G20 Summit Updates How India becoming leader of Global South: मैं हूं अनुराधा प्रसाद। दुनिया के सबसे असरदार और प्रभावशाली मंच जी-20 का शिखर सम्मेलन दिल्ली के भारत मंडपम में संपन्न हुआ। प्रधानमंत्री मोदी ने जी-20 की प्रेसीडेंसी ट्रांसफर करने की औपचारिकता भी ब्राजील को हथौड़ा सौंप कर पूरी कर दी। लेकिन, बड़ा सवाल ये है कि जी-20 के दिल्ली चैप्टर को इतिहास और कूटनीति किस तरह से देखेंगे? जी-20 के भारत मंडपम चैप्टर को तीन तरह से याद किया जाएगा। पहला, दुनिया की ताकतवर शक्तियों की आपसी प्रतिद्वंदिता और ईगो को किस तरह से किनारे रखते हुए सहमति बनाई जाती है। दूसरा, अफ्रीकन यूनियन को जी-20 जैसे मंच से जोड़कर दुनिया की बेहतरी के लिए कैसे सबको साथ खड़ा किया जा सकता है। तीसरा, कूटनीति जैसी मुश्किल समझी जाने वाली चीज से आम लोगों को किस तरह से जोड़ा जा सकता है?
भारत ने पूरी दुनिया को बता दिया है कि सबकी बेहतरी, खुशहाली और समृद्धि का फलसफा कैसे निकाला जा सकता है । जी-20 शिखर सम्मेलन का पहला दिन पूरी तरह एक्शन से भरपूर रहा। चाहे अफ्रीकन यूनियन को जी-20 का स्थाई सदस्य बनाया जाना हो या फिर Delhi Declaration हो। इसके नफा-नुकसान यानी प्रभाव को लेकर लंबे समय तक विश्लेषण जारी रहने की उम्मीद है। ऐसे में आज मैं आपको बताने की कोशिश करूंगी कि जी-20 के दिल्ली चैप्टर को किस तरह से देखा जाएगा? जी-20 में अफ्रीकन यूनियन की एंट्री से भारत का पलड़ा भारी हुआ या हल्का? दुनिया की महाशक्तियों की अफ्रीका में इतनी दिलचस्पी क्यों है? अफ्रीका के साथ बेहतर रिश्तों में चीन क्या-क्या दिखता है? यूरोपीय देशों को अफ्रीका की युवा आबादी में किस तरह की उम्मीद दिख रही है। अमेरिका किस रणनीति के साथ अफ्रीकी देशों को साधना चाहता है? अफ्रीकी जमीन के नीचे दबे बेशकीमती खनिज, प्राकृतिक गैस, तेल भंडार, सेना-हीरा, यूरेनियम-प्लेटिनम पर कौन बाज की तरह नज़रें टिकाए हुए हैं? दुनिया की बड़ी ताकतें अफ्रीकन यूनियन में क्या तलाश रही हैं और अफ्रीकी देश दुनिया से क्या चाहते हैं? ऐसे सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे- अपने खास कार्यक्रम जी-20 का ‘अफ्रीका अध्याय’ में…
भारत ने पूरी दुनिया को कराया ताकत का एहसास
भारत ने पूरी दुनिया को बता दिया कि कूटनीति कैसे की जाती है? प्रभावशाली देशों में विरोधाभासों के बीच मुश्किल से मुश्किल मुद्दों पर सहमति कैसे बनी जाती है? कूटनीति में परदे की पीछे ग्राउंड तैयार करने का काम कैसे होता है? दिल्ली जी-20 शिखर सम्मेलन में अगर ब्रैंड भारत मजबूत हुआ तो इसके पीछे कौन लोग दिन-रात एक किए हुए थे? ऐसे सवाल आपके भी जेहन में उठ रहे होंगे। ऐसे नामों का जिक्र करने से पहले ये देखते हैं कि भारत मंडपम में किस तरह कूटनीति आगे बढ़ी? एक अर्थ, वन फैमिली के बाद वन फ्यूचर की बात किस तरह आगे बढ़ी। सबसे पहले ये देखते हैं कि दिल्ली में आज कूटनीति का कौन सा रंग दिखा?
