Hindu Mythology: भारतीय रक्षा अनुसंधान संगठन यानी DRDO द्वारा विकसित मल्टी-बैरल रॉकेट लॉन्चर ‘पिनाक’ का नाम भारतीय पौराणिक कथाओं में वर्णित ‘पिनाक धनुष’ से लिया गया है. हिन्दू धर्मग्रंथों में ‘पिनाक’ को ‘शिव धनुष’ कहा गया है. यह भगवान शिव का प्रमुख अस्त्र था, जो सृष्टि के विनाशक और रक्षक दोनों रूपों में उनकी शक्ति का प्रतीक था.
आपको बता दें, इसी धनुष ने त्रेता युग में भगवान राम और माता सीता के विवाह का मार्ग प्रशस्त किया था. इसीलिए ‘पिनाक’ सिर्फ एक हथियार नहीं, बल्कि दिव्य शक्ति और कालजयी कथा का प्रतीक माना जाता है. आइए विस्तार से जानते हैं इस शक्तिशाली धनुष की उत्पत्ति, उपयोग और पौराणिक कथा.
धनुष का निर्माणकर्ता थे विश्वकर्मा
पुराणों के अनुसार, पिनाक धनुष का निर्माण देवताओं के शिल्पकार भगवान विश्वकर्मा ने किया था. विश्वकर्मा को दिव्य वास्तुशिल्प और अद्भुत कारीगरी का स्वामी कहा गया है. कहा जाता है कि एक बार देवताओं में श्रेष्ठता को लेकर विवाद हुआ, तब विश्वकर्मा ने दो अत्यंत शक्तिशाली धनुष बनाए, पहला ‘पिनाक’ भगवान शिव के लिए और दूसरा ‘शारंग’ भगवान विष्णु के लिए. इस तरह पिनाक धनुष की रचना का श्रेय सीधे स्वर्ग के महान शिल्पकार विश्वकर्मा को जाता है.
पिनाक धनुष के उपयोगकर्ता
भगवान शिव: पिनाक धनुष के प्रथम और प्रमुख धारक स्वयं भगवान शिव थे. इसी कारण उन्हें ‘पिनाकपाणि’ यानी पिनाक को धारण करने वाला कहा गया है. वे इसका उपयोग धर्म की स्थापना और दुष्ट शक्तियों के विनाश के लिए करते थे.
परशुराम: भगवान विष्णु के अवतार परशुराम, भगवान शिव के परम भक्त थे. उनकी तपस्या और भक्ति से प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें कई दिव्य अस्त्र दिए, जिनमें पिनाक धनुष और दिव्य फरसा (परशु) शामिल थे.
राजा जनक के पूर्वज देवरथ: त्रिपुरासुर के वध के बाद भगवान शिव ने यह धनुष देवताओं को दे दिया. देवताओं ने इसे मिथिला के राजा जनक के पूर्वज राजा देवरथ को सौंपा. इसके बाद यह दिव्य अस्त्र जनक वंश में पीढ़ियों तक सुरक्षित रहा.
भगवान राम: त्रेतायुग में भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम ने यह दिव्य धनुष उठाने का असंभव कार्य किया. उन्होंने सीता स्वयंवर में इसे उठाकर तोड़ दिया, जिससे राम और सीता का पवित्र मिलन हुआ. इस तरह पिनाक धनुष भगवान राम के जीवन की एक ऐतिहासिक घटना का साक्षी बना.
जब भगवान शिव बने ‘त्रिपुरांतक’
पिनाक धनुष का सबसे प्रसिद्ध उपयोग उस समय हुआ जब भगवान शिव ने तीन दानव भाइयों, तारकाक्ष, विद्युन्माली और कमलाक्ष, का संहार किया. ये तीनों ‘त्रिपुरासुर’ कहलाते थे. इनका वध करने के बाद शिव ‘त्रिपुरारि’ और ‘त्रिपुरांतक’ नाम से प्रसिद्ध हुए.
त्रिपुरासुर और त्रिशंकु की कथा
तीनों असुर भाइयों ने घोर तपस्या कर ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया था. इस वरदान के अनुसार, उन्होंने आकाश में तीन अद्भुत उड़ने वाले शहर बनाए, जो ‘त्रिपुर’ के नाम से जाना जाता था. ये तीनों शहर अभेद्य थे और हमेशा हवा में लटके हुए गतिशील रहते थे, इसलिए इन्हें ‘त्रिशंकु’ भी कहा गया.
ब्रह्मा के वरदान के अनुसार, इस नगर के अंत की केवल एक असंभव शर्त यह थी कि इन तीनों शहरों को केवल एक ही बाण से नष्ट किया जा सकता है, वह भी तब जब ये तीनों एक सीधी रेखा में आ जाएं, जो हजारों वर्षों में सिर्फ एक बार होता था. इससे त्रिपुरासुर अजेय बन गए. तीनों लोकों में आतंक फैलाने लगे और हाहाकार मचा दिया.
देवधिदेव शिव का ब्रह्मांडीय युद्ध
जब देवताओं ने शिव से सहायता की प्रार्थना की, तब भगवान शिव ने त्रिपुरासुर के विनाश का संकल्प लिया. इसके लिए विश्वकर्मा ने एक विशाल दिव्य रथ तैयार किया. इसमें रथ का शरीर पृथ्वी से बनाया गया, पहिए सूर्य और चंद्रमा से बने थे, धनुष मेरु पर्वत से निर्मित था, धनुष की डोरी यानी प्रत्यंचा सर्पराज वासुकि थे और बाण स्वयं भगवान विष्णु बने थे.
जब तीनों शहर एक सीध में आए, तब भगवान शिव ने पिनाक धनुष से एक ही दिव्य बाण छोड़ा. उस एक तीर से तीनों नगर और वे तीनों दुष्ट दानव नष्ट हो गए. इस प्रकार भगवान शिव ने त्रिपुरों का संहार कर ब्रह्मांड में फिर से शांति और धर्म की स्थापना की.
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