनल कमीशन ऑन फार्मर्स समिति का गठन किया…इस समिति ने कृषि और किसानों दोनों की हालत सुधारने के लिए कई सुझाव दिए, जिसे लागू करने की मांग देश के किसान संगठन अक्सर करते रहते हैं।

प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद नरेंद्र मोदी ने किसानों की आमदनी 2022 तक डबल करने का वादा किया था, लेकिन क्या वाकई किसानों की कमाई डबल हुई? हाल में हुए मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी ने वादा किया कि गेहूं की खरीद 2800 रुपये प्रति क्विंटल होगी..वहीं, अभी गेहूं के लिए MSP 2125 रुपये है…जिसे सरकार ने 2024-25 के लिए बढ़ाकर 2275 रुपये करने का ऐलान किया है। धान के लिए 3100 रुपये का वादा किया गया है। धान के लिए MSP 2183 रुपये की तय है। मान लीजिए कि अगर एमपी में बीजेपी गेहूं और धान पर अपने चुनावी वादे को पूरा करती है तो इससे देशभर के किसानों में उम्मीद जगेगी कि सरकार गेहूं 2800 रुपये प्रति क्विंटल और धान 3100 रुपये प्रति क्विंटल पर खरीद सकती है।

साल 2021 में कृषि क्षेत्र से जुड़े दस हजार से अधिक लोगों ने आत्महत्या की। कुछ स्टडी बताती हैं कि भारत में रोजाना औसत दो हजार किसान खेती-बाड़ी छोड़ रहे हैं और शहरों की ओर रोजगार की तलाश में पहुंच रहे हैं। ये भी 100% सच है कि भारत की तरक्की में कृषि क्षेत्र का बहुत बड़ा योगदान है। ये भी सच है कि देश के मान-सम्मान और खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने में भारत के जीवट किसानों एक नि:स्वार्थ कर्मयोगी की भूमिका में रहे हैं।

हर चुनाव में किसानों की बात जोर-शोर से उठती है…पर वो कभी एक बड़ी राजनीतिक ताकत नहीं बन पाए। आज की तारीख में किसानों की पहली बड़ी समस्या है- दिनों-दिन खेतों का छोटा होता आकार। दूसरी समस्या है…पैदावार की सही कीमत नहीं मिलना…तीसरी समस्या है- खेती को बोझ समझना। चौथी समस्या है-खेती को फुल टाइम की जगह पार्ट टाइम जॉब समझना। हमारे किसान भी अपने खेतों में नए प्रयोग करने से बच रहे हैं… सरकार को एक ऐसा रास्ता निकालना होगा जिससे देश की बड़ी युवा आबादी खेती से जुड़े। किसानी को एक ऐसी मुखर सोच की जरूरत है…जिससे खेती को घाटे की जगह फायदे के सौदे में बदला जा सके…युवा खेती से जुड़ने में अच्छी कमाई और गर्व का एहसास कर सकें।

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Anurradha Prasad

First published on: Dec 23, 2023 09:00 PM

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