राजेश बादल (स्तंभकार एवं डॉक्यूमेंट्री मेकर)
सरदार भगत सिंह। यह नाम लेते ही जेहन में एक चित्र उभरता है। वह नौजवान अंग्रेजी हैट लगाए हैं। पतली मूंछें हैं। दूसरा चित्र उभरता है जेल की कोठरी में चारपाई पर बैठे जूटा बांधे एक सिख युवक का। साथ ही ख्याल आता है कि उन्होंने आजादी पाने के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से अलग रास्ता अपनाया था। वे विलक्षण क्रांतिकारी थे और मादरे वतन के लिए हंसते हंसते फांसी के तख्ते पर झूल गए थे। अगर आप यही जानते हैं तो माफ कीजिए आप भगत सिंह को नहीं जानते। दरअसल, सरदार भगत सिंह के रूप में इस देश को एक ऐसा बेजोड़ पत्रकार और चिंतक मिला था, जो विचारों की आग से मुल्क को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कर देना चाहता था। इन विचारों के तेज से वे देश की देह में हरारत पैदा करते थे। हम और आपको वहां तक पहुंचने के लिए कई जन्म लेने पड़ेंगे, लेकिन भगत सिंह तो सिर्फ 23-24 साल की आयु में वह काम कर चुके थे। इसलिए शताब्दियों तक हिंदुस्तान भगत सिंह और उन जैसे अनगिनत क्रांतिकारियों का कर्जदार रहेगा।
भगत सिंह का शुरुआती जीवन
भगत सिंह के परिवार की कई पीढ़ियां अंग्रेजों से लड़ती आ रही थीं। दादा अर्जुन सिंह, पिता किशन सिंह, चाचा अजीत सिंह और चाचा स्वर्ण सिंह को देश के लिए मर मिटते भगत सिंह ने देखा था। चाचा स्वर्ण सिंह सिर्फ 23 साल की उम्र में जेल की यातनाओं का विरोध करते हुए शहीद हो गए थे। दूसरे चाचा अजीत सिंह को देश निकाला दिया गया था। दादा और पिता आए दिन आंदोलनों की अगुवाई करते जेल जाया करते थे। पिता गांधी और कांग्रेस के अनुयायी थे तो चाचा गरम दल की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे। घर में घंटों बहसें होती थीं। भगत सिंह के जेहन में विचारों की फसल पकती रही। इसीलिए 1921 में जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन छेड़ा तो भगत सिंह भी 10वीं की पढ़ाई छोड़ आंदोलन में कूद पड़े थे। जब आंदोलन वापस लिया गया तो सारे नौजवानों से पढ़ाई दोबारा शुरू करने के लिए कहा गया। तब इन नौजवानों के लिए लाला लाजपत राय ने नेशनल कॉलेज खोले। उनमें देशभक्त युवकों ने एडमिशन लिया था। जरा सोचिए! भगत सिंह 15-16 साल के थे और नेशनल कॉलेज लाहौर में पढ़ रहे थे आजादी कैसे मिले- इस पर अपने शिक्षकों और सहपाठियों से चर्चा किया करते थे। जितनी अच्छी हिन्दी और उर्दू, उससे बेहतर अंग्रेजी और पंजाबी।
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भाषा विवाद पर लिखा लेख
