Bharat Ek Soch: पूरी दुनिया में एक अजीब सा खौफ है। असमंजस है, भविष्य को लेकर अनगिनत सवाल हैं। इसकी वजह है हमास और इजराइल के बीच जारी भीषण युद्ध। हफ्ते भर पहले फिलिस्तीन लड़ाकों के गुट हमास ने पूरी ताकत के साथ इजराइल पर प्रचंड प्रहार शुरू किया। अब इजराइल अपना इंतकाम ले रहा है। हमास के प्रभाव वाली गाजा पट्टी का नामो-निशान मिटाने पर तुला है, लेकिन बड़ा सवाल ये है कि आखिर इजरायल और हमास के बीच जंग की वजह क्या है? क्या ये जमीन की जंग है…क्या ये दो धर्मों का झगड़ा है…क्या ये सभ्यताओं का टकराव है? आखिर किसने किसकी जमीन पर कब्जा किया है?
यरुशलम की 35 एकड़ जमीन का दुनिया के तीन प्रभावशाली धर्मों से कनेक्शन कैसे जुड़ता है? पूरे अरब वर्ल्ड में किसने बोया कलह का बीज? औपनिवेशिक ताकतों ने किस तरह अपने फायदे के लिए अरब वर्ल्ड को आपस में बांट लिया? ऐसे सभी सवालों के जवाब सीमाओं के विस्तार, सभ्यताओं के विकास, धर्म के धागे से लोगों को जोड़ने की चाह और नए कारोबारी राह की तलाश में किस तरह दुनिया उलझती-सुलझती रही? कैसे एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए नए तरीके आजमाए गए…दूसरों के झगड़े में अपना फायदा देखने वाली सोच ने किस तरह धरती के एक बड़े हिस्से को खून से लाल रखा? ऐसे सभी सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे…
सबसे बड़ा ‘खलनायक’
करीब 27 साल पहले अमेरिका में एक किताब छपी- जिसके कवर पेज पर लिखा था The Clash of Civilizations and the Remaking of World Order…इस किताब में जो भविष्यवाणी की गई थी- उस पर पूरी दुनिया में बहस शुरू हो गई। सभ्यताओं के टकराव जैसे विचार को ज्यादातर राजनीतिक पंडित एक डरावना ख्याल बता रहे थे । दुनिया के सामने सभ्यताओं के टकराव जैसा Out of Box thought रखने वाले सैमुअल पी. हटिंगटन का कहना था कि आने वाले वक्त यानी 21वीं सदी में दुनिया में लड़ाइयों की एक बड़ी वजह सभ्यताओं और संस्कृतियों के बीच टकराव होगा…तनाव होगा।
20वीं सदी में ज्यादातर युद्ध साम्यवाद, फासीवाद, नाजीवाद, पूंजीवाद के नाम पर लड़े गए, लेकिन जरा 21वीं सदी में हुई जंग के बारे सोचिए … इराक युद्ध, अफगानिस्तान युद्ध, अजरबैजान-आर्मेनिया युद्ध, रूस-यूक्रेन युद्ध, इजराइल-फिलिस्तीन युद्ध की वजह क्या है? सीरिया के शहर क्यों कब्रिस्तान में तब्दील हुए…क्या ये सिर्फ जमीन पर कब्जे की लड़ाई है ? जवाब है- बिल्कुल नहीं। टकराव और लड़ाइयों की जड़ें बहुत गहरी हैं। इनकी जड़ें धर्म और उसके निकली धाराओं को आगे बढ़ाने की होड़ में भी छिपी हैं।
यहूदी धर्म का इतिहास करीब 3 हजार साल पुराना
यहूदी धर्म का इतिहास करीब 3 हजार साल पुराना माना जाता है। बाद में इसी परंपरा से ईसाई धर्म निकला…इस्लाम धर्म वजूद में आया। अरब की उथल-पुथल को समझने के लिए उस दौर में जाना होगा- जब दुनिया के नक्शे पर रोमन और पर्शियन साम्राज्य के बीच वर्चस्व की जंग जारी थी। दोनों साम्राज्यों के बीच करीब साढ़े सात सौ वर्षों तक वर्चस्व की जंग चली…एक पर्शियन गल्फ से लगता था और दूसरा लाल सागर से। उस दौर में दोनों रूट कारोबार के लिहाज से अहम थे…लेकिन, लड़ाई-झगड़ा की वजह से पर्शियन गल्फ का रूट बहुत प्रभावित होता था…ऐसे में लाल सागर से कारोबार बढ़ने लगा। तब आज के अरब वर्ल्ड में बड़े हिस्से में जनजातियां रहती थीं…जिनके लिए संघर्ष, लड़ना-मरना रोजमर्रा का हिस्सा था। सातवीं शताब्दी में हजरत मोहम्मद ने इस्लाम के झंडे तले जनजातियों को एकजुट किया…उन्होंने अपनी जिंदगी में कई जंग लड़ी। संभवत: उसी दौर में सबसे पहले धर्म की शक्ति और राजनीतिक शक्ति का मेल हुआ। इस्लाम की ऐसी मजबूत धारा चली… जिसमें हजरत मोहम्मद की वफात के सिर्फ 100 साल के भीतर ही इस्लाम अरब का धर्म बन गया।
