दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उलफत
मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी।
(लक्ष्मीकांता चावला): आप जानते हैं कि यह ऐतिहासिक पंक्तियां देश के शहीदों ने कब गाईं और क्यों गाईं? यह गीत उनका है जो राष्ट्र के लिए सिर देने के लिए जा रहे थे और गा रहे थे। 30 अक्टूबर 1928 का उनकी इस कहानी का दिन था। संवैधानिक सुधारों की समीक्षा एवं रिपोर्ट तैयार करने के लिए सात सदस्यीय साइमन कमीशन लाहौर में पहुंचा। पूरे भारत में साइमन गो बैक के गगनभेदी नारे गूंज रहे थे। कमीशन के सारे ही सदस्य गोरे थे, एक भी भारतीय नहीं। लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध में प्रदर्शन का नेतृत्व शेर-ए-पंजाब लाला लाजपत राय ने किया। नौजवान भारत सभा के क्रांतिकारियों ने साइमन विरोधी सभा एवं प्रदर्शन का प्रबंध संभाला। जहां से कमीशन के सदस्यों को गुजरना था, वहां भीड़ ज्यादा थी। लाहौर के एसपी स्कॉट ने लाठीचार्ज का हुक्म सुनाया और उप अधीक्षक सांडर्स जनता पर टूट पड़ा।
भगत सिंह और उनके साथियों ने यह अत्याचार देखा, लेकिन लाला जी ने शांत रहने को कहा। लाहौर का आकाश ब्रिटिश सरकार विरोधी नारों से गूंज रहा था और प्रदर्शनकारियों के सिर टूट रहे थे। इतने में स्कॉट स्वयं लाठी से लाला लाजपत राय को निर्दयता से पीटने लगा और वह गंभीर रूप से घायल हुए। अंत में उन्होंने जनसभा में सिंह गर्जना की, मेरे शरीर पर जो लाठियां बरसाई गई हैं, वे भारत में ब्रिटिश शासन के कफन की अंतिम कील साबित होंगी। 18 दिन बाद 17 नवंबर 1928 को यही लाठियां लाला लाजपत राय की शहादत का कारण बनीं। भगत सिंह और उनके मित्र क्रांतिकारियों की दृष्टि में यह राष्ट्र का अपमान था, जिसका प्रतिशोध केवल खून के बदले खून के सिद्धांत से लिया जा सकता था। 10 दिसंबर 1928 की रात को निर्णायक फैसले हुए।
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भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव, जय गोपाल, दुर्गा भाभी आदि एकत्रित हुए। भगत सिंह ने कहा कि उसे मेरे हाथों से मरना चाहिए। आजाद, राजगुरु, सुखदेव और जयगोपाल सहित भगत सिंह को यह काम सौंपा गया। 17 दिसंबर 1928 को डीएसपी सांडर्स दफ्तर से बाहर निकला। उसे ही स्कॉट समझकर राजगुरु ने उस पर गोली चलाई, भगत सिंह ने भी उसके सिर पर गोलियां मारीं। अंग्रेज सरकार कांप उठी। अगले दिन एक इश्तिहार भी बंट गया, लाहौर की दीवारों पर चिपका दिया गया। लिखा था- हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने लाला लाजपत राय की हत्या का प्रतिशोध ले लिया है और फिर साहिब बने भगत सिंह गोद में बच्चा उठाए वीरांगना दुर्गा भाभी के साथ कोलकाता मेल में जा बैठे। राजगुरु नौकरों के डिब्बे में तथा साधु बने आजाद किसी अन्य डिब्बे में जा बैठे।
स्वतंत्रता संग्राम के नायक नया इतिहास बनाने आगे निकल गए। कोलकाता में भगत सिंह अनेक क्रांतिकारियों से मिले। भगवती चरण वहां पहले ही पहुंचे हुए थे। सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने का विचार भी कोलकाता में ही बना था। इसके लिए अवसर भी जल्दी ही मिल गया। केंद्रीय असेंबली में दो बिल पेश होने वाले थे- जन सुरक्षा बिल और औद्योगिक विवाद बिल, जिनका उद्देश्य देश में उठते युवक आंदोलन को कुचलना और मजदूरों को हड़ताल के अधिकार से वंचित रखना था। भगत सिंह और आजाद के नेतृत्व में क्रांतिकारियों की मीटिंग में यह फैसला किया गया कि 8 अप्रैल 1929 को जिस समय वायसराय असेंबली में इन दोनों प्रस्तावों को कानून बनाने की घोषणा करें, तभी बम धमाका किया जाए। इसके लिए भी बटुकेश्वर दत्त और विजय कुमार सिन्हा को चुना गया, लेकिन बाद में भगत सिंह ने यह काम दत्त के साथ स्वयं करने का ही फैसला लिया।
