What is indelible ink: आपने भी देश में होने वाले चुनावों में वोट जरूर डाला होगा और आपकी भी उंगली पर नीले रंग की वो स्याही जरूर लगी होगी. क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर चुनावों के दौरान लगने वाली उस नीली स्याही को कौन और कहां बनाया जाता है. आज इस खबर में हम इन्हीं सवालों के जवाब देंगे.
दरअसल, वोट डालने के बाद हर शख्स की बाएं हाथ की तर्जनी उंगली पर ये नीली स्याही लगाई जाती है. इस नीली स्याही को बाएं हाथ की तर्जनी उंगली पर लगाने का मकसद ये होता है कि वो व्यक्ति फिर से वोट न डाल सके और चुनावों में होने वाले फर्जीवाड़े को रोका जा सके. एक पहचान के तौर पर इस अमित स्याही को आपकी उंगली पर लगाया जाता है.
आइए जानते हैं कि कब हुई थी इस नीली स्याही को लगाने की परंपरा और ये कहां बनती है. क्या हम इसे मिटा सकते हैं-
कैसे बनती है इलेक्शन इंक?
इलेक्शन इंक या फिर नीली स्याही सिल्वर नाइट्रेट, कई तरह के डाई और कुछ सॉल्वैंट्स का एक कॉम्बिनेशन होता है. आम तौर पर लोग इसे इलेक्शन इंक या फिर इंडेलिबल इंक के नाम से भी जानते हैं. जब भी कोई व्यक्ति किसी चुनाव में अपने मतदान का इस्तेमाल करता है तो उसके बाद उसके बाएं हाथ की तर्जनी उंगली पर ये नीली स्याही लगाई जाती है. जो वोटर्स के हाथ पर एक अमिट छाप छोड़ती है. लगभग एक हफ्ते तक ये स्याही वोटर के हाथ पर लगी रहती है. इस इंक की खास बात ये है कि ये उंगली पर लगने के सिर्फ 40 सेकंड में ही पूरी तरह से सूख जाती है.
क्यों पड़ी नीली स्याही की जरूरत?
देश में साल 1951-52 में पहली बार चुनाव हुए थे. इस चुनाव में चुनाव आयोग को डुप्लीकेसी की कुछ शिकायतें मिलीं. जिसके बाद इस डुप्लीकेसी को रोकने के लिए ही ये सॉल्यूशन निकाला गया कि वोट डालने के बाद हर एक वोटर की उंगली पर एक स्याही का निशान लगाया जाए, जिससे ये पता चल सके कि वो पहले भी वोट डाल चुका है. लेकिन अब चुनाव आयोग के सामने ये चुनौती थी कि निशान ऐसी स्याही से बनना चाहिए जिसका निशान आसानी से कोई न मिटा सके. इसके बाद इस स्याही को तैयार किया गया.
कौन सी कंपनी बनाती है ये स्याही?
इस नीली स्याही को लोग इंडेलिबल इंक या फिर इलेक्शन इंक भी कहते हैं. ये इंक मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड कंपनी बनाती है. जो कर्नाटक सरकार की पीएसयू है. ये कंपनी पूरे देश में एकमात्र कंपनी है जिसे ये नीली स्याही बनाने का अधिकार मिला हुआ है. साल 1962 के बाद से लेकर अब तक देश में हुए सभी चुनावों में इसी फ्रैक्ट्री में तैयार हुई स्याही का इस्तेमाल किया जाता है. इस स्याही का इस्तेमाल गांव में होने वाले सरपंच चुनावों से लेकर लोकसभा चुनावों में किया जाता है.
पहली बार कब हुआ था इलेक्शन इंक का इस्तेमाल?
इस स्याही का इस्तेमाल सबसे पहले 1962 के आम चुनाव में किया गया था. इस स्याही को तैयार करने में कौन सा केमिकल या नेचुरल कलर इस्तेमाल होता है इसे पूरी तरह से गुप्त रखा जाता है या ये कहें कि खुद चुनाव आयोग केमिकल कंपोजिशन तैयार कर फैक्ट्री को देता है.
कंपनी के एमडी कुमारस्वामी ने बताया कि इसमें इस्तेमाल होने वाले केमिकल और कलर कंपोजिशन चुनाव आयोग ने तय किए हैं जो 1962 में दिए गए फॉर्मूले के आधार पर होता है. इसे जैसे ही उंगलियों पर नाखून और चमड़े पर लगाया जाता है उसके 40 सेकंड्स में ही इसका रंग गहरा होने लगता है. कंपनी का दावा है कि एक बार उंगलियों पर लगने के बाद आप चाहे जितनी कोशिश कर लें ये हट नहीं सकता.
क्या है स्याही बनाने वाली फ्रैक्ट्री का इतिहास
कंपनी की शुरुआत मैसूर के बडियार महाराजा कृष्णदेवराज ने साल 1937 में की थी. यह राजवंश दुनिया के सबसे अमीर राजघरानों में गिना जाता था. महाराजा कृष्णराज वाडियार आजादी से पहले यहां के शासक थे. वाडियार ने साल 1937 में पेंट और वार्निश की एक फ्रैक्ट्री खोली, जिसका नाम मैसूर लैक एंड पेंट्स रखा. इसके बाद जब देश आजाद हुआ तो यह कंपनी कर्नाटक सरकार के पास चली गई.
कितनी होती है स्याही की कीमत?
आपको बता दें एक बोतल में 10 एमएल स्याही होती है और हर एक बोतल की कीमत 164 रुपये निर्धारित है. हालांकि स्याही की कीमत का निर्धारण उसमें प्रयुक्त होने वाले रॉ मैटीरियल की कीमत पर निर्भर करता है.
दुनियाभर के 30 देशों में नीली स्याही होती है निर्यात
ये इंक भारत के अलावा मलेशिया, कंबोडिया, दक्षिण अफ्रीका, मालदीव, तुर्की, अफगानिस्तान, नाइजीरिया, पापुआ न्यू गिनी, बुर्कीना फासो, बुरुंडी और टोगो समेत एशिया और अफ्रीका के करीब 30 देश हैं, जहां के आम चुनाव में मैसूर की ये स्याही उपलब्ध करवाई जा चुकी है. एक आंकड़े के मुताबिक, पिछले लोकसभा चुनाव में करीब 384 करोड़ लागत की स्याही का उपयोग हुआ था. जबकि 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में 3,000 लीटर स्याही का इस्तेमाल हुआ था.










