‘हम न केवल जंग हार गए हैं, बल्कि हमारी जीने की इच्छा भी खत्म हो गई है।’ ये शब्द उस अभागे मां-बाप के हैं, जिनकी बेटी के फांसी की सजा पाए तीन ‘गुनहगारों’ को सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया। दिल्ली में 2012 हुए निर्भया गैंगरेप मामले से कुछ दिन पहले दिल्ली के ही छावला में एक बेटी का गैंगरेप किया गया और फिर उसकी हत्या कर दी गयी।
जब 19 वर्षीय बेटी अपने दफ्तर से लौट रही थी, उसका अपहरण कर लिया गया। उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया गया। गैंगरेप के दौरान उसके शरीर की जलती सिगरेट से दागा गया, गाड़ी में रखे गए औजार से गहरे घाव किये गये, चेहरे पर तेजाब डाला गया, टूटे हुए बियर की बोतल उसके प्राइवेट… सॉरी बस इतना ही समझ लीजिए कि अमानवीयता की सारी हदें पार कर दी गयी थीं। पुलिस ने तीन लोगों रवि, राहुल और विनोद को गिरफ्तार किया।
दिल्ली पुलिस ने मामले को ‘रेयरस्ट ऑफ रेयर’ बताते हुए दोषियों के लिए फांसी की मांग की। दिल्ली की द्वारका कोर्ट ने 13 फरवरी 2014 को तीनों को फांसी की सज़ा सुनाई। हाईकोर्ट मामला हाई कोर्ट पहुंचा, हाई कोर्ट ने भी फांसी की सजा बरकरार रही थी। 26 अगस्त 2014 को दिल्ली हाईकोर्ट ने मौत की सजा की पुष्टि करते हुए कहा कि वे शिकारी थे जो सड़कों पर घूम रहे थे और शिकार की तलाश में थे।
लेकिन जब मामला सुप्रीम कोर्ट आया तो अदालत को पुलिस जांच में कमियां दिखीं। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि पुलिस ने ठीक से जांच नहीं की। जांच से कहीं साबित नहीं होता कि अपराध इन तीनों ने ही किया। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ललित, जस्टिस एस रवींद्र भट और जस्टिस बेला एम त्रिवेदी की बेंच ने पुलिस की जांच में कमी के चलते दोषियों को बेनिफिट ऑफ डाउट देते हुए रिहा कर दिया।
न्यायिक सिद्धांत में अक्सर यह कहा जाता है कि भले 100 गुनहगार छूट जाएं लेकिन किसी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। हमारे देश की अदालतें इस सिद्धांत पर पूरी तरह अमल करती हैं और करना भी चाहिए। यह अदालतों की जिम्मेदारी भी है कि किसी निर्दोष को सज़ा बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। लेकिन इस सिद्धांत में एक खामी है! ये खामी यह है कि 100 तो क्या, एक भी गुनहगार बचना क्यों चाहिए? पुलिस, जांच एजेंसी और अदालतों को सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई अपराधी सज़ा से नहीं बच पाए। क्योंकि सवाल न्याय का है।
देश का कानून हमें इस बात की इजाजत नहीं देता कि हम उस बेटी का नाम लिखें, इसलिए हम उसे छावला वाली बेटी के नाम से संबोधित करेंगे। छावला वाली बेटी और उसके मां-बाप को न्याय चाहिए और यह न्याय दिलाने की जिम्मेदारी भी अदालत की है।
उसी साल 2012 में इसी दिल्ली में निर्भया मामला हुआ। पूरा देश सड़कों पर था। आरोपियों को बिना ट्रायल तत्काल फांसी पर लटकाने की मांग हो रही थी। लॉ कमीशन को रेप क़ानून की कमियों को दूर करने के काम पर लगा दिया गया। क़ानून के क़िताब में बदलाव कर दिया गया। लेकिन छावला की बेटी के मामले को लेकर कोई आक्रोश नहीं, कोई शोर नहीं। देश की सबसे बड़ी अदालत को इस जघन्यतम अपराध के अपराधी को बेनिफिट ऑफ डाउट देने में कोई संकोच नहीं हुआ।
कोई यह नहीं कहेगा कि सुप्रीम कोर्ट किसी बेगुनाह को फांसी के फंदे पर लटका दे। लेकिन इस तरह के जघन्यतम अपराध में अदालत को एक कठोर संदेश देने की जरूरत थी, जिससे मीलॉड चूक गए। अगर निचली अदालत ने, जांच एजेंसी ने, जांच अधिकारी ने जांच में और फैसला सुनाने में गलती की तो सुप्रीम कोर्ट को अधिकार था कि वो जांच अधिकारी को जेल भेज दे। अपर्याप्त सबूत के आधार पर सजा सुनाने वाले निचली अदालत के जज को छुट्टी पर भेज दे। हाईकोर्ट के जज को उसकी गलती के लिए दंडित करे, आदि-आदि। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह जरूर कहा है कि ट्रॉयल कोर्ट चाहे तो दोबारा नए सबूत मंगा सकती है और विचार कर सकती है कि अपराधी कौन था? लेकिन अब 11 साल बाद सबूत कितने मिलेंगे और कहां से मिलेंगे?
सुप्रीम कोर्ट के पास मौका था एक सख्त संदेश देने का। इससे कम से कम भविष्य में इस तरह के मामलों की जांच करते समय जांच अधिकारी ठीक तरीके से से जांच करते। एक मनोवैज्ञानिक भय बना रहता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जस्टिस ललित और उनके सहयोगी जजों ने आरोपियों को तो बरी कर दिया लेकिन बाकी जिनकी गलती थी, उन्हें छोड़ दिया। आरोपियों के बरी होने से पीड़िता और उसके परिवार जनों को न्याय नहीं मिल रहा। उसके लिए मीलॉर्ड ने क्या किया?
यह सवाल है जो छावला की बेटी, उसके मां-बाप, उसके परिजन और देश की आवाम, देश की न्यायिक व्यवस्था से पूछ रही है। मीलॉर्ड्स आप से भी पूछ रही है।
लेखक News24 में सीनियर रिपोर्टर हैं, ये उनके निजी विचार हैं।
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