विजय शंकर
Maharashtra Politics: महाराष्ट्र के चुनावी अखाड़े में खड़ा हर बाजीगर परेशान है? कुछ के सामने सत्ता में बने रहने की चुनौती है। कुछ के सामने सियासी वजूद बचाए रखने की, तो कुछ प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ रहे हैं। महाराष्ट्र में राजनीतिक दलों के बीच गठबंधन का इतिहास भी कुई मौकों पर छापामार युद्ध की तरह दिखता है। कभी चुनाव अलग-अलग लड़े और बाद में सत्ता के लिए हाथ मिला लिया। कभी चुनाव लड़े तो साथ-साथ, लेकिन नतीजों के बाद रास्ता बदल लिया। ऐसे में अविश्वास और विश्वाघात महाराष्ट्र की राजनीति के दो पहिए की तरह रहे हैं- जहां सियासी रिश्ते नफा-नुकसान के हिसाब से गिरगिट की तरह रंग बदलते रहे हैं।
क्या EVM को चुनावी मुद्दा बनाएगी महाविकास अघाड़ी?
क्या इस बार भी वोटिंग से पहले और वोटिंग के बाद ऐसा ही होगा? क्या महाविकास अघाड़ी और महायुति एक जुट रह पाएगा? क्या सीटों के बंटवारे पर एक-दूसरे में खींचतान नहीं होगी? ऐसे सवालों के जवाब के लिए अभी थोड़ा इंतजार करना होगा? महाराष्ट्र में अबकी बार सबसे बड़ा मुद्दा क्या होगा- ये भी एक बड़ा सवाल है? क्या महाविकास अघाड़ी EVM को चुनावी मुद्दा बनाएगी या फिर चुनावी अखाड़े में मराठा आरक्षण, किसानों का मुद्दा, क्षेत्रीय अस्मिता और असली बनाम नकली की लड़ाई पर लहर बनाने की कोशिश होगी?
महाराष्ट्र में अलग राज्य बनने के बाद सूबे की सियासत किस तरह आगे बढ़ी। वहां की राजनीति में बाला साहेब ठाकरे और शरद पवार ने किस तरह से जगह बनाई? 1980 के दशक में मुख्यमंत्रियों को बदलने का खेल किस तरह चला? आज बात महाराष्ट्र में मराठी मानुष, कट्टर हिंदुत्व और मुखर राष्ट्रवाद की राजनीति की।
आरक्षण और राम मंदिर का मुद्दा
मराठी लोगों के हक-हकूक की बात करने वाली शिवसेना 1990 का दशक आते-आते महाराष्ट्र में एक बड़ी राजनीति ताकत के तौर पर उभर चुकी थी। उस दौर में मुंबई में बाला साहेब ठाकरे का Power, Influence और Charisma तीनों साफ-साफ दिखने लगा था। दूसरी ओर देश की राजनीति मंडल-कमंडल दो खांचों में बंट चुकी थी। तब पूरे देश में दो सुर सुनाई दे रहे थे- एक आरक्षण और दूसरा अयोध्या में राम मंदिर। पूरे देश में चल रही सियासी हलचल के बीच 1989 में शिवसेना और बीजेपी ने हाथ मिलाया। बीजेपी और शिवसेना को करीब लाने में अहम भूमिका निभाई थी प्रमोद महाजन ने। दोनों पार्टियों ने 1989 का लोकसभा और 1990 का महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव मिलकर लड़ा, दोनों ही दलों को फायदा हुआ।
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कुछ निर्दलीयों के समर्थन से मुख्यमंत्री के रूप में शरद पवार ने शपथ ली, लेकिन कुछ महीने बाद ही वो दिल्ली की राजनीति में बड़ा आसमान तलाशने पहुंच गए, लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी मिली पी.वी. नरसिम्हा राव को। शरद पवार पीएम की रेस में पिछड़ गए। इसके बाद देश में दो बड़ी घटनाएं हुईं- अयोध्या में बाबरी ढांचा गिराया जाना, तब देश के गृह मंत्री की कुर्सी पर थे- महाराष्ट्र से आने वाले एसबी चव्हाण और दूसरी मुंबई में सीरियल ब्लास्ट, जिसमें ढाई सौ से अधिक लोगों की जान गई।
मुंबई ने झेले दर्द
अयोध्या से मुंबई की दूरी करीब डेढ़ हजार किलोमीटर है। मुंबई सीरियल ब्लास्ट का कनेक्शन अयोध्या में 6 दिसंबर 1992 की घटना से भी जोड़ कर देखा जाता है। मुंबई ने कई दर्द और जख्म झेले। कभी लोकल में धमाके, कभी आतंकी हमला। राजनीति में अरब सागर की लहरों की तरह ही लोगों के मिजाज के हिसाब में उठती और गिरती रही। वो साल 1995 का था- महाराष्ट्र तेजी से अगले विधानसभा चुनाव की ओर बढ़ रहा था। तब लोगों के बीच चर्चा के लिए सबसे गर्म मुद्दा ये था कि क्या राजनीतिक दल या नेता हिंदुत्व के नाम पर वोट मांग सकते हैं?
