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भारत एक सोच

कैसा भारत बनाना चाहते थे भगत सिंह, खुद को नास्तिक क्यों कहते थे शहीद-ए-आजम?

23 मार्च 1931 के दिन भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव जैसे क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया गया। आइए जानते हैं कि ‘शहीद-ए-आजम’ भगत सिंह से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें।

Author Edited By : Anurradha Prasad Updated: Mar 23, 2025 08:54
Bharat Ek Soch

Bharat Ek Soch : हर क्षण अनगिनत लोग धरती पर पैदा होते हैं। अपना किरदार निभाते हैं और पंचतत्व में विलीन हो जाते हैं, लेकिन ऐसे बहुत कम हैं जो धरती पर पैदा होने से लेकर प्राण निकलने तक के क्षण को अमर कर देते हैं। ऐसी ही एक तारीख है- 23 मार्च, 1931… इसी दिन भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव जैसे क्रांतिकारियों को लाहौर सेंट्रल जेल से तय समय से एक दिन पहले ही फांसी पर लटका दिया गया। दरअसल, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत में हमारे देश की परंपरा, संघर्ष और बिना क्रेडिट मातृभूमि की सेवा का फलसफा है। समाज में शांति और सबकी तरक्की का रास्ता है। एक ऐसे समाज के निर्माण की सोच रही है- जिसमें नफरत के लिए कोई जगह नहीं, जिसमें धर्म के नाम पर अंधभक्ति के लिए कोई जगह नहीं, जिसमें जात-पात के नाम पर बंटवारे के लिए कोई जगह नहीं, जो फांसी से ठीक पहले अपने वैचारिक प्रतिद्वंद्वी को धन्यवाद कहना नहीं भूलते।

ऐसे नायकों की शहादत और सोच को इतिहास के पन्नों से निकाल कर युवा पीढ़ी को रू-ब-रू कराना जरूरी है, जिससे भविष्य के भारत के लिए रोशनी लाई जा सके। शहीद भगत सिंह एक ऐसा नाम है- जिनकी 23 साल 176 दिन की जिंदगी, उनकी सोच और तौर-तरीकों को लेकर लोगों के बीच मंथन चलता रहता है। भगत सिंह की एक जेब में किताब और दूसरी जेब में पिस्तौल क्यों हुआ करती थी? भगत सिंह जानबूझ कर सांडर्स मर्डर टीम का हिस्सा क्यों बने? सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने के बाद नहीं भागना किस तरह की रणनीति का हिस्सा था? कोर्ट में भगत सिंह की जिरह ने किस तरह देश के दिग्गज वकीलों और स्वतंत्रता सेनानियों को नया रास्ता दिखाया? शहीद-ए-आजम किस तरह के भारत का सपना लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर लटक गए। उनके द्वारा जेल से लिखी गई चिट्ठियां उनकी शख्सियत, सोच और सरोकार के किस पक्ष से दुनिया का साक्षात्कार कराती हैं।

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भारत को समर्पित रहा भगत सिंह की जिंदगी का हर लम्हा

भगत सिंह खुद को नास्तिक बताते थे। वो नास्तिक क्यों हैं- इस मुद्दे पर उन्होंने जेल में रहते एक लेख लिखा था। जो 27 सितंबर, 1931 को लाहौर के एक अखबार द पीपल में प्रकाशित हुआ था। मतलब, उन्हें फांसी पर लटकाए जाने के करीब 6 महीने बाद। इसके पीछे उन्होंने जोरदार दलील दी है, लेकिन शहीद-ए-आजम भगत सिंह की जिंदगी का हर लम्हा और खून का हर कतरा भारत को समर्पित रहा। उनकी आस्था सिर्फ और सिर्फ भारत और यहां के लोगों में थी। जरा सोचिए… 23 साल की उम्र। जेल की एक तंग कोठरी में बंद नौजवान को कुछ घंटे बाद फांसी दी जानी हो, तब उसके जेहन में क्या चल रहा होगा या क्या चलना चाहिए?

