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गुजरात

क्या है गोड़ गधा मेला? जीतने वाले को मिलती थी मनचाही लड़की से शादी करने की छूट

'गोड़ गधेड़ा नो मेलो' दाहोद जिले का एक ऐतिहासिक और प्राचीन स्वयंवर प्रथा को दर्शाने वाला विश्व प्रसिद्ध मेला है। इस मेले की प्रतियोगिता जीतने वाले को मनचाही लड़की से शादी करने की छूट मिलती थी।

Author Reported By : bhupendra.thakur Edited By : Avinash Tiwari Updated: Mar 21, 2025 18:45

‘गोड़ गधेड़ा नो मेलो’ दाहोद जिले के आदिवासी क्षेत्रों में हर साल फागुन महीने में होली के त्योहार के बाद मनाया जाता है। यह मेला गरबाड़ा तालुका के जेसावाड़ा गांव के एक सार्वजनिक मैदान में होली के पांचवें, सातवें या बारहवें दिन आयोजित किया जाता है। आसपास के क्षेत्रों और अन्य समुदायों के हजारों लोग बड़े उत्साह के साथ इस मेले में भाग लेते हैं और ढोल की थाप पर झूमते हैं। इस मेले को देखने के लिए दाहोद जिले के अलावा मध्य प्रदेश, राजस्थान और अन्य जिलों से भी लोग आते हैं।

ऐतिहासिक महत्व रखने वाला और प्राचीनकाल की स्वयंवर प्रथा को उजागर करने वाला यह विश्व प्रसिद्ध गोड़ गधेड़ा मेला दाहोद जिले की एक अनूठी पहचान बन चुका है। यह पारंपरिक मेला आज भी अपनी संस्कृति और परंपराओं को बनाए रखने के लिए आयोजित किया जाता है। यह मेला विश्व प्रसिद्ध मेलों में गिना जाता है। इस मेले में सेमल के तने को छीलकर एकदम चिकना बनाया जाता है और इसे जमीन में गड्ढा खोदकर खड़ा किया जाता है।

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लड़कों को छड़ी से पीटती हैं लड़कियां

लगभग 25 से 30 फीट ऊंचे इस तने के शीर्ष पर गुड़ की पोटली बांधी जाती है। इस पेड़ के तने के चारों ओर आदिवासी समाज की कुंवारी कन्याएं पारंपरिक लोकगीत गाते हुए ढोल की ताल पर नृत्य करती हैं। उनके हाथों में हरी नेतर की छड़ियां होती हैं और वे तने के चारों ओर घूमती रहती हैं ताकि कोई युवक उस गुड़ की पोटली लेने के लिए ऊपर न चढ़ सके। यदि कोई युवक पोटली लेने के लिए तने पर चढ़ने का प्रयास करता है तो कन्याएं छड़ी से मारकर उसे नीचे गिराने की कोशिश करती हैं। इस पारंपरिक खेल के दौरान युवतियों की ऊर्जा और युवकों की कोशिशें देखने लायक होती हैं।

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जीतने वाले को मिलती थी मनपसंद दुल्हन

इस पोटली का गुड़ पाने के चक्कर में आदिवासी युवकों की गधों की तरह पिटाई होती है। इस सारे हंगामे के दौरान बीच खंभे के ऊपर बंधा घड़ा गायब कर दिया जाता है और खंभे पर चढ़ने वाला युवक “गधा” साबित होता है। मान्यता के अनुसार, यदि युवक गुड़ खाकर खंभे तक पहुंच जाता था तो वह वहां मौजूद लड़कियों की भीड़ में से अपनी पसंदीदा दुल्हन से शादी कर सकता था। आज ये परंपरा, सांकेतिक तौर पर निभाई जाती है।

खेल जीतने के बाद आदिवासी युवकों को अपनी पसंद की दुल्हन से विवाह करने की अनुमति दी जाती थी, जिससे यह मेला ‘प्राचीन स्वयंवर’ की तरह था। जीतने से पहले युवक को लड़कियों की लाठियों की मार झेलनी पड़ती है, लेकिन उसके बाद उसे गुड़ खाने और खिलाने का मौका मिलता है। इसी कारण इस मेले को ‘गोड़ गधेड़ा नो मेलो’ कहा जाता है।

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Edited By

Avinash Tiwari

Reported By

bhupendra.thakur

First published on: Mar 21, 2025 06:45 PM

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