विवेक चन्द्र, रांची : आप सभी जालियांबाला बाग की वह घटना जानते होंगे जब जनरल डायर ने बाग में निहत्थों पर गोलियां चलवाई थी। जालियांवाला बाग जैसे ही घटना उससे 20 वर्ष पूर्व ही झारखंड के खूंटी में घटी थी। यहां भी अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा के नेतृत्व में सभा कर रहे निहत्थे देश भक्तों को गोलियों से छलनी कर दिया था। 9 जनवरी को इस घटना की बरसी शहीद दिवस के रूप में मनाई जाती है।
आज 9 जनवरी है। डोंबारी बुरू शहीद दिवस। हम रांची से करीब 52 किलोमीटर की दूरी पर घने जंगलों और पहाड़ों से घिरे खूंटी जिले के डोंबारी बुरू पहुंचे हैं। यहां पहाड़ी की चोटी पर बना शहीद स्मारक हमें दूर से ही नजर आ रहा है।
9 जनवरी को लगता है मेला
पहाड़ी की तलहटी पर देश भक्ति गीत बज रहे हैं। यहां भगवान बिरसा मुंडा की एक मूर्ति लगी है। सामने एक शिलापट्ट जिसमें डोमबारी बुरू की घटना का जिक्र करते हुए 6 लोगों के नाम दर्ज है। आज यहां मेला लगा है। रंग बिरंगी पोशाक पहने हुए ग्रामीणों की भीड़ उमड़ी है। घुमावदार मोड़ वाली पहाड़ी रास्तों से होते हुए हम पहाड़ी की चोटी तक पहुंचने की कोशिश में है। आगे खड़ी पहाड़ी है और हमें यह चढ़ाई पैदल ही चढ़नी होगी। सफेद चमकदार पत्थरों से बने इस शहीद स्मारक की चमक को सूरज की किरणों ने और भी चमकदार बना दिया है। हर और अटूट शांति और हरे भरे पेड़। हम उपर बने स्मारक स्थल पर पहुंच चुके हैं। यह वहीं स्थान है जहां देश की आजादी के आंदोलन में सैकड़ों लोगों ने अपनी कुर्बानी दे आजादी के आंदोलन का एक नया अध्याय रचा था।
और खून से लाल हो गई थी पहाड़ी
झारखंड के इसी स्थान पर जालियांबाला बाग जैसी घटना घटी थी वह भी जालियांबाला बाग की घटना से 20 वर्ष पूर्व। आज से 122 साल पहले 9 जनवरी 1899 को अंग्रेजों ने डोंबारी बुरु में निर्दोष लोगों को चारों तरफ से घेर कर गोलियों से भून मार डाला था। हमारा मन स्मारक को निहारते हुए शहीदों को नमन करते हुए आजादी के इतिहास के पन्ने उलट रहा है। वह आज का ही दिन था। ठंड की ठिठुरन भी ऐसी ही रही होगी। आबादी से इतनी दूर डोंबारी बुरु की इस ऊंची चोटी पर भगवान बिरसा मुंडा सभा कर रहे थे। सभा में आस-पास के दर्जनों गांव के सैकड़ों लोग शामिल थे। उद्देश्य था अंग्रेजी सल्तनत के दांत खट्टे करने की योजना बनाना। सभा में महिलाएं और बच्चे भी थे। किसी तरह अंग्रेजों को बिरसा की इस सभा की खबर लग गई। हथियारों से लैस अंग्रेज सैनिक वहां आ धमके। अंग्रेजी सैनिकों ने डोंबारी बुरू पहाड़ को चारों ओर से घेर लिया। और बिना किसी सूचना के यहां जमा लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दी। बिरसा मुंडा ने भी अपने समर्थकों के साथ पारंपरिक हथियारों से हौसले के दम पर अंग्रेजों का सामना किया। अंग्रेजी सैनिकों के पास आधुनिक हथियार थे। देखते ही देखते पहाड़ी लाल हो उठी। हर और लाशें ही लाशें। इस संघर्ष में सैकड़ों लोग शहीद हुए। हालांकि, बिरसा मुंडा अंग्रेजों को चकमा देकर वहां से निकलने में कामयाब हो गए।
सरकार से है इनकी शिकायत
यहां शहादत दिवस मनाने आए मंगल मुंडा न्यूज़ 24 से कहते हैं कि यह हमारा पवित्र स्थल है। यहां की चट्टानों पर पूर्वजों की वीरता के गुमनाम चिन्ह हैं। हम यहां हर साल श्रद्धांजलि देने आते हैं। वे कहते हैं कि इस स्थान को लेकर सरकार में कोई रूचि नहीं दिखती। आज झारखंड के लोग इस ऐतिहासिक स्थल को भूलते जा रहे। सरकार बस दिवस की खानापूर्ति कर निश्चिंत हो जाती है। यहां शहीद हुए सभी लोगों के नाम दर्ज नहीं है।
बदहाली की कगार पर 110 फुट ऊंचा स्तंभ
राज्यसभा के सदस्य और आदिवासी बुद्धिजीवी डॉ. रामदयाल मुंडा ने डोंबारी बुरु के इस स्तंभ का निर्माण कराया था। 110 फुट ऊंचा यह स्तंभ आज भी सैकड़ों शहीदों के वीरता के किस्से सुनाता है। साल 1986-87 में इस विशाल स्तंभ का निर्माण किया गया था। आज स्तंभ की सीढ़ी लगे पत्थर टूट रहे हैं। रेलिंग और फर्श का हाल भी कुछ ऐसा ही है। देश की आजादी का स्वर्णिम अध्याय लिखने वाली इस जगह को लेकर सरकारी उपेक्षा साफ नजर आती है। ऐसा लगता है कि सरकार बस शहीद दिवस की औपचारिकता निभाने तक में ही खुश हैं। यहां उपस्थित ग्रामीणों ने यह भी बताया कि यहां शहीद हुए लोगों के वंशजों को आज तक अलग से किसी तरह की सरकारी सहायता नहीं मिली है।