इसी कच्ची उमर में भगत सिंह ने पंजाब में उठे भाषा विवाद पर झकझोरने वाला लेख लिखा। लेख पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने पचास रुपये का इनाम दिया। भगत सिंह की शहादत के बाद 28 फरवरी, 1933 को हिंदी संदेश में यह लेख प्रकाशित हुआ था। लेख की भाषा और विचारों का प्रवाह अद्भुत है। एक हिस्सा यहां प्रस्तुत है- इस समय पंजाब में उर्दू का जोर है। अदालतों की भाषा भी यही है। यह सब ठीक है, परन्तु हमारे सामने इस समय मुख्य प्रश्न भारत को एक राष्ट्र बनाना है। एक राष्ट्र बनाने के लिए एक भाषा होना आवश्यक है, परन्तु यह एकदम नहीं हो सकता। उसके लिए कदम कदम चलना पड़ता है। यदि हम अभी भारत की एक भाषा नहीं बना सकते तो कम से कम लिपि तो एक बना देना चाहिए। उर्दू लिपि सर्वांग-संपूर्ण नहीं है। फिर सबसे बड़ी बात तो यह है कि उसका आधार फारसी पर है। उर्दू कवियों की उड़ान चाहे वो हिन्दी (भारतीय) ही क्यों न हों- ईरान के साकी और अरब के खजूरों तक जा पहुंचती है। काजी नजर- उल-इस्लाम की कविता में तो धूरजटी, विश्वामित्र और दुर्वासा की चर्चा बार बार है, लेकिन हमारे उर्दू, हिंदी, पंजाबी कवि उस ओर ध्यान तक न दे सके। क्या यह दुःख की बात नहीं? इसका मुख्य कारण भारतीयता और भारतीय साहित्य से उनकी अनभिज्ञता है। उनमें भारतीयता आ ही नहीं पाती तो फिर उनके रचे गए साहित्य से हम कहां तक भारतीय बन सकते हैं? तो उर्दू अपूर्ण है और जब हमारे सामने वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित सर्वांग-संपूर्ण हिंदी लिपि विद्यमान है, फिर उसे अपने अपनाने में हिचक क्यों? हिंदी के पक्षधर सज्जनों से हम कहेंगे कि हिन्दी भाषा ही अंत में एक दिन भारत की भाषा बनेगी, परन्तु पहले से ही उसका प्रचार करने से बहुत सुविधा होगी। 16-17 बरस के भगत सिंह की इस भाषा पर आप क्या टिप्पणी करेंगे?
कानपुर पहुंचे भगत सिंह
इतनी सरल और कमाल के संप्रेषण वाली भाषा भगत सिंह ने करीब सौ साल पहले लिखी थी। आज भी भाषा के पंडित और पत्रकारिता के पुरोधा इतनी आसान हिंदी नहीं लिख पाते और माफ कीजिए हमारे अपने घरों के बच्चे क्या 16-17 की उम्र में आज इतने परिपक्व हो पाते हैं? नर्सरी, केजी वन, केजी-टू के रास्ते पर चलकर इस उम्र में वे 10वीं या 11वीं में पढ़ते हैं और उनके ज्ञान का स्तर क्या होता है- बताने की जरूरत नहीं। इस उम्र तक भगत सिंह, विवेकानंद, गुरुनानक, दयानंद सरस्वती, रवींद्रनाथ ठाकुर और स्वामी रामतीर्थ जैसे अनेक भारतीय विद्वानों का एक-एक शब्द घोंटकर पी चुके थे। यही नहीं विदेशी लेखकों, दार्शनिकों और व्यवस्था बदलने वाले महापुरुषों में गैरीबाल्डी और मैजिनी, कार्ल मार्क्स, क्रोपाटकिन, बाकुनिन और डेनब्रीन तक भगत सिंह की आंखों के साथ अपना सफर तय कर चुके थे। घर के लोग शादी करना चाहते थे, इसलिए चुपचाप घर छोड़कर भगत सिंह उत्तर प्रदेश के कानपुर जा पहुंचे। महान देशभक्त पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी उन दिनों कानपुर से प्रताप का प्रकाशन करते थे। उन दिनों वे बलवंत सिंह के नाम से प्रताप के संपादकीय विभाग में काम करने लगे। उनके विचारोतेजक लेख प्रताप में छपते। उन्हें पढ़कर लोगों के दिलो दिमाग में क्रांति की चिनगारी फड़कने लगती। उन्हीं दिनों कलकत्ते से साप्ताहिक मतवाला निकलता था। मतवाला में लिखे उनके दो लेख बेहद चर्चित हुए। एक का शीर्षक था- विश्व प्रेम।
भगत सिंह का लेख
