पहलगाम आतंकी हमले के बाद देश में मचे बवाल के बीच बुधवार (30 अप्रैल) को मोदी कैबिनेट ने अचानक एक बड़ा फैसला लिया। फैसला था देश में आगामी जनगणना के साथ जातिगत जनगणना कराने का। पीएम मोदी की अध्यक्षता में हुए सीसीपीए की बैठक में जातिगत जनगणना कराने पर फाइनल मुहर लगी। जातिगत जनगणना को लेकर लंबे वक्त से विपक्षी दल मांग कर रहे थे। केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने इसकी घोषणा करते हुए कहा कि यह कदम सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देगा। साथ ही नीति निर्माण में पारदर्शिता सुनिश्चित करेगा। सूत्रों के मुताबिक, आजादी के बाद भारत में पहली बार मुस्लिमों की भी जातिवार गणना की जाएगी। इससे पसमांदा मुसलमानों की सामाजिक आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति के ठोस आंकड़े सामने आएंगे। भाजपा लंबे समय से मुस्लिम समाज में जातीय पहचान को सामने लाने की मांग करती रही है। ऐसे में यह फैसला मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाने और पसमांदा मुस्लिमों को उचित प्रतिनिधित्व देने की दिशा में अहम माना जा रहा है।
पहली बार मुस्लिमों की जातिवार गणना की जाएगी
अभी तक जनगणना के साथ मुस्लिमों की गणना एक धार्मिक समूह के रूप में की जाती थी। जातिवार गणना के बाद मुस्लिम समाज में विभिन्न जातियों और उनके सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक स्थिति के ठोस आंकड़े सामने आएंगे। गौर करने वाली बात ये है कि जातिवार गणना कराने से मुस्लिम समाज में विभिन्न जातियों की सही संख्या पहली बार सामने आएगी। इसके राजनीतिक प्रभाव देखने को मिल सकते हैं। दरअसल, अभी तक जातिगत जनगणना की मांग ओबीसी वोट को ध्यान में रखकर होती रही है। बिहार में कराए गए जातिगत सर्वे के भी जो आकंड़े सामने आए थे, उसमें सबसे ज्यादा 63 फीसदी आबादी ईबीसी और ओबीसी की सामने आई थी।
पसमांदा मुसलमानों की सुधर सकती है हालत?
माना जाता है कि मुस्लिम समाज में 80 फीसदी से ज्यादा जनसंख्या पसमांदा मुसलमानों की है, जिनकी स्थिति काफी दयनीय है। यह मोटे तौर पर 1881 की जनगणना से मेल खाता है, जिसमें कहा गया था कि भारत में केवल 19 फीसदी मुसलमान उच्च जाति के थे, जबकि 81 फीसदी निचली जातियों से हैं। सामाजिक या राजनीतिक क्षेत्र में उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है, क्योंकि ठोस आंकड़े नहीं होने के कारण उनकी आवाज अनसुनी कर दी जाती है। देश के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड में भी एक भी पसमांदा मुसलमान सदस्य नहीं है। ऐसे में जातिवार जनगणना के आंकड़े सामने के बाद पसमांदा या अन्य जातियों के मुसलमान भी अपनी संख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व की मांग कर सकते हैं। भाजपा लंबे समय से जातिवार गणना में मुस्लिम जातियों को शामिल करने का मुद्दा उठाती रही है। जनगणना की प्रश्नावली में धर्म के साथ-साथ जाति का भी कॉलम होगा।
असम सरकार ने की थी पहल
पिछले साल असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने मुसलमानों की जातिवार गणना कराई थी। इसकी रिपोर्ट के आधार पर असम के मूल मुसलमानों को एसटी का दर्जा दिया गया। इसके अलावा मोदी सरकार ने वक्फ संशोधन कानून में भी पसमांदा मुसलमानों को खास अहमियत दी है। पिछले महीने लागू इस कानून में वक्फ बोर्डों में दो सदस्य पसमांदा मुसलमान के होने का प्रविधान किया गया है। इस समय देश में कुल 32 वक्फ बोर्ड हैं, जिनमें एक भी सदस्य पसमांदा मुसलमान नहीं है। पीएम मोदी भी पसमांदा मुस्लिमों का मुद्दा उठाते रहे हैं। पीएम मोदी कहते रहे हैं कि उनके ही धर्म के एक वर्ग ने पसमांदा मुसलमानों का इतना शोषण किया है, लेकिन देश में इसकी कभी चर्चा नहीं होती। उनकी आवाज सुनने को भी कोई तैयार नहीं है।
तीन वर्गों में बंटी हुई हैं मुस्लिम जातियां
मुस्लिम समुदाय की जातियां 3 प्रमुख वर्गों और सैकड़ों बिरादरियों में विभाजित हैं। उच्चवर्गीय मुसलमान को अशराफ कहा जाता है, जिसमें सैय्यद, शेख, तुर्क, मुगल, पठान, रांगड़, कायस्थ मुस्लिम, मुस्लिम राजपूत, त्यागी मुस्लिम आते हैं। मुसलमानों के पिछड़े वर्ग को पसमांदा मुस्लिम कहा जाता है। इसमें अंसारी, कुरैशी, मंसूरी, सलमानी, गुर्जर, गद्दी, घोसी, दर्जी, मनिहार, कुंजड़ा, तेली, सैफी, जैसी ओबीसी जातियां शामिल हैं। इसके बाद अतिपिछड़ा मुस्लिम हैं, जिनको अजलाल कहा जाता है, जिसमें धोबी, मेहतर, अब्बासी, भटियारा, नट, हलालखोर, मेहतर,भंगी, बक्खो, मोची, भाट, डफाली, पमरिया, नालबंद और मछुआरा शामिल हैं।
क्या है जातिगत जनगणना का इतिहास?
जातिगत जनगणा की शुरुआत अंग्रेजों के समय की गई थी। अंग्रेजो ने बेहतर तरीके से इसका इस्तेमाल किया था। 1881 से 1931 तक हर जनगणना में जाति जनगणना होती थी। लेकिन देश फिर देश आजाद हुआ और 1951 में तय किया गया कि जातिगत जनगणना नहीं करनी चाहिए। इसके बाद यूपीए की मनमोहन सरकार में 2011 में जातिगत जनगणना करवाई गई, लेकिन इसके आंकड़े जारी नहीं किए गए।