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लाहौर सेंट्रल जेल में बंद थे भगत सिंह

लाहौर सेंट्रल जेल की कोठरी नंबर-14 में भगत सिंह बंद थे। फांसी से करीब दो घंटे पहले उनके वकील प्राणनाथ मेहता मिलने जेल पहुंचे। उन्हें देखते ही भगत सिंह ने पूछा किताब लाए हैं क्या? दरअसल, उन्होंने मेहता से रूस के महान क्रांतिकारी लेनिन की जीवनी मांगी थी- जैसे ही मेहता ने किताब आगे बढ़ाया, भगत सिंह तुरंत किताब के पन्नों में खो गए। बहुत आश्चर्य के साथ मेहता ने भरी आवाज में पूछा- क्या देश के लिए कोई संदेश देना चाहेंगे। बिना किताब से नजर हटाए भगत सिंह ने कहा- साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और इंकलाब जिंदाबाद। ऐसे में भगत सिंह के एक पत्र का जिक्र करना जरूरी है- जो उन्होंने फांसी से एक दिन पहले यानी 22 मार्च, 1931 को जेल से लिखा था।

मूल एफआईआर में नहीं था भगत सिंह का नाम

भारत भक्ति में भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ने के विकल्प को चुना। जिस ब्रिटिश अफसर सांडर्स हत्याकांड में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा हुई, उसकी मूल FIR में भगत सिंह का नाम नहीं था। लाहौर के अनारकली थाने में 17 दिसंबर, 1928 की शाम करीब साढ़े चार बजे उर्दू में FIR दर्ज की गई, जिसमें दो अज्ञात लोगों का जिक्र था। कहा जाता है कि भगत सिंह एक खास रणनीति के तहत सांडर्स की हत्या वाले प्लान का हिस्सा बने। इसी तरह दिल्ली असेंबली में बम फेंकने के बाद मौके से नहीं भागना भगत सिंह की रणनीति का बड़ा हिस्सा था। क्रांतिकारियों ने जेल जाकर अदालत में दमदार जिरह के जरिए भारत के आम आदमी को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जगाया। फांसी के फंदे पर हंसते-हंसते लटकते हुए आम आदमी के भीतर से ब्रिटिश पुलिस, जेल और मौत के भय से मुक्त करने में अहम किरदार निभाया।

फांसी के वक्त भी गुनगुना रहे थे ‘शहीद-ए-आजम’

भगत सिंह की परवरिश ऐसी हुई कि जेल में अपने साथियों से पत्र लिखकर किताब मांगते थे। अपने पिता को पत्र लिखकर कहते थे कि मेरी जिंदगी के लिए किसी तरह का समझौता नहीं होना चाहिए, फांसी से 20 दिन पहले अपने छोटे भाई को चिट्ठी लिखकर कहते हैं- तुम्हारी आंखों में आंसू देखकर दुख हुआ, हिम्मत से पढ़ाई करना। जब फांसी की घड़ी आई तो जिस तरह भगत सिंह गुनगुना रहे थे- दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़त… मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी। फांसी के फंदे के करीब खड़े भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के दमकते चेहरे को देखकर वहां मौजूद अंग्रेज अफसर सन्न थे, क्योंकि फांसी से पहले तीनों क्रांतिकारियों के चेहरे ढके नहीं गए थे।

भारत के सपने को लेकर आगे बढ़ रहे थे क्रांतिकारी

ऐसे में अंग्रेज अफसर के मन में उठ रहे तूफान को भगत सिंह समझ गए और उन्होंने बड़े सहज भाव से कहा– Well Mr. Magistrate… You are fortunate to be able today to see how Indian revolutionaries can embrace death with pleasure for the sake of their supreme ideal… मतलब, मजिस्ट्रेट साहब आप किस्मत वाले हैं कि आज आप अपनी आंखों से यह देखने का मौका पा रहे हैं कि भारत के क्रांतिकारी किस तरह हंसते हुए अपने सर्वोच्च आदर्श के लिए मृत्यु का आलिंगन कर सकते हैं। कुछ ऐसी ही थी भगत सिंह और उनके साथियों की सोच। अक्सर कहा जाता है कि महात्मा गांधी चाहते तो भगत सिंह की फांसी रुक सकती थी। इसे भी समय-समय पर अलग-अलग लेंस से देखने की कोशिश होती है। भले ही महात्मा गांधी और भगत सिंह का मकसद एक था- लेकिन, रास्ता अलग। ऐसे में ये समझना भी जरूरी है कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव किस तरह के भारत के सपने को लेकर आगे बढ़ रहे थे।