15 और 22 नवंबर 1924 को दो किस्तों में यह लेख प्रकाशित हुआ। इस लेख के एक हिस्से में देखिए भगत सिंह के विचारों की क्रांतिकारी अभिव्यक्ति, जब तक काला-गोरा, सभ्य -असभ्य, शासक-शासित, अमीर-गरीब, छूत-अछूत आदि शब्दों का प्रयोग होता है, तब तक कहां विश्व बंधुत्व और कहां विश्व प्रेम? यह उपदेश स्वतंत्र जातियां दे सकती हैं। भारत जैसा गुलाम देश तो इसका नाम भी नहीं ले सकता। फिर उसका प्रचार कैसे होगा? तुम्हें शक्ति एकत्र करनी होगी। शक्ति एकत्रित करने के लिए अपनी एकत्रित शक्ति खर्च कर देनी पड़ेगी। राणा प्रताप की तरह जिंदगी भर दर-दर ठोकरें खानी होंगी, तब कहीं जाकर उस परीक्षा में उतीर्ण हो सकोगे, तुम विश्व प्रेम का दम भरते हो। पहले पैरों पर खड़े होना सीखो। स्वतंत्र जातियों में अभिमान के साथ सिर ऊंचा करके खड़े होने के योग्य बनो। जब तक तुम्हारे साथ कामागाटा मारु जहाज जैसे दुर्व्यवहार होते रहेंगे, तब तक डैम काला मैन कहलाओगे, जब तक देश में जालियांवाला बाग जैसे भीषण कांड होंगे, जब तक वीरागंनाओं का अपमान होगा और तुम्हारी ओर से कोई प्रतिकार न होगा, तब तक तुम्हारा यह ढ़ोंग कुछ मान नहीं रखता। कैसी शान्ति , कैसा सुख और कैसा विश्व प्रेम? यदि वास्तव में चाहते हो तो पहले अपमानों का प्रतिकार करना सीखो। मां को आजाद कराने के लिए कट मरो। बंदी मां को आजाद कराने के लिए आजन्म काले पानी में ठोंकरे खाने को तैयार हो जाओ। मरने को तत्पर हो जाओ।
भगत सिंह का दूसरा लेख
मतवाला में ही भगत सिंह का दूसरा लेख 16 मई, 1925 को बलवंत सिंह के नाम से छपा। ध्यान दिलाने की जरूरत नहीं कि उन दिनों अनेक क्रांतिकारी छद्म नामों से लिखा करते थे। युवक शीर्षक से लिखे इस लेख के एक हिस्से में भगत सिंह कहते हैं- अगर रक्त की भेंट चाहिए तो सिवा युवक के कौन देगा? अगर तुम बलिदान चाहते हो तो तुम्हें युवक की ओर देखना होगा। प्रत्येक जाति के भाग्य विधाता युवक ही होते हैं, सच्चा देशभक्त युवक बिना झिझक मौत का आलिंगन करता है, संगीनों के सामने छाती खोलकर डट जाता है, तोप के मुंह पर बैठकर मुस्कुराता है, बेड़ियों की झनकार पर राष्ट्रीय गान गाता है और फांसी के तख्ते पर हंसते हंसते चढ़ जाता है। अमेरिकी युवा पैट्रिक हेनरी ने कहा था कि जेल की दीवारों के बाहर जिंदगी बड़ी महंगी है। पर, जेल की काल कोठरियों की जिंदगी और भी महंगी है क्योंकि वहां यह स्वतंत्रता संग्राम के मू्ल्य रूप में चुकाई जाती है। ऐ, भारतीय युवक! तू क्यों गफलत की नींद में पड़ा बेखबर सो रहा है। उठो! अब अधिक मत सो, सोना हो तो अनंत निद्रा की गोद में जाकर सो जाओ, धिक्कार है तेरी निर्जीवता पर। तेरे पूर्वज भी नतमस्तक हैं इस नपुंसत्व पर। यदि अब भी तेरे किसी अंग में कुछ हया बाकी हो तो उठकर माता के दूध की लाज रख, उसके उद्धार का बीड़ा उठा, उसके आंसुओं की एक एक बूंद की सौगंध ले, उसका बेड़ा पार कर और मुक्त कंठ से बोल- वंदे मातरम।
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रिपोर्टिंग के लिए दिल्ली गए