ठीक उसी समय जब वायसराय जनविरोधी, भारत विरोधी प्रस्तावों को कानून बनाने की घोषणा करने के लिए उठे, दत्त और भगत सिंह भी खड़े हो गए। पहला बम भगत सिंह ने और दूसरा दत्त ने फेंका और इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाया। एकदम खलबली मच गई, जॉर्ज शुस्टर अपने टेबल के नीचे छिप गया। सार्जेंट टेरी इतना भयभीत था कि वह इन दोनों को गिरफ्तार नहीं कर पाया। दत्त और भगत सिंह आसानी से भाग सकते थे, लेकिन वे स्वेच्छा से बंदी बने। उन्हें जेल में रखा गया और वहीं मुकदमा भी चला। इसके बाद दोनों को लाहौर ले जाया गया, पर भगत सिंह को मीयांवाली जेल में रखा गया।
लाहौर में सांडर्स की हत्या, असेंबली में बम धमाका आदि केस चले और 7 अक्टूबर 1930 को ट्रिब्यूनल का फैसला जेल में पहुंचा, जो इस प्रकार था- भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी, कमलनाथ तिवारी, विजय कुमार सिहा, जयदेव कपूर, शिव वर्मा, गया प्रसाद, किशोरी लाल और महावीर सिंह को आजीवन कारावास, कुंदनलाल को सात और प्रेम दा को तीन साल का कठोर कारावास। दत्त और भगत सिंह को असेंबली बम कांड के लिए उम्रकैद की सजा सुनाई गई। यह समाचार जेल से बाहर पहुंचते ही इस फैसले के विरोध में पूरे देश में आंदोलन शुरू हो गए, पर गांधी जी लार्ड इरविन के साथ वार्ता-समझौते में भी यह फैसला न बदलवा सके।
ये तीन वीर युवक जो भारत मां को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करवाने, देश की जवानी को बलिदान और त्याग की नई राह दिखाने के लिए स्वयं बलिपथ के पथिक बन गए, वे पुण्यनाम हैं, मई 15, 1907 को पैदा हुए सुखदेव, 27 सितंबर 1907 को जन्मे भगत सिंह तथा 1909 में महाराष्ट्र में जन्म लेने वाले शिवराम राजगुरु। 23 मार्च 1931 को भारत मां के ये तीनों बेटे बलिदान हो गए। इन्हें संध्या के समय फांसी दी गई, क्योंकि निश्चित तिथि 24 मार्च की प्रात:काल तक जनाक्रोश सहने की हिम्मत ही अंग्रेज शासकों में नहीं थी। जब यह तीनों शेर फांसी के लिए चले तो उन्होंने हथकड़ियां न लगाने और चेहरे न ढकने को कहा और इनकी बात मान ली गई। बीच में भगत सिंह, दाहिने बाएं राजगुरु और सुखदेव। उनके होंठों पर गीत था- ‘दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उलफत, मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी।’
और मौत से मिलते हुए भी भगत सिंह ने अंग्रेज मजिस्ट्रेट से कहा कि आप भाग्यशाली हैं कि आज आप अपनी आंखों से यह देखने का अवसर पा रहे हैं कि भारत के क्रांतिकारी किस प्रकार खुशी-खुशी अपने सर्वोच्च आदर्श के लिए मृत्यु का आलिंगन कर सकते हैं। इन्हें फांसी पर लटकाया गया। आधी रात को ही सतलुज के किनारे इनको आधी अधूरी अग्नि दी गई और जब 24 मार्च के सूर्य के साथ ही देशभक्त जनता वहां पहुंची तो वहां मिली कुछ राख, अधजले शरीर और अस्थियां। देश के दीवाने उस राख को ही सिर पर लगाते, अस्थियों को संभालते ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेने लगे। इन क्रांतिकारियों द्वारा गाया गया गीत- ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ जन जन का कंठहार बन गया। पूरे देश की हवा बलिदानी भावना के नशे में नशीली हो गई।
भौतिक सुखों की होड़ में दीवाने देश के कितने नेता और देशवासी यह याद रख पाए हैं कि भारत के लाखों बेटे-बेटियां अपने सांसारिक सुख और सपनों को अपने हाथों से आग लगाकर देश की आजादी के परवाने बने थे। साधन सुख भोगने वाले, शहीदी पर्व पर केवल भाषण देने वाले कितने नेता उस योग-तपस्या, कठोर यातनाओं, कोल्हू में बैल की तरह जुत कर भी आजादी के गीत गाने वालों की हिम्मत से परिचित हो सके हैं? आज की आवश्यकता यह है कि हम भूल जाएं कि हमारे तथाकथित नेता शहीदों को कितना जानते हैं, पर शिक्षा संस्थाओं में पढ़ रहे बच्चों को, भारत की नई पीढ़ी को हम इन वीरों की शहादत से जोड़ सकें। भारत का कल इन बच्चों ने ही तो संभालना है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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