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भारत एक सोच

Bharat Ek Soch: इंटरनेट के दौर में किस तरह के ‘ब्रह्मचर्य’ की जरूरत?

Bharat Ek Soch : आज के समय में अधिकांश परिजनों की शिकायत रहती है कि उनके बच्चे दिनभर स्मार्टफोन में घुसे रहते हैं। पढ़ने लिखने में उनका मन नहीं लगता है। ऐसे में यह समझने की जरूरत है कि इस इंटरनेट के दौर में किस तरह के 'ब्रह्मचर्य' की जरूरत है?

Author Edited By : Anurradha Prasad Updated: Mar 1, 2025 21:10
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Bharat Ek Soch : अक्सर कहा जाता है पास्ट इज हिस्ट्री एंड फ्यूचर इज मिस्ट्री (Past is History & Future is Mystery)… लेकिन हमारा फ्यूचर यानी भविष्य कैसा होगा- ये बहुत हद तक Present यानी वर्तमान पर निर्भर करता है। हिंदू परंपरा में मंत्रोच्चार द्वारा पत्थर की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का रिवाज है। प्राण प्रतिष्ठा का मतलब है किसी को जीवन देना। क्योंकि, देश या समाज लोगों से बनता है और जैसे लोग होंगे वैसा ही समाज होगा। इसलिए, हजारों साल पहले भारत में ऐसी परंपराएं विकसित की गईं, जिससे समाज को अधिक से अधिक अच्छे, गुणी और संवेदनशील लोग मिल सकें। भारत की प्राण प्रतिष्ठा किस तरह से होती रही है? स्मार्टफोन, सोशल मीडिया और वर्चुअल वर्ल्ड के रिश्ते किस तरह हमारे सामाजिक ताने-बाने के सामने एक नए तरह का संकट पैदा कर रहे हैं? काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार का युवाओं के दिलो-दिमाग में बसेरा होता जा रहा है? भारत की युवा आबादी को इससे किस तरह बचाया जा सकता है- इसे भारतीय परंपरा की आश्रम व्यवस्था की पृष्ठभूमि में समझेंगे। इंटरनेट के दौर में किस तरह के ‘ब्रह्मचर्य’ की जरूरत है?

आज की तारीख में ज्यादातर माता-पिता की शिकायत रहती है कि उनका बच्चा हाथ से निकल गया है? दिनभर स्मार्टफोन में घुसा रहता है? उसका पढ़ने में जरा भी मन नहीं लगता? वो बड़े बुर्जुगों के सामने बिना सोचे कुछ भी बोल देता है। लेकिन, ऐसा क्यों? बच्चों की मानसिक चेतना, संस्कार और बोली को सबसे अधिक स्मार्टफोन प्रभावित कर रहा है। प्राचीन भारत में आश्रम व्यवस्था थी- जिसमें इंसान की उम्र को 100 साल माना गया और उसके जीवन को चार पड़ावों में बांटा गया- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। सभी आश्रम एक ऐसे चार मंजिला इमारत की तरह थे, जिसमें एक की सफलता पर दूसरे की बुनियाद खड़ी थी। ब्रह्मचर्य को इंसान के जीवन की पहली सीढ़ी यानी आधारशिला के तौर पर देखा गया। ऐसे में सबसे पहले समझते हैं कि ब्रह्मचर्य का क्या मतलब है?

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ब्रह्मचर्य इंसान को बैरागी नहीं जिम्मेदार बनाता है

ब्रह्मचर्य का मतलब विद्यार्थी के लिए अलग है। गृहस्थ के लिए अलग है। साधु-संन्यासी के लिए अलग है। सांसारिक जीवन में रहते हुए ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है। ब्रह्मचर्य इंसान को बैरागी नहीं जिम्मेदार बनाता है। जीवन को अनुशासित और संयमित करने का अभ्यास कराता है। भारतीय परंपरा में ब्रह्मचर्य आश्रम का बहुत महत्व है। जीवन के पहले चरण यानी ब्रह्मचर्य आश्रम में कदम रखने के लिए बच्चा उपनयन संस्कार के बाद माता-पिता को छोड़कर शिक्षा-दीक्षा के लिए गुरु के आश्रम जाता था। गुरुकुल में सबको सादगी और संयम के साथ जिंदगी जीने का सलीका सिखाया जाता था। कम संसाधनों में जीवन यापन और विनम्रता का गुण ब्रह्मचर्य आश्रम में सिखाया जाता था। हर ब्रह्मचारी को गृहस्थ आश्रम में दाखिल होने से पहले इस तरह से ट्रेंड किया जाता था, जिससे निजी जीवन से लेकर सामाजिक जीवन तक में संतुलित भूमिका निभा सकें।