तब दुनिया के नक्शे पर अमेरिका का नामो-निशान किसी को पता नहीं था। सोलहवीं वीं शताब्दी में इस्लाम की पताका दुनिया के बड़े हिस्से पर फहरा रही थी…ओटोमन साम्राज्य की सीमाओं का लगातार विस्तार हो रहा था…दुनिया मोटे तौर पर चार हिस्सों में बंटी थी। इस्लामिक, चाइजीन, ब्रिटिश और दूसरे छोटे-बड़े साम्राज्य। आटोमन साम्राज्य के विस्तार की रफ्तार ने उस दौर में यूरोपीय देशों के सामने करो या मरो वाली स्थिति पैदा कर दी…ऐसे में आज के तारीख में यूरोप के नक्शे में शामिल दिख रहे कई देशों ने नए कारोबारी रूट खोजने की कोशिशें शुरू की…इसी का नतीजा रहा कि क्रिस्टोफर कोलंबस निकला तो भारत के लिए लेकिन अमेरिका की खोज कर डाली।
पुर्तगाली नाविक वास्को-डि-गामा अपने जहाज के साथ केरल के कालीकट पहुंच गया। कारोबार और मोटा मुनाफा कमाने की ऐसी होड़ शुरू हुई। जिसमें यूरोपीय देश दिनों-दिन ताकतवर होते गए। इसी होड़ ने उपनिवेशवाद को जन्म दिया…ब्रिटेन, स्पेन, फ्रांस, पुर्तगाल ने दुनिया में अपने उपनिवेश बनाने शुरू कर दिए। ऐसे में इस्लामिक सत्ता को उपनिवेशवादी शक्तियों से कड़ी चुनौती मिलने लगी। इसे इतिहासकारों का एक वर्ग इस्लाम को इसाई धर्म से चुनौती के दौर पर भी देखता है। वहीं, धीरे-धीरे ओटोमन साम्राज्य की सीमाएं सिकुड़ती जा रही थीं और उसकी छवि The Sick Man of Europe की बन गई।
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20वीं शताब्दी की शुरुआत बड़ी हलचल के साथ हुई। यहूदी अपने लिए अलग मुल्क की मांग बहुत पहले से कर रहे थे…प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन और यहूदियों में एक समझौता हुआ, जिसे दुनिया बाल्फोर पैक्ट के नाम से जानती है। तय हुआ कि अगर ब्रिटेन युद्ध में ऑटोमन साम्राज्य को हरा देगा, तो फिलिस्तीन इलाके में यहूदियों के लिए अलग देश बनाया जाएगा। ऐसे में यहूदी फिलिस्तीन में जमीन खरीद कर तेजी से बसने लगे…लेकिन, बाद में ब्रिटेन अपने वादे से मुकर गया। युद्ध के बाद यूरोपीय देशों को अरब क्षेत्र में खुलकर खेलने का मौका मिल गया। भीतर खाने रूस को कॉन्स्टेंटिनोपल यानी इस्तांबुल और उसके आसपास का क्षेत्र देने पर सहमति बनी…जिससे रूस का भूमध्य सागर तक रास्ता साफ हो सके … फ्रांस ने सीरिया में आर्थिक निवेश के जरिए पकड़ मजबूत बनाने का दांव चला तो ब्रिटेन ने स्वेज नहर और फारस की खाड़ी के जरिए भारत तक अपनी पहुंच आसान बनाने का रास्ता चुना । अरब क्षेत्र को मोहरे की तरह इस्तेमाल करने और ब्रिटेन- फ्रांस जैसी औपनिवेशिक ताकतों की जरूरतों के पूरा करने के लिए साइक्स पिकोट पैक्ट की स्क्रिप्ट तैयार हुई।
महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार