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शादमान चौक के नाम से जाना जाता है जेल कैंपस का फांसी घर

लाहौर की जिस सेंट्रल जेल में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई, उसे 1961 में गिराकर एक आवासीय कॉलोनी में बदल दिया गया। जेल कैंपस में जहां फांसी घर हुआ करता था-उस जगह को आज की तारीख में शादमान चौक के नाम से जाना जाता है। पाकिस्तान में सक्रिय भगत सिंह फाउंडेशन लंबे समय से शादमान चौक का नाम बदल कर भगत सिंह चौक करने की मांग कर रहा है। भगत सिंह रूसी क्रांति से प्रभावित थे और भगत सिंह से देश की आजादी की लड़ाई से जुड़े ज्यादातर बड़े नेता प्रभावित थे। इसमें सुभाष चंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव का नाम भी शामिल है। शहीद भगत सिंह की लोकप्रियता का ग्राफ हमेशा बहुत चमकदार रहा है तो उनकी स्वीकार्यता भी कमोबेश सभी विचारधाराओं में है। क्रांतिकारी भगत सिंह की सोच के केंद्र में पहले नंबर पर देश की आजादी, दूसरे नंबर पर सबकी तरक्की का रास्ता खोलना था। सांप्रदायिकता और नफरत के लिए उनके सपनों के भारत में कोई जगह नहीं थी। ऐसे में आज की तारीख में नेताओं और युवाओं दोनों के लिए भगत सिंह की जिंदगी से कई पैगाम निकल रहे हैं।

ऐसा भारत बनाना चाहते थे भगत सिंह

भगत सिंह भी एक ऐसा भारत बनाना चाहते थे, जिसमें जनता का राज हो, लेकिन उन्होंने शायद ही कभी ऐसे सिस्टम की कल्पना नहीं की होगी, जिसमें राजनीतिक दलों का सबसे बड़ा मकसद चुनाव जीतना और सत्ता में बने रहना हो जाए। शहीद-ए-आजम खुद को नास्तिक कहा कहते थे, क्योंकि वो धर्म की आड़ में अपनी कमजोरियों को छिपाने में यकीन नहीं करते थे। इन दिनों इतिहास को नए लेंस से देखने की परंपरा तेजी से आगे बढ़ी है, लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव जैसे क्रांतिकारी हमारे इतिहास को और समृद्ध बनाने वाले कोहिनूर हैं। हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि ये भगत सिंह की 96 साल पहले की सोच है- जो उन्होंने दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में बम के साथ फेंके गए पर्चे में कहा था- हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्ज्वल भविष्य में विश्वास रखते हैं- जिसमें प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण शांति और स्वतंत्रता का उपयोग करेगा। हम मानव रक्त बहाने के लिए अपनी विवशता पर दुखी हैं, परन्तु क्रांति के लिए मनुष्यों का बलिदान आवश्यक है।

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मतलब, भगत सिंह ने एक ऐसे भारत का सपना देखा, जिसमें व्यक्ति के जीवन की गरिमा सबसे ऊपर रही, जिसमें सबको तरक्की के लिए बराबर का मौका मिले, समाज में शांति हो और हर शख्स अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल कर सके। हिंसा और खून-खराबा के लिए कोई जगह नहीं थी। ऐसे में आज की राजनीति को कम से कम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव से त्याग की शिक्षा लेनी चाहिए, दूसरों को मिटाने वाली सोच की जगह इतिहास के नायकों के योगदान को कुबूल करते हुए आगे बढ़ाने वाली सोच के साथ आगे बढ़ना चाहिए।

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Edited By

Anurradha Prasad

First published on: Mar 23, 2025 06:56 AM

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