Bihar Politics: बिहार में अक्टूबर नवंबर में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं। इससे पहले नेताओं के बयानों से सियासी सरगर्मियां बढ़ गई है। बिहार में चुनाव से पहले छोटे दल सियासी गुणा-भाग करने में लगे हैं ताकि हवा का रुख भांपकर ऐसे गठबंधन के साथ चला जाए जो सत्ता में भागीदारी दिला सके। चिराग पासवान के चाचा पशुपति पारस इन दिनों बीजेपी के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर लिए हैं। उनकी जनशक्ति पार्टी ने लोकसभा चुनाव 2024 लड़ा लेकिन उन्हें सभी सीटों पर हार मिली। अब उन्होंने ऐलान किया है कि वे जल्द ही बिहार में अपने गठबंधन को लेकर फैसला करेंगे।
लोकसभा चुनाव के बाद हुआ खेला
बिहार में रामविलास पासवान की मृत्यु के बाद एलजेपी दो धड़ों में बंट गई। एक गुट का नेतृत्व चिराग पासवान कर रहे हैं जो कि केंद्र सरकार में मंत्री हैं, जबकि दूसरे का नेतृत्व उनके चाचा चिराग पासवान कर रहे हैं। शुरुआत में चाचा-भतीजे के बीच पार्टी में नेतृत्व को लेकर संघर्ष हुआ। 2020 के चुनाव में एलजेपी की हार के बाद पार्टी दो धड़ों में बंट गई। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो इसका आरोप सीएम नीतीश कुमार पर लगा क्योंकि 2020 के चुनाव में जेडीयू अगर 43 सीटों पर सिमटी तो इसके पीछे चिराग ही थे। उन्होंने जेडीयू उम्मीदवारों के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतारे थे। इसके बाद जो हुआ वो सभी ने देखा। 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश और चिराग के बीच जो मनमुटाव था वह दूर हो गया। इसके बाद पशुपति पारस ने एलजेपी के सामने अपने उम्मीदवार उतारे लेकिन वे चुनाव हार गए।
पशुपति के निशाने पर 6 प्रतिशत पासवान वोटर्स
ऐसे में अब चुनाव से पहले पशुपति पारस की नजर पासवान वोटर्स पर हैं। पासवान वोटर्स एक समय में जेडीयू के वोट बेस का बड़ा हिस्सा था। बिहार की सोशल इंजीनियरिंग के अनुसार पासवान जाति महादलित वोटर्स की श्रेणी में आती है। बिहार में पासवान को मिला लें तो महादलितों की कुल आबादी 16 प्रतिशत है। जिसमें से 6 प्रतिशत पासवान मतदाता हैं। ये सभी वोटर्स एलजेपी के गठन के बाद से ही रामविलास के प्रति वफादार रहे हैं। नीतीश कुमार शुरुआत में पासवान जाति को महादलित का दर्जा देने के खिलाफ रहे हैं, हालांकि 2018 में रामविलास के कहने पर पासवान को महादलित का दर्जा दिया गया। अब जब रामविलास पासवान दिवंगत हो चुके हैं तो चाचा-भतीजे की लड़ाई का फायदा जेडीयू उठाना चाहती है। अगर ऐसा होता है तो एनडीए के साझेदार चिराग पासवान के लिए यह बड़ा झटका होगा। इसी लड़ाई में पशुपति पारस भी अपने लिए रास्ता तलाश रहे हैं।
बीजेपी ने किया अच्छा इस्तेमाल
पशुपति पारस के बीजेपी से अलग होकर चुनाव लड़ने के फैसले पर वरिष्ठ पत्रकार उमाकांत लखेड़ा ने कहा कि बिहार में चुनाव से पहले यह खेमेबंदी हो रही है। चिराग और पशुपति पारस बिहार में इस समय में दो बड़े दलित चेहरे हैं। रामविलास पासवान बड़े नेता थे उनकी विरासत यानी पासवान वोटर्स को लेकर दोनों नेताओं के बीच काफी समय से कशमकश चल रही है। बीजेपी ने पहले पशुपति पारस और अब चिराग पासवान का अच्छा इस्तेमाल किया है। इसमें कोई शंका नहीं है। शुरुआत में जब पार्टी दो धड़ों में बंटी तो बीजेपी को लगा कि पशुपति के पास 5 सांसद हैं तो उन्होंने पारस को केंद्र में मंत्री बनाया। लोकसभा चुनाव 2024 से पहले उन्होंने चिराग को अपने साथ लिया और आज वे केंद्र में मंत्री हैं।
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पशुपति पारस का स्वयं का कोई जनाधार नहीं
बिहार की राजनीति में फिलहाल पशुपति पारस अप्रासंगिक हो गए हैं। उनका इतना बड़ा नाम नहीं है। हां उनमें एक विशेष गुण है कि वे विनम्र हैं। ऐसे में अब जब उन्होंने संबंध विच्छेद कर लिए हैं तो जो गठबंधन बीजेपी के खिलाफ होगा वे उसके खिलाफ जाएंगे। आज की तारीख में उनका स्वयं का कोई जनाधार नहीं है। उनकी यह स्थिति नहीं है कि वे अपने चेहरों को महागठबंधन के साथ जाकर चुनाव जीता पाए। यह उनके लिए बड़ा चैलेंज है। चुनाव से पहले महागठबंधन को भी दलित चेहरा चाहिए। यह सवाल पूछने पर कि सीटों के बंटवारे पर कैसे सहमति बनेगी इस पर वरिष्ठ पत्रकार उमाकांत लखेड़ा ने कहा कि कोई भी दल जब किसी गठबंधन का हिस्सा बनता है तो यह पूर्व सहमति होती है कि वह इतनी सीटों पर चुनाव लड़ेगा। ऐसे में सीट बंटवारे पर कोई पेंच नहीं फंसेगा।
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