सभ्यताओं के टकराव और धार्मिक मान्यताओं को आगे बढ़ाने की होड़ के बीच 20वीं शताब्दी की शुरुआत में एक बड़ा बदलाव दिखा…ऑटोमन सल्तनत आखिरी इस्लामिक खलीफा की सल्तनत थी जो पहले विश्व युद्ध में जर्मनी की ओर से लड़कर हारी थी। तुर्की नई राह पर था…जिसकी कमान बिल्कुल नई सोच के क्रांतिकारी युवा कमाल पाशा के हाथों में आई…जिसने साल 1926 में तुर्की से इस्लामिक शरीयत को हटाकर कानून का शासन लागू किया…महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार दिया गया…बुर्के पर रोक लगा दी गई…अरबी की जगह तुर्की वर्णमाला मुल्क में लागू कर दी गई। अरब वर्ल्ड के देशों की अहमियत को वहां की जमीन में दबे तेल ने कई गुना बढ़ा दी। इन देशों के पास कच्चा तेल तो था … लेकिन, उसे निकालने के लिए तकनीक नहीं थी। खपत के लिए बाजार नहीं था। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका एक बड़ी महाशक्ति के तौर पर उभरा और उसने अरब वर्ल्ड में अपने नफा -नुकसान के हिसाब से गोटियां चलना शुरू किया … कठपुतली सरकारों को बैठाने और विरोध करने वालों को सत्ता से बेदखल करने का खुला खेल शुरू हो गया। अरब देशों पर पश्चिम की छाप और तेल से आए डॉलर की चमक दोनों ही साफ-साफ महसूस की जाने लगी।
अमेरिका अरब वर्ल्ड में अपने नफा-नुकसान के हिसाब से किसी का पलड़ा भारी तो किसी का पलड़ा हल्का करने का खेल करता रहा, जिसकी कीमत इस्लामिक वर्ल्ड के कई देशों के लाखों लोगों ने अपनी जान देकर चुकाई है, लेकिन पहले विश्वयुद्ध के दौरान यहूदियों के लिए अलग देश का जो वादा अधूरा रह गया था… उसके लिए जमीन दूसरे विश्वयुद्ध ने तैयार कर दी। दरअसल, जर्मनी के तानाशाह अडोल्फ हिटलर ने पूरी प्लानिंग के साथ करीब 60 लाख यहूदियों का नरसंहार करवा दिया था…दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद पूरी दुनिया की हमदर्दी यहूदी समुदाय के साथ थी। ऐसे में साल 1948 में दुनिया के नक्शे पर इजराइल नाम के देश का जन्म हुआ…लेकिन, झगड़ा ज्यों का त्यों बना रहा। यरुशलम को लेकर संयुक्त राष्ट्र के जरिए जो रास्ता निकला गया-उसे मुस्लिम, ईसाई और यहूदी तीनों समुदाय अपने-अपने लेंस से देखते रहे हैं।
इजरायल की जंग का भविष्य में क्या नतीजा निकलेगा?
हमास और इजरायल की जंग का भविष्य में क्या नतीजा निकलेगा ? इसकी भविष्यवाणी करना बहुत मुश्किल है । पिछले करीब छह सौ दिनों से रूस और यूक्रेन भी जंग लड़ रहे हैं … इस युद्ध में बंदूक किसकी और कंधा किसका, ये बात किसी से छिपी नहीं है। हमास और इजरायल की आग में कौन घी डाल रहा है- ये भी धीरे-धीरे साफ हो जाएगा । इतिहास गवाह है कि शीत युद्ध की आड़ में पश्चिमी देशों ने किस तरह से अरब देशों में शक्ति संतुलन बदलने की कोशिश की…किस तरह कठपुतली तानाशाहों को सत्ता में बैठाया और जब उन्होंने ना-नुकूर की…तो उन्हें मिट्टी में मिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। चाहे वो इराक के सद्दाम हुसैन हों या लीबिया के कर्नल गद्दाफी या फिर मिस्र के होस्नी मुबारक। अमेरिका अपना मतलब पूरा होने पर किसी भी मुल्क से किस तरह धीरे से निकल जाता है- इसका ताजा उदाहरण अफगानिस्तान है, जहां अभी तालिबान की हुकूमत है।
ऐसे में सवाल उठता है कि इजराइल-फिलिस्तीन की जंग में अमेरिका के लिए किस तरह की संभावना है? इसका एक जवाब ये भी हो सकता है कि मुस्लिम वर्ल्ड का अमेरिका से लगातार मोहभंग होना। कभी अमेरिका के पीछे-पीछे चलने वाला सऊदी अरब अब चीन के करीब जा रहा है…ईरान और चाइना के बीच केमेस्ट्री बेहतर हुई है। सऊदी अरब और ईरान जैसे धुर विरोधियों ने आपस में हाथ मिला लिया है…यहां तक कि अफगानिस्तान की सत्ता में काबिज तालिबान और पाकिस्तान भी सीधे चाइना से डील कर रहे हैं। ऐसे में अमेरिका को लग रहा होगा कि कहीं अरब वर्ल्ड में उसकी जगह चाइना न बैठ जाए…संभवत: इजराइल-फिलिस्तीन के बीच जंग की धधकती आग में भी महाशक्तियां अपने लिए संभावनाओं का हिसाब-किताब बैठा रही होंगी…नए समीकरणों पर काम कर रही होंगी।