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संयम को आधार बनाकर जीवन जीने की कला ही ब्रह्मचर्य है

महाभारत के रचयिता वेदव्यास ने श्रेष्ठ आचरण करने वाले को ब्रह्मचारी कहा है। संयम को आधार बनाकर जीवन जीने की कला ही ब्रह्मचर्य है। इसे दिमाग की एक दशा यानी State of Mind भी कहा जा सकता है, जिसका अभ्यास किसी इंसान के भीतर दिव्य और उच्च कोटी की चारित्रिक चेतना को जन्म देता है । लेकिन, हमारी युवा पीढ़ी की मानसिक चेतना को सोशल मीडिया बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को बढ़ा रहा है, रिश्तों को भी वर्चुअल वर्ल्ड में खोजा जा रहा है । ऐसे रिश्ते जोड़े जा रहे हैं, जिनमें भावनात्मक लगाव कम और स्वार्थ साधने की सोच हावी है। मौजूदा समय में स्कूल-कॉलेजों की पढ़ाई नौकरी के लिए युवाओं को तैयार तो कर रही है। लेकिन, चरित्र निर्माण का तंत्र गायब होता जा रहा है?

ब्रह्मचर्य से शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक विकास होता है

प्राचीन हिंदू ग्रंथों में मनु को प्रथम पुरुष कहा गया है। मनु के मुताबिक ब्रह्मचारी उस रास्ते आगे बढ़ता है- जिससे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास हो, जिससे शरीर उन्नत हो, स्वस्थ्य रहे। मन, बुद्धि, विद्या से पूर्ण हो और आत्मा पवित्र हो। हमारे सामाजिक ताने-बाने में सामान्य तौर पर ब्रह्मचर्य का मतलब काम पर संयम माना जाता है। लेकिन, शारीरिक इच्छाओं पर नियंत्रण से कहीं बहुत आगे का दर्शन है- ब्रह्मचर्य । यह इंसान की इच्छाओं का दमन नहीं मन, कर्म और वचन में संतुलन बैठाने का अभ्यास है। यह इंसान के शरीर को वज्र जैसा बनाने का रास्ता दिखाता है। मन को एकाग्र करने का विज्ञान है। इंद्रियों पर नियंत्रण रखते हुए समाज में शिष्ट आचार-विचार का पथ-प्रदर्शक है। ग्लोबल विलेज वाले कल्चर में इंटरनेट, स्मार्टफोन और कंपटीशन की वजह से समाज में जिस तरह की समस्याएं पैदा हुई हैं, रिश्तों का ताना-बाना टूट रहा है , उसे ठीक करने में प्राचीन आश्रम व्यवस्था की पहली सीढ़ी अहम भूमिका निभा सकती है।

प्राचीन भारत में ब्रह्मचर्य के कड़े नियमों से बच्चे योग्य बनते थे

कहा जाता है कि धन गया तो कुछ नहीं गया। स्वास्थ्य गया तो कुछ गया और चरित्र गया तो सब कुछ चला गया। तेजी से बदलती दुनिया में युवा पीढ़ी में काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और नकल की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ती जा रही है। खानपान सेहत को बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है। नई पीढ़ी अति-उपभोक्तावाद और भोग-विलास के भंवर जाल में डूबती जा रही है। वहीं, प्राचीन भारत की आश्रम व्यवस्था में ब्रह्मचर्य के कड़े नियमों के द्वारा किसी बालक के चरित्र निर्माण पर जोर दिया जाता था, उसे योग्य बनाया जाता था, जिससे आगे चल कर गृहस्थ आश्रम की जिम्मेदारियां संभाल सके, उसे इस तरह अनुशासित बनाया जाता था, जिससे लंबा और स्वस्थ जीवन जी सके, लंबी उम्र के साथ परिवार और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह कर सके, न की खुद के मोहपाश, स्वार्थ और भोग-विलास में ही जीवन खपाता रहे। उसकी जीवनशैली और भविष्य हमेशा एक मिस्ट्री की तरह बना रहे।

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Edited By

Anurradha Prasad

First published on: Mar 01, 2025 09:10 PM

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