पूरी ताकत के साथ लड़े शिवसेना-बीजेपी
सुप्रीम कोर्ट भी इसी सवाल से जूझ रहा था। दरअसल, साल 1987 में शिवसेना उम्मीदवार रमेश यशवंत प्रभु के लिए चुनाव प्रचार करते हुए बाल ठाकरे ने मुस्लिमों के खिलाफ तीखी टिप्पणी की थी। उसके बाद 1990 में शिवसेना उम्मीदवार मनोहर जोशी के लिए चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी नेता प्रमोद महाजन ने कुछ तल्ख भाषा का इस्तेमाल किया था। मामला हाईकोर्ट होते हुए सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। देश की सबसे बड़ी अदालत ने अपने फैसले मे कहा कि हिंदुत्व Way of life यानी जिंदगी जीने का तरीका है। उसी साल विधानसभा चुनाव में शिवसेना और बीजेपी पूरी ताकत के साथ लड़े। सूबे में गठबंधन सरकार बनी, जिसमें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली बाला साहेब ठाकरे के खास-म-खास मनोहर जोशी। जिनता एक पैर मुख्यमंत्री आवास यानी वर्षा में होता था और दूसरा पैर मातोश्री में।
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एक साथ हुए लोकसभा और विधानसभा चुनाव
शरद पवार दिल्ली की राजनीति में शरतंज पर गोटियां तो लगातार आगे-पीछे कर रहे थे, लेकिन उन्हें खास कामयाबी नहीं मिल पा रही थी। ऐसे में उन्होंने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को आगे करते हुए कांग्रेस से रिश्ता तोड़ लिया और नई पार्टी बना ली- राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी। 1999 में लोकसभा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव साथ हुए। कांग्रेस और NCP यानी दोनों पार्टियां अलग-अलग चुनाव लड़ीं, लेकिन चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए गठबंधन में भी देर नहीं लगी।
NCP को अपने तरीके से चला रहे थे अजीत पवार
2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी, लेकिन सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर दिया। ऐसे में NCP भी UPA की जहाज पर सवार हो गई और मनमोहन सरकार में बतौर कृषि मंत्री देश की किसानी दुरुस्त करने में शरद पवार जुट गए। उधर, महाराष्ट्र में शरद पवार के भतीजे अजीत पवार NCP को अपने तरीके से चला रहे थे। उनका पार्टी पर कंट्रोल बढ़ने लगा। उधर, बाल ठाकरे के रहते ही शिवसेना में उत्तराधिकार की लड़ाई सामने आने लगी।
जब टूटा गठबंधन
संजय निरुपम और नारायण राणे जैसे नेताओं ने रास्ता बदल लिया। बाल ठाकरे ने शिवसेना की कमान अपने बेटे उद्धव ठाकरे को सौंपी तो भतीजा राज ठाकरे ने अलग पार्टी बना ली। 17 नवंबर, 2012 को बाल ठाकरे ने आखिरी सांस ली। करीब 20 लाख लोगों ने नम आंखों से मुंबई की सड़कों पर विदाई दी। इसके बाद शिवसेना को बढ़ाने की जिम्मेदारी पूरी तरह उद्धव ठाकरे के कंधे पर आ गई। बीजेपी भी अटल-आडवाणी युग से मोदी-शाह युग में आ गई। 2014 में शिवसेना और बीजेपी का 25 साल पुरान गठबंधन टूट गया।