कई उपलब्धियां भारत के लगी हाथ
जब भी जी-20 का इतिहास पलटा जाएगा। उसमें दिल्ली शिखर सम्मेलन का पन्ना बहुत चमकदार दिखेगा। यूक्रेन युद्ध के बाद जिस तरह से रूस-चीन एक साथ खड़े थे। अमेरिका और यूरोपीय देश एक साथ। विरोधी सुरों के बाद भी भारत बड़ी चतुराई से साधते हुए Delhi Declaration के लिए पूर्ण सहमति बनाने में कामयाब रहा। अफ्रीकन यूनियन को जी-20 की स्थाई सदस्यता दिलाने में सफलता हासिल की। इस काम में प्रोफेशनल डिप्लोमेट्स की टीमें दिन-रात एक की हुई थीं। लेकिन, भारतीय विदेश सेवा के ऐसे चार अफसरों का जिक्र करना जरूरी है, जिन्होंने असंभव जैसे दिख रहे काम को संभव में बदल दिया। इस लिस्ट में पहला नाम है– अभय ठाकुर। दूसरा नाम है आशीष सिन्हा… तीसरा नाम है- नागराज नायडू काकानूर और चौथा नाम है एनम गंभीर। Indian Foreign Service के इन अति होनहार अफसरों ने नेप्थ्य में रहते हुए जी-20 को सफल बनाने में बहुत अहम किरदार निभाया लेकिन, ये समझना भी जरूरी है कि अफ्रीकी यूनियन के जी-20 से जुड़ने का मतलब क्या है? इससे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का पलड़ा किस तरह से भारी होगा?
अफ्रीका के साथ संघर्ष में खड़ा रहा भारत
अफ्रीका के लोगों का रोम-रोम इस बात की गवाही देता है कि भारत के लोग उनके साथ संघर्ष में कैसे खड़े रहे हैं। भारत और अफ्रीका के लोगों ने किस तरह उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी। महात्मा गांधी ने किस तरह से अफ्रीका की जमीन से भेदभाव और उपनिवेशवाद के खिलाफ शंखनाद किया। आजादी के बाद हर प्रभावशाली और बड़े अंतरराष्ट्रीय मंच पर अफ्रीका की आवाज का समर्थन किया। समय के प्रवाह के साथ निवेश और कारोबार की डोर भारत और अफ्रीका के बीच मजबूत होती रही। इसमें स्वार्थ नहीं और सहयोग की भावना कूट-कूट कर भरी थी। रिश्तों की डोर को जोड़े रखने जो तत्व सबसे आगे रहा- वो इंसानियत का रहा, मानवता का रहा…बराबरी का रहा। इसलिए, भारत की अध्यक्षता में जी- 20 का विस्तार हुआ तो अफ्रीकी यूनियन को स्थाई सदस्यता दी गई। इस विस्तार में इंसानियत का विस्तार और सहयोग देखा गया। एक बेहतर दुनिया को गढ़ने में अफ्रीका की दमदार भूमिका की ईमानदार सोच है।
एक दौर था जब ब्रिटेन समेत यूरोपीय देशों का दुनिया में सिक्का चला करता था। शोषण और भेदभाव वाली औपनिवेशिक व्यवस्था का शिकार अफ्रीकी देश भी बने। दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोपीय देश ढलान की ओर बढ़े और अमेरिका का उदय हुआ। अमेरिका ने लोकतंत्र और USSR ने साम्यवाद के नाम पर एक अलग World Order बनाने की कोशिश की, उस दौर में अफ्रीकी देशों को भारत गुटनिरपेक्षता की राह दिखा रहा था। USSR के बिखरने और शीत युद्ध खत्म होने के बाद वैश्वीकरण की हवा चली तो दुनिया की बड़ी ताकतें अफ्रीका में अपना मतलब साधने में जुटी रहीं। पिछले एक दशक में चाइना ने अफ्रीकी देशों में बेहिसाब निवेश किया। इतना निवेश की चीन के कर्ज बोझ तले अफ्रीका के कई देश त्राहिमाम कर रहे हैं । अफ्रीका में चीन कर्ज की वसूली वहां के खनिज और बेशकीमती संसाधनों के रूप में करता है। ऐसे में समझते हैं कि अफ्रीकी देशों की जमीन के नीचे किस तरह का खजाना छिपा है?