प्रताप में भगत सिंह की पत्रकारिता को पर लगे। बलवंत सिंह के नाम से छपे इन लेखों ने धूम मचा दी। शुरुआत में तो स्वयं गणेश शंकर विद्यार्थी को पता नहीं था कि असल में बलवंत सिंह कौन है? और एक दिन जब पता चला तो भगत सिंह को उन्होंने गले से लगा लिया। भगत सिंह अब प्रताप के संपादकीय विभाग में काम करते रहे। इन्हीं दिनों दिल्ली में तनाव बढ़ा। दंगे भड़क उठे। विद्यार्थी ने भगत सिंह को रिपोर्टिंग के लिए दिल्ली भेजा। विद्यार्थी दंगों की निष्पक्ष रिपोर्टिंग चाहते थे। भगत सिंह उनकी उम्मीदों पर खरे उतरे। प्रताप में काम करते हुए उन्होंने महान क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल की आत्मकथा बंदी जीवन का पंजाबी में अनुवाद किया। इस अनुवाद ने पंजाब में देश भक्ति की एक नई लहर पैदा की। इसके बाद आयरिश क्रांतिकारी डेन ब्रीन की आत्मकथा का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया। यह अनुवाद आयरिश स्वतंत्रता संग्राम शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इस अनुवाद ने भी देश में चल रहे आजादी के आंदोलन को एक वैचारिक मोड़ दिया। गणेश शंकर विद्यार्थी के लाड़ले थे भगत सिंह। उनका लिखा एक एक शब्द विद्यार्थी को गर्व से भर देता। ऐसे ही किसी भावुक पल में विद्यार्थी ने भगत सिंह को भारत में क्रांतिकारियों के सिरमौर चंद्रशेखर आजाद से मिलाया।आजादी के दीवाने दो आतिशी क्रांतिकारियों का यह अद्भुत मिलन था।
शादीपुर का सफर
भगत सिंह अब क्रांतिकारी गतिविधियों में भरपूर भाग लेने लगे। साथ में पूर्णकालिक पत्रकारिता भी चल रही थी। जब गतिविधियां बढ़ीं तो पुलिस को भी शंका हुई। खुफिया चौकसी और कड़ी कर दी गई। विद्यार्थी ने पुलिस से बचने के लिए भगत सिंह को अलीगढ़ जिले के शादीपुर गांव के स्कूल में हेडमास्टर बनाकर भेज दिया। पता नहीं शादीपुर के लोगों को आज इस तथ्य की जानकारी है या नहीं। भगत सिंह शादीपुर में थे तभी विद्यार्थी को उनकी असली पारिवारिक कहानी पता चली थी। दरअसल भगत सिंह के घर छोड़ने के बाद उनकी दादी की हालत बिगड़ गई थी। दादी को लगता था कि शादी के लिए उनकी जिंद के चलते ही भगत सिंह ने घर छोड़ा है। इसके लिए वो अपने को कुसूरवार मानती थीं। भगत सिंह का पता लगाने के लिए पिताजी ने अखबारों में इश्तेहार दिए थे। ये इश्तेहार विद्यार्थी ने भी देखे थे, लेकिन तब उन्हें पता नहीं था कि उनके यहां काम करने वाला बलवंत ही भगत सिंह है। बताते हैं कि इश्तेहार प्रताप में भी छपे थे। इनमें कहा गया था कि प्रिय, भगत सिंह अपने घर लौट आओ। तुम्हारी दादी बीमार हैं। अब तुम पर शादी के लिए कोई दबाव नहीं डालेगा। जब विद्यार्थी ने विज्ञापन देखा तो उनका माथा ठनका। विज्ञापन में भगत सिंह की फोटो भी छपी थी। चेहरा बलवंत सिंह से मिलता जुलता था। उन्हें लगा कि उनके यहां काम करने वाला ही असल में भगत सिंह था। इसी के बाद उन्होंने भगत सिंह के पिता को बुलाया।दोनों शादीपुर जा पहुंचे।