इस तरह लगा देवेंद्र फडणवीस का नंबर
2014 में बीजेपी की लीडरशिप नए-नए प्रयोग कर रही थी। साल 2014 में देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाना भी एक नए प्रयोग की तरह देखा जाता है। उस दौर में बीजेपी बहुसंख्यक की जगह अल्पसंख्यक समुदाय के चेहरों को सीएम की कुर्सी पर बैठा रही थी। इसी कड़ी में महाराष्ट्र में ब्राह्मण समुदाय से आनेवाले देवेंद्र फडणवीस का नंबर लग गया। हरियाणा में गैर-जाट मनोहर लाल खट्टर मुख्यमंत्री बनाए गए।
शिवसेना ने मिलाया कांग्रेस से हाथ
झारखंड में गैर-आदिवासी रघुवर दास को कमान सौंपी गई। साल 2019 में लोकसभा चुनाव में बीजेपी और शिवसेना दोनों साथ आए, लेकिन विधानसभा चुनावों में आखिरी वक्त में सीटों के बंटवारे पर डील सील हुई। उसके बाद ऐसी खींचतान और भीतरघात का खेल ऐसे चला कि उद्धव ठाकरे ने वैचारिक रूप से शिवसेना की धुर विरोधी कांग्रेस से हाथ मिला लिया। दूसरों के खेमे में सेंधमारी का ऐसा खेल चला कि रात के अंधेरे में राजभवन में मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री ने शपथ ली। महाराष्ट्र की राजनीति के चाणक्य शरद पवार देखते रह गए और उनकी एनसीपी टूट गई। एकनाथ शिंदे ने शिवसेना तोड़ दी और मातोश्री में बैठे उद्धव ठाकरे देखते रह गए। महाराष्ट्र में एक ओर बीजेपी, शिवसेना का शिंदे गुट और एनसीपी का पवार गुट है। दूसरी ओर शिवसेना का उद्धव गुट, कांग्रेस और एनसीपी का शरद पवार गुट है।
नतीजों से खुशी और दुख
इस साल हुए लोकसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर कोई बहुत खुश तो कोई मायूस है। बीजेपी के लिए ये हिसाब लगाना मुश्किल है कि महाराष्ट्र में उसकी जमीन कितनी मजबूत है? देवेंद्र फडणवीस किस बाजीगरी दिखाएंगे से महाराष्ट्र में हवा का रूख कमल के पक्ष में करेंगे? महाराष्ट्र के मौजूदा मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे भी हिसाब लगा रहे होंगे कि लोकसभा चुनाव में तो उनके दल का स्ट्राइक रेट बेहतर रहा, लेकिन विधानसभा चुनाव में उनकी अगुवाई वाली शिवसेना अपना स्ट्राइक रेट मेंटेन कैसे रख पाएगी? चुनावी नतीजों को लेकर अजीत पवार, शरद पवार, उद्धव ठाकरे जैसे राजनीति के धुरंधर खिलाड़ियों की आंखों से नींद गायब होगी। एक मौजूदा समीकरणों को लेकर और दूसरा पार्टी में भीतरघात को आशंका को लेकर। कांग्रेस के महारथी हिसाब लगा रहे होंगे कि जम्मू-कश्मीर और हरियाणा के नतीजों का महाराष्ट्र में किस तरह का साइड इफेक्ट दिखेगा?
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