पूर्वी हिमालय के बादलों से घिरे पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में एक वास्तविक ‘जुरासिक पार्क’ आकार ले रहा है। लेकिन ये जुरासिक पार्क डायनासोर को पुनर्जीवित करने के लिए नहीं बल्कि विलुप्त होने की कगार पर खड़े जीवों को बचाने के लिए एक विकल्प बनेगा। यहां लाल पांडा और हिम तेंदुओं के बीच, विज्ञान अतीत की क्लोनिंग नहीं कर रहा है बल्कि वर्तमान को बचाने की कोशिश कर रहा है।
भारत का पहला ‘फ्रोजन जू’
दार्जिलिंग में पद्मजा नायडू हिमालयन जूलॉजिकल पार्क भारत का पहला ‘फ्रोजन जू’ है। यह एक जेनेटिक आर्क है जो हिमालयी वन्यजीवों के डीएनए को -196 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान पर तरल नाइट्रोजन से भरे स्टील टैंकों में सुरक्षित रखता है। यह चिड़ियाघर और हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्युलर बायोलॉजी (CCMB) के सहयोग से संभव हो रहा है। इस क्रायोजेनिक संरक्षण पहल का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अगर ही ये प्रजातियां जंगल में कम भी हो जाएं तो उनका जेनेटिक ब्लूप्रिंट सुरक्षित रहे।
‘यह डीएनए नमूनों को संरक्षित करने का एक प्रयास’
बंगाल के मुख्य वन्यजीव वार्डन देबल रॉय ने कहा, ‘यह डीएनए नमूनों को संरक्षित करने का एक प्रयास है’। उन्होंने आगे बताया कि हम जंगली जानवरों के टिशू सैंपल भी इकट्ठा करेंगे। यदि कोई जानवर प्राकृतिक रूप से या सड़क दुर्घटना जैसे अप्राकृतिक कारणों से मर जाता है तो हम उनके टिशू सैंपल लेकर इस केंद्र में संरक्षित करने का निर्णय लिया है।
भारत में सबसे ऊंचाई पर स्थित जूलॉजिकल पार्क
2,150 मीटर (7,050 फीट) की ऊंचाई पर 67.8 एकड़ में फैला, यह जू भारत में सबसे ऊंचाई पर स्थित जूलॉजिकल पार्क है। यह लाल पांडा, हिम तेंदुए और तिब्बती भेड़ियों के संरक्षण प्रजनन कार्यक्रमों में सबसे आगे है। इसने मारखोर (पेंचदार सींग वाली बकरी), मिश्मी ताकिन और हिमालयी काले भालू जैसी प्रजातियों के लिए भी संरक्षण कार्य किया है। पारंपरिक चिड़ियाघरों में जहां जानवरों को दर्शकों के लिए प्रदर्शित किया जाता है, वहीं इसके विपरीत यह चिड़ियाघर दोहरी भूमिका निभा रहा है। यह जीवित जानवरों को रखने के साथ-साथ उनकी जेनेटिक विरासत को भी संरक्षित करता है।
वैश्विक स्तर पर लोकप्रियता हासिल कर रहे फ्रोजेन जू
फ्रोजेन जू वैश्विक स्तर पर लोकप्रियता हासिल कर रहे हैं। ये विलुप्त जीवों को सुरक्षा के अंतिम विकल्प प्रदान करते हैं। दार्जिलिंग में बायो-बैंकिंग का काम पिछले साल जुलाई में शुरू हुआ था, जिसमें वैज्ञानिकों ने लाल पांडा, हिमालयी काले भालू, हिम तेंदुए और गोरल जैसे जानवरों से जेनेटिक सामग्री एकत्र की और उसे संरक्षित किया।
लंबी और जटिल प्रक्रिया
चिड़ियाघर के निदेशक बसवराज होलेयाची ने कहा कि अभी तक हमने बंदी जानवरों के साथ काम शुरू किया है। हमने चिड़ियाघर के अंदर एक डेडिकेटेड लैब विकसित की है जहां हम लुप्तप्राय प्रजातियों के गेमेट्स और डीएनए को संरक्षित करते हैं। उन्होंने कहा कि यह एक तरह से जीवों के लिए एक बीमा पॉलिसी की तरह है, ताकि भविष्य में अगर कोई प्रजाति विलुप्त होने के कगार पर आ जाए, तो उसके DNA का उपयोग करके उसे फिर से जीवित किया जा सके। यह एक लंबी और जटिल प्रक्रिया है लेकिन यह विलुप्त हो रहे जीवों को बचाने की खिलाफ लड़ाई में एक महत्वपूर्ण कदम है। उन्होंने बताया कि इस प्रक्रिया में संरक्षण के दो स्तर शामिल हैं। पहला जेनेटिक सैंपलिंग जिसके लिए -20 डिग्री सेल्सियस पर भंडारण की आवश्यकता होती है और दूसरा बायो-बैंकिंग, जहां टिशू को -196 डिग्री सेल्सियस पर तरल नाइट्रोजन में डुबोकर रखा जाता है। वैज्ञानिक सेल डैमेज को रोकने के लिए सैंपल तैयार करते हैं।
लैब को अंतरराष्ट्रीय मान्यता
चिड़ियाघर के एक अधिकारी ने कहा कि जब तक तरल नाइट्रोजन की निरंतर आपूर्ति होती रहती है, तब तक इन टिशू को अनिश्चित काल तक संरक्षित रखा जा सकता है। इस लैब को अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिली हुई है, हाल ही में वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ जू एंड एक्वेरियम ने इसे अपने लाल पांडा संरक्षण पहलों के लिए चुना है।