नई दिल्ली: जून 2020 में पंजाब के कुछ किसानों ने जब तीन कृषि सुधार अध्यादेशों का विरोध शुरू किया तो किसी को अंदाज़ा नहीं था कि प्रदर्शनकारी दिल्ली कूच कर जाएंगे। पांच महीने बाद जब हज़ारों की संख्या में किसान-प्रदर्शनाकारी दिल्ली पहुँचे तो किसी को अंदाज़ा नहीं था — ख़ुद उन किसानों को भी नहीं — कि वे कितने दिन तक देश की राजधानी-क्षेत्र की घेराबंदी करके रखेंगे। कारण कि खेती जीवनभर का उद्यम होकर भी नितांत मौसमी है।
किसान की अमीरी और ग़रीबी उनकी पिछली फ़सल की सेहत पर निर्भर करती है। इसलिए, कई लोग यही मान रहे थे कि किसान-प्रदर्शनकारी ज़्यादा-से-ज़्यादा रबी की कटाई से पहले तक दिल्ली घेरे रहेंगे। फिर इनकी घर वापसी हो जाएगी।
लेकिन किसान रबी ही नहीं, ख़रीफ़ भी पार गए। अगली रबी के बीच में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कृषि सुधार क़ानूनों की वापसी की घोषणा की तभी किसान घर वापसी की राह गए। यह कमाल की बात थी। किसान कोई एक जाति, समुदाय या धर्म से जुड़े नहीं होते। इसलिए इनका एक संगठन के लिए काम करना एक दूभर काम रहा है। खेती के हल में इतनी मजबूती नहीं दिखी है कि जातिगत, सामुदायिक या धार्मिक पहचान की गोंद खोद सके। इसलिए इन प्रदर्शनकारियों का किसी निर्णय पर सहमत होना कमाल की बात थी। वह भी एक साल तक।
किसान-प्रदर्शकारी, उनके नेता सहमत हो रहे थे। लेकिन वे एकमत नहीं थे। वे होमोजीनस या समरस नहीं थे। उनमें टकराव था, प्रतिस्पर्धा भी थी और ज़बरदस्त मतांतर भी था। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाकर कुमार मिश्र की नई क़िताब, किसान बनाम सरकार: आंदोलन की कहानियाँ, किसानों की ऐसी कहानियाँ बयां करती है। इसमें उन किसानों की कहानियाँ हैं जिन्होंने कड़कड़ाती ठंड और झुलसाती गर्मी से ही नहीं भिड़े बल्कि इस आंदोलन को लाल क़िला हिंसा, बंगाल से आई महिला के रेप या पंजाब से आए एक शख़्स को क्षत-विक्षत कर हाइजैक करने की कोशिश को भी मात दी।
प्रभाकर मिश्र की यह क़िताब हमें वह परिप्रेक्ष्य भी देती है, औपनिवेशिक काल तक हमें ले जाकर, जिसमें हम यह समझ पाते हैं कि आख़िर किसानों को ऐसा क्यों लगा कि यह संघर्ष सिर्फ़ उनकी फ़सल बचाने की नहीं है बल्कि उनकी नस्ल बचाने की लड़ाई है। यही परिप्रेक्ष्य हमें यह समझने में भी मदद करता है कि आख़िर प्रधानमंत्री मोदी इस बात से क्यों क्षुब्ध थे कि उनकी सरकार किसानों को यह समझाने में विफल रही कि कृषि सुधार क़ानून असल में किस उद्देश्य से लाए गए थे।
प्रत्येक आंदोलन का अपना एक समाजशास्त्र होता है। इस आंदोलन का भी अपना समाजशास्त्र था। इसमें धर्म और राजनीति का कॉकटेल शामिल था। इस कॉकटेल को समझने में यह पुस्तक मदद करती है। देश की मेन स्ट्रीम मीडिया आज विश्वसनीयता के संकट के दौर से गुजर रही है। किसान आंदोलन में शामिल किसान भी मीडिया के रवैये से बहुत असंतुष्ट थे। इस पुस्तक में मीडिया के मौजूदा स्वरुप का एक निष्पक्ष मूल्यांकन पेश करने की कोशिश की गई है।
आंदोलन की कहानियाँ वाले इस क़िताब में उन सभी क्यों और कैसे के जवाब हैं जो कोविड-19 महामारी के चरम काल में दिल्ली की सीमाओं पर हो रहे थे। निश्चित रूप से यह एक पठनीय दस्तावेज़ है।
प्रभाकर मिश्र की यह दूसरी पुस्तक है। अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर लिखी उनकी पहली पुस्तक ‘एक रुका हुआ फ़ैसला: अयोध्या विवाद के आख़िरी चालीस दिन’ उनकी पहली पुस्तक 2020 में प्रकाशित हुई थी जिसे पाठकों ने बहुत पसंद किया था।
किसान बनाम सरकार : आंदोलन की कहानियाँ
लेखक – प्रभाकर कुमार मिश्र
प्रकाशक : द फ्री पेन
कीमत : 250 रुपये
पेज की संख्या : 210
पुस्तक सभी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध है।