घर रवाना हुए भगत सिंह
विद्यार्थी ने भगत सिंह को मनाया कि वो अपने घर लौट जाएं। भगत सिंह विद्यार्थी का अनुरोध कैसे टालते। फौरन घर रवाना हो गए। दादी की सेवा की और कुछ समय बाद पत्रकारिता की पारी शुरू करने के लिए दिल्ली आ गए। दैनिक वीर अर्जुन में नौकरी शुरू कर दी। जल्द ही एक तेजतर्राक रिपोर्टर और आक्रामक लेखक के रूप में उनकी ख्याति दूर दूर तक फैल गई। इसके अलावा भगत सिंह पंजाबी पत्रिका किरती के लिए भी रिपोर्टिंग और लेखन कर रहे थे। किरती में वे विद्रोही के नाम से लिखते थे। दिल्ली से ही प्रकाशित पत्रिका महारथी में भी वो लगातार लिख रहे थे। विद्यार्थी से नियमित संपर्क बना हुआ था। इस कारण प्रताप में भी वो नियमित लेखन कर रहे थे। 15 मार्च 1926 को प्रताप में उनका झन्नाटेदार आलेख प्रकाशित हुआ। एक पंजाबी युवक के नाम से लिखे गए इस आलेख का शीर्षक था- भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का परिचय और उप शीर्षक था- होली के दिन रक्त के छींटे। इस आलेख की भाषा और भाव देखिए- असहयोग आंदोलन पूरे यौवन पर था। पंजाब किसी से पीछे नहीं रहा। पंजाब में सिख भी उठे। खूब जोरों के साथ। अकाली आंदोलन शुरू हुआ। बलिदानों की झड़ी लग गई।
काकोरी केस के सेनानियों को दी सलामी
काकोरी केस के सेनानियों को भगतसिंह ने सलामी देते हुए एक लेख लिखा । विद्रोही के नाम से। इसमें वो लिखते हैं- हम लोग आह भरकर समझ लेते हैं कि हमारा फर्ज पूरा हो गया। हमें आग नहीं लगती। हम तड़प नहीं उठते। हम इतने मुर्दा हो गए हैं। आज वे भूख हड़ताल कर रहे हैं। तड़प रहे हैं। हम चुपचाप तमाशा देख रहे हैं। ईश्वर उन्हें बल और शक्ति दे कि वे वीरता से अपने दिन पूरे करें और उन वीरों के बलिदान रंग लाएं। जनवरी 1928 में लिखा गया यह आलेख किरती में छपा था। इन दो तीन सालों में भगत सिंह ने लिखा और खूब लिखा। अपनी पत्रकारिता के जरिए वो लोगों के दिलों दिमाग पर छा गए।
कूका विद्रोह पर लिखा लेख
फरवरी 1928 में उन्होंने कूका विद्रोह पर दो हिस्सों में एक लेख लिखा। यह लेख उन्होंने बीएस संधु के नाम से लिखा था। इसमें भगत सिंह ने ब्यौरा दिया था कि किस तरह छियासठ कूका विद्रोहियों को तोप के मुंह से बांध कर उड़ा दिया गया था। इसके भाग दो में उनके लेख का शीर्षक था- युग पलटने वाला अग्निकुंड। इसमें वो लिखते हैं- सभी आंदोलनों का इतिहास बताता है कि आजादी के लिए लड़ने वालों का एक अलग ही वर्ग बन जाता है, जिनमें न दुनिया का मोह होता है और न पाखंडी साधुओं जैसा त्याग। जो सिपाही तो होते थे, लेकिन भाड़े के लिए लड़ने वाले नहीं, बल्कि अपने फर्ज के लिए निष्काम भाव से लड़ते मरते थे। सिख इतिहास यही कुछ था। मराठों का आंदोलन भी यही बताता है। राणा प्रताप के साथी राजपूत भी ऐसे ही योद्धा थे और बुंदेलखंड के वीर छत्रसाल और उनके साथी भी इसी मिट्टी और मन से बने थे। यह थी भगत सिंह की पढ़ाई। बिना संचार साधनों के देश के हर इलाके का इतिहास भगत सिंह को कहां से मिलता था- कौन जानता है?
