Kanwarlal Meena Mercy Petition: राजस्थान की राजनीति एक बार फिर ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहां न्यायिक व्यवस्था, संवैधानिक अधिकार और राजनीतिक नैतिकता तीनों आपस में उलझ गए हैं। पूर्व भाजपा विधायक कंवरलाल मीणा की दया याचिका को लेकर उठी बहस सिर्फ सजा माफी की कानूनी प्रक्रिया नहीं है, बल्कि राजनीतिक रणनीति और लोकतंत्र के मूल्यांकन का विषय बन गई है।
यह मामला इसलिए भी गर्माया हुआ है, क्योंकि राजभवन ने जेल में 3 साल की सजा काट रहे भाजपा के पूर्व विधायक कंवरलाल मीणा की दया याचिका मिलने के बाद एक महीने के अंदर ही झालावाड़ के पुलिस अधीक्षक से अभिमत मांग लिया। पुलिस अधीक्षक का एक पत्र भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है, जिसमें उन्होंने 24 घंटे के भीतर प्राथमिकता के आधार पर अपने संबंधित थानों को इस पर रिपोर्ट देने का निर्देश जारी कर दिया है, ताकि राजभवन को तत्काल अभिमत भेजा जा सके।
पुलिस अधीक्षक कार्यालय के इस पत्र और प्रक्रिया को लेकर राजनीति इसलिए भी गरमाई हुई है, क्योंकि कांग्रेस अच्छी तरह से जानती है कि केंद्र और राज्य में भाजपा की डबल इंजन की सरकार है।पुलिस भी सरकार के साथ खड़ी नजर आ सकती है। ऐसे में राजभवन का संभावित फैसला क्या होगा, इसका अंदेशा उसे भी है। शायद यही वजह है कि इसे लेकर वह अभी से सवाल उठाने लग गई है।
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पृष्ठभूमि: अपराध, सजा और सदस्यता रद्द
कंवरलाल मीणा को साल 2005 के एक पुराने मामले में 3 साल की सजा सुनाई गई। आरोप थे कि उन्होंने सरकारी काम में बाधा डाली। SDM पर हथियार ताना और संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। मामला 3 फरवरी 2005 का है। मामले में साल 2018 में निचली अदालत ने मीणा को 3 साल की सजा सुनाई थी। हाईकोर्ट ने भी उनकी सजा को बरकरार रखा है। सुप्रीम कोर्ट से भी राहत न मिलने पर उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया। केस में सजा होने के बाद विधानसभा अध्यक्ष ने 23 मई 2025 को जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत उनकी सदस्यता खत्म कर दी। इसके बाद कंवर लाल मीणा को कोर्ट में सरेंडर करना पड़ा। वर्तमान में वे जेल में सजा काट रहे हैं।
संवैधानिक वैधता बनाम नैतिकता की बहस
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल को सजा माफ करने या घटाने का अधिकार है। इस दायरे में दया याचिका पूरी तरह वैध है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इस प्रावधान का उपयोग जनप्रतिनिधियों के लिए विशेष छूट की तरह होना चाहिए? क्या एक आम नागरिक को भी इतनी शीघ्रता और संवेदनशीलता से यही राहत मिलती? मामला इसलिए भी सवालों के कठघरे है कि सुप्रीम कोर्ट से याचिका खारिज होने के तत्काल बाद ही कंवर लाल मीणा ने राजभवन को सजा रद्द करने या सजा काम करने के लिए दया याचिका भेज दी थी। आम दया याचिकाओं के विपरीत राजभवन ने भी एक महीने से कम वक्त में इस याचिका पर एक्शन लेना भी शुरू कर दिया।
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राजभवन की भूमिका पर सवाल
राजभवन ने मीणा की दया याचिका पर कार्रवाई करते हुए पुलिस अधीक्षक से रिपोर्ट मांगी है। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने आरोप लगाए है कि राज्यपाल भाजपा के दबाव में काम कर रहे हैं। टीकाराम जूली का बयान कि राजभवन संविधान का अपमान कर रहा है, इस बहस को और तीखा बना देता है। नेता प्रतिपक्ष टीकाराम जूली ने सोशल मीडिया पर लिखा है कि पिछले कुछ दिन से लोकतंत्र के रक्षक बनने का ढोंग कर रही भाजपा का असली चेहरा बेनकाब हो गया है। SDM पर गन तानने वाले सजायाफ्ता पूर्व भाजपा विधायक कंवर लाल मीणा की सजा राज्यपाल से कम या रद्द कराने का प्रयास किया जा रहा है। क्या किसी आम आदमी की सजा भी इसी प्रकार माफ की जाती है या विशेषाधिकार केवल भाजपा के लोगों के लिए है। अदालत से सजायाफ्ता भाजपा से बर्खास्त विधायक के लिए ऐसी प्रक्रिया शुरू करना लोकतंत्र की हत्या के समान है।
उपचुनाव से बचने की कोशिश?
अगर राज्यपाल दया याचिका स्वीकार करते हैं और सजा घटती है तो कंवर लाल मीणा की सदस्यता बहाल हो सकती है। इससे विधानसभा सीट पर उपचुनाव की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। ऐसे में विपक्ष का यह तर्क मजबूत होता है कि भाजपा इस संवैधानिक प्रावधान का उपयोग अपनी चुनावी गणना में कर रही है। बता दें कि अगर भारत निर्वाचन आयोग के उपचुनाव की तारीख की घोषणा से पहले राज्यपाल दया याचिका पर फैसला लेकर सजा कम कर देते हैं या सजा माफ कर देते हैं तो कंवरलाल मीणा को उनकी सदस्यता वापस मिल सकती है।
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लोकतंत्र की परीक्षा
कंवर लाल मीणा का मामला केवल विधायक रह चुके नेता की दया याचिका भर नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र की उस बुनियादी कसौटी की परीक्षा है, जहां कानून सभी के लिए समान होना चाहिए। यदि सत्ता पक्ष के नेता विशेष सुविधा पाते हैं तो यह जनता की न्याय व्यवस्था पर भरोसे को कमजोर करता है। वैसे भी देशभर में आपराधिक मामलों में कई विधायकों को सजा हो चुकी है और सजा होने के बाद राज्यपाल को दया याचिका देकर राहत मिलने का कोई मामला बीते कई दशकों में सामने नहीं आया है। ऐसे में सबकी नजर इस मुद्दे पर राजभवन द्वारा लिए जाने वाले फैसले पर टिक गई है।
भाजपा की चुप्पी रणनीति या पशोपेश?
भाजपा इस विवाद पर चुप है। न तो बचाव में उतर रही है, न ही विरोध कर रही है। न ही सफाई में कोई बयान दे रही है। यह ‘वेट एंड वॉच’ की रणनीति दिखती है, जहां कानूनी और राजनीतिक स्थिति को देखकर आगे की चाल तय की जाएगी।
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो राज्यपाल का निर्णय केवल एक व्यक्ति की सजा पर नहीं, बल्कि पूरी राजनीतिक और संवैधानिक प्रणाली की साख पर असर डालेगा। यह देखना दिलचस्प होगा कि न्याय और राजनीति की इस टकराहट में लोकतंत्र की जीत होती है या सत्ता की रणनीति हावी होती है।