भारत का अफ्रीका से कारोबार करीब 100 बिलियन डॉलर का
अफ्रीकन यूनियन के सदस्य देशों के पास सिर्फ ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने वाले खनिज और प्राकृतिक संसाधन ही नहीं हैं। बल्कि भविष्य के खनिज भी हैं। मतलब, जो स्मार्टफोन से लेकर लैपटॉप और कंप्यूटर बनाने में इस्तेमाल होते हैं। ऐसे में चीन को लगता है कि दुनिया की फैक्ट्री का खिताब बचाए रखने के लिए उसे अफ्रीकी देशों के खनिजों की बहुत जरूरत है। पिछले एक दशक में चाइना ने अफ्रीकी देशों में अपनी मौजूदगी जिस तरह से बढ़ाई है, उसमें चीन और अफ्रीका का कारोबार सवा दो सौ बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है। वहीं, भारत का अफ्रीका से कारोबार करीब 100 बिलियन डॉलर का है। पिछली सरकार यानी मनमोहन सिंह के दौर में भारत ने अफ्रीकी देशों में निवेश के जरिए अपनी मौजूदगी बढ़ाने की कोशिश की। लेकिन, बाद में ये सिलसिला थोड़ा सुस्त पड़ा। हालांकि, ONGC Videsh की Congo, Egypt, Ivory Coast, Libya, Mozambique और सूडान में मौजूदगी है तो गुजरात स्टेट पेट्रोलियम कॉरपोरेशन का दफ्तर इजिप्ट में खुला। Oil India Limited के बोर्ड लीबिया और नाइजीरिया में दिखने लगे। टाटा स्टील की दक्षिण अफ्रीका में दमदार मौजूदगी दिखी जो जांबिया में टाटा पावर की। एक अनुमान के मुताबिक, अफ्रीका में भारतीय कंपनियों का प्राइवेट इनवेस्टमेंट ही करीब 75 बिलियन डॉलर का है। ये तो हुई बात भारत की…अब ये समझना भी जरूरी है कि चाइना अफ्रीका में किस तरह से लूट-खसोट मचाए हुए है।
चीनी साहूकार नीति से लोग परेशान
अफ्रीका के कई देश चीन की साहूकार नीति से परेशान हैं। वो किसी भी तरह ड्रैगन से छुटकारा चाहते हैं। वहीं, जी-7 देशों का अफ्रीका के साथ बहुत पुराना रिश्ता है लेकिन, भारत जैसा बराबरी का संबंध नहीं है। अमेरिका की नज़र अफ्रीका में मौजूद भविष्य के खनिजों पर है। अफ्रीका में मौजूद करीब 40 करोड़ आबादी वाले मिडिल क्लास पर है, जिसके 2050 तक डबल होने की भविष्यवाणी की जा रही है। यूरोप के सामने दो तरह की चुनौतियां हैं, एक खाने की लिए आनाज की कमी और दूसरा युवा आबादी यानी Active Work Force का लगातार कम होना। ऐसे में यूरोपीय देश अपनी अनाज जरूरतों को पूरा करने के लिए अफ्रीका की जमीन की ओर देख रहे होंगे तो वहां की युवा आबादी में अपने मुल्क की आर्थिक चुनौतियों से निपटने का उपाय।
अफ्रीकी देशों पर नज़र रखने वाले एक्सपर्ट्स की एक सोच ये भी है कि फिलहाल अफ्रीकी देश अभी जहां खड़े हैं, उन्हें यूरोप और अमेरिका बनने में कम से कम दो सदी तो लग ही जाएंगे। चीन जैसी स्थिति में पहुंचने के लिए भी चार पीढ़ियों का फासला तय करना होगा। भारत जैसा बनने में भी 100 साल लग सकते हैं। लेकिन, 50 साल में थाईलैंड या मलेशिया जैसी स्थिति में आ सकते हैं। मौजूदा समय में अफ्रीका में अमेरिका और यूरोपीय देशों को जहां बड़ा बाजार और युवा आबादी दिख रही है। वहीं, चीन वहां के बेशकीमती खनिजों के जरिए दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बनने का सपना देख रहा है। पिछले कुछ वर्षों से भारत ग्लोबल साउथ की मुखर आवाज बना हुआ है, जिसमें रिश्तों का आधार वर्चस्व नहीं बराबरी है। दुनिया की समस्याओं को सुलझाने में भारत जिस तरह से दमदार भूमिका निभा रहा है। उसमें अब दिल्ली को अफ्रीकन यूनियन के 55 देशों का भी साथ मिलना तय है, जिसमें से 54 देश संयुक्त राष्ट्र के भी सदस्य हैं। ऐसे में आने वाले समय में अफ्रीका World Diplomacy और Economic Order बनाने में अफ्रीका दमदार भूमिका निभाना दिख सकता है।
रिसर्च-स्क्रिप्ट:विजय शंकर