भगत सिंह की धारावाहिक श्रृंखला
मार्च से अक्टूबर 1928 तक किरती में ही उन्होंने एक धारावाहिक श्रृंखला लिखी। शीर्षक था आजादी की भेंट शहादतें। इसमें भगत सिंह ने बलिदानी क्रांतिकारियों की गाथाएं लिखी थीं। इनमें एक लेख मदनलाल धींगरा पर भी था। इसमें भगत सिंह के शब्दों का कमाल देखिए, फांसी के तख्ते पर खड़े मदन से पूछा जाता है- कुछ कहना चाहते हो? उत्तर मिलता है- वन्दे मातरम! मां! भारत मां तुम्हें नमस्कार और वह वीर फांसी पर लटक गया।उसकी लाश जेल में ही दफना दी गई। हम हिन्दुस्तानियों को दाह क्रिया तक नहीं करने दी गई। धन्य था वो वीर। धन्य है उसकी याद। मुर्दा देश के इस अनमोल हीरे को बार बार प्रणाम।
भगत सिंह की पत्रकारिता का यह स्वर्णकाल था। उनके लेख और रिपोर्ताज हिन्दुस्तान भर में उनकी कलम का डंका बजा रहे थे। वो जेल भी गए तो वहां से उन्होंने लेखों की झड़ी लगा दी। लाहौर के साप्ताहिक वंदे मातरम में उनका एक लेख पंजाब का पहला उभार प्रकाशित हुआ। यह जेल में ही लिखा गया था। इसकी भाषा उर्दू थी। इसी तरह किरती में तीन लेखों की लेखमाला अराजकतावाद प्रकाशित हुई। इस लेखमाला ने व्यवस्था के नियंताओं के सोच पर हमला बोला।
भगत सिंह की कलम का चला जादू
1928 में तो भगत सिंह की कलम का जादू लोगों के सर चढ़ कर बोला। जरा उनके लेखों के शीर्षक देखिए- धर्म और हमारा स्वतंत्रता संग्राम, साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज, सत्याग्रह और हड़तालें, विद्यार्थी और राजनीति, मैं नास्तिक क्यों हूं, नए नेताओं के अलग-अलग विचार और अछूत का सवाल जैसे रिपोर्ताज आज भी प्रासंगिक हैं। इन दिनों दलितों की समस्याएं और धर्मांतरण के मुद्दे देश में गरमाए हुए हैं, लेकिन देखिए भगत सिंह ने लगभग सौ साल पहले इस मसले पर क्या लिखा था- जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया बीता समझोगे तो वो जरूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जाएंगे। उन धर्मों में उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे, उनसे इंसानों जैसा व्यवहार किया जाएगा फिर यह कहना कि देखो जी ईसाई और मुसलमान हिंदू कौम को नुकसान पहुंचा रहे हैं, व्यर्थ होगा।
कितनी सटीक टिप्पणी है? एकदम तिलमिला देती है। इसी तरह एक और टिप्पणी देखिए- जब अछूतों ने देखा कि उनकी वजह से इनमें फसाद हो रहे हैं। हर कोई उन्हें अपनी खुराक समझ रहा है तो वे अलग और संगठित ही क्यों न हो जाएं? हम मानते हैं कि उनके अपने जन प्रतिनिधि हों। वे अपने लिए अधिक अधिकार मांगें। उठो! अछूत भाइयो उठो! अपना इतिहास देखो। गुरु गोबिंद सिंह की असली ताकत तुम्ही थे। शिवाजी तुम्हारे भरोसे ही कुछ कर सके। तुम्हारी कुर्बानियां स्वर्ण अक्षरों में लिखी हुई हैं। संगठित हो जाओ। स्वयं कोशिश किए बिना कुछ भी नहीं मिलेगा। तुम दूसरों की खुराक न बनो। सोए हुए शेरो! उठो और बगावत खड़ी कर दो।
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असेम्बली में बम के साथ फेंका पर्चा
इस तरह लिखने का साहस भगत सिंह ही कर सकते थे। गोरी हुकूमत ने चांद के जिस ऐतिहासिक फांसी अंक पर पाबंदी लगाई थी, उसमें भी भगत सिंह ने छद्म नामों से अनेक आलेख लिखे थे। इस अंक को भारतीय पत्रकारिता की गीता मानी जाती है और अंत में उस पर्चे का जिक्र, जिसने गोरों की चूलें हिला दी थीं। 8 अप्रैल, 1929 को असेम्बली में बम के साथ जो पर्चा फेंका गया, वो भगतसिंह ने ही अपने हाथों से लिखा था- यह पर्चा कहता है- बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज की आवश्यकता होती है। जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियामेंट का पाखंड छोड़कर अपने अपने निर्वाचन क्षेत्रों में लौट जाएं और जनता को विदेशी दमन और शोषण के खिलाफ क्रांति के लिए तैयार करें। हम अपने विश्वास को दोहराना चाहते हैं कि व्यक्तियों की हत्या करना सरल है, लेकिन विचारों की हत्या नहीं की जा सकती।
(यह लेखक के निजी विचार हैं)