फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ। असल जिंदगी का ये वो किरदार है, जो भारतीय सेना के इतिहास में एक अहम नाम है। उन्हें 1947 में देश के बंटवारे के वक्त पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना और एक अन्य ने पाकिस्तानी सेना में शामिल होने के लिए कहा था। भारतीय सेना के अभिलेखागार और विकिमीडिया कॉमन्स से उपलब्ध जानकारी के मुताबिक फील्ड मार्शल सैम होर्मूसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ उर्फ सैम बहादुर ने न सिर्फ जिन्ना का यह ऑफर ठुकरा दिया था, बल्कि बाद में पाकिस्तान के दो टुकड़े तक करने में भी अहम भूमिका निभाई। अब जबकि शुक्रवार 1 दिसंबर को सिनेमाघरों में रीलीज हो चुकी सैम बहादुर की बायोपिक के साथ हर जुबां पर यह नाम है तो हर कोई इस रीयल लाइफ हीराे की कहानी को एकदम तफसील से जानना चाहता है।
पंजाब में जन्मे, भारतीय सेना के अध्यक्ष भी बने
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, सैम मानेकशॉ पंजाब के अमृतसर में एक पारसी परिवार में 3 अप्रैल 1914 को जन्मे थे। उनका पूरा नाम सैम होरमूजजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ था, लेकिन इस नाम से उन्हें बहुत कम लोग बुलाते थे। सैम ने शुरुआती पढ़ाई अमृतसर में की। शेरवुड कॉलेज में भी पढ़े। वे देहरादून स्थित इंडियन मिलिट्री अकादमी के पहले बैच के स्टूडेंट थे। 4 फरवरी 1934 को सैम 12 FF राइफल्स में कमीशन हुए थे। इसके बाद सेना में विभिन्न पदों पर रहते हुए सैम भारतीय सेना के अध्यक्ष भी बने। सैम देश के पहले फील्ड मार्शल थे और 1973 में उन्हें फील्ड मार्शल की उपाधि दी गई थी। 1971 के युद्ध में पाकिस्तान को हराने और पाकिस्तान को बांट कर नया देश बांग्लादेश बनाने का क्रेडिट सैम को ही जाता है। सैम का आर्मी करियर करीब 4 दशक का रहा। उन्होंने 5 युद्धों में हस्सा लिया। सैम भारतीय सेना के पहले 5 स्टार जनरल भी थे। हालांकि अगर मानेकशॉ ने 1947 को अलग तरीके से चुना होता तो इतिहास बहुत अलग होता।
दो टुकड़ों में बंट गई थी ब्रिटिश इंडिया आर्मी
1947 में अंग्रेजों की गुलामी से आजादी के बाद भारतीय उपमहाद्वीप के भूभाग के अलावा और भी बहुत कुछ बंट गया था। रेलवे से लेकर सरकारी खजाने तक, सिविल सेवाओं से लेकर सरकारी संपत्ति तक, कुर्सियों और मेजों तक, सब कुछ दो उभरते देशों के बीच विभाजित हो गया था। यहां तक कि लगभग 4 लाख सैनिकों वाली ब्रिटिश इंडिया आर्मी भी बंट गई। लगभग 2 लाख 60 हजार भारत के हिस्से आए और बाकी पाकिस्तान के।
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पाकिस्तान में जाने के लिए विकल्प की थी अहम वजह
इस बारे में इतिहासकार ब्रायन लैपिंग ने एंड ऑफ एम्पायर (1985) में लिखा है, ‘अधिकारियों को अपनी पसंद दर्ज करने के लिए एक फॉर्म प्राप्त हुआ। अधिकांश हिंदुओं और सिखों के पास कोई विकल्प नहीं था। पाकिस्तान के पास ये नहीं होंगे, लेकिन उन मुसलमानों के लिए जिनके घर भारत में थे। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में एक धर्मनिरपेक्ष सेना की आवश्यकता के बारे में आश्वस्त कई लोगों ने भारत को चुना। ईसाई और पारसी सैनिकों को भी इसी तरह के विकल्प का सामना करना पड़ा’।
इस उल्लेख के मुताबिक सैम मानेकशॉ की मूल इकाई 12वीं फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट पाकिस्तानी सेना का हिस्सा बन गई, जिसके चलते मानेकशॉ के सामने भी एक विकल्प था। बताया जाता है कि दरअसल, पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना ने खुद मानेकशॉ से पाकिस्तानी सेना में शामिल होने का अनुरोध किया था। मानेकशॉ ने जिन्ना की प्रतिभाशाली अधिकारी के लिए सुनहरे करियर की संभावनाओं ठुकरा दिया।
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रिटायरमेंट के बाद दिया चटपटा जवाब
कर्नल तेजा सिंह औलख (तब एक मेजर) ने फील्ड मार्शल मानेकशॉ की हनादी फल्की की जीवनी में उद्धृत करते हुए कहा, ‘जिन्ना के साथ सहमत होने से पाकिस्तानी सेना में तेजी से पदोन्नति होती, लेकिन सैम ने भारत में रहना पसंद किया’। इसके परिणामस्वरूप मानेकशॉ को पहले बहुत ही संक्षिप्त समय के लिए 16वीं पंजाब रेजिमेंट में स्थानांतरित किया गया था। बाद में लेफ्टिनेंट कर्नल के रूप में 5वीं गोरखा राइफल्स में स्थानांतरित किया गया। बरसों बीत जाने पर सेवानिवृत्ति के बाद फील्ड मार्शल मानेकशॉ से 1947 में उनके फैसले के बारे में पूछा गया तो उन्होंने मजाक में जवाब दिया, ‘जिन्ना ने मुझे 1947 में पाकिस्तानी सेना में शामिल होने के लिए कहा था। अगर मैं ऐसा करता तो आप भारत को हरा देते’।