Scriptural Facts: हिंदू धर्म के सबसे प्राचीन ग्रंथ, वेदों में अश्वमेध और गौमेध का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद (10.86.14) में इंद्र को गौमेध का वर्णन है और यजुर्वेद में यज्ञों, जैसे अश्वमेध और गौमेध का विधान है। इन यज्ञों का उद्देश्य विश्व कल्याण, प्रकृति के साथ संतुलन, और देवताओं को प्रसन्न करना था। वैदिक काल में पशुबलि को एक धार्मिक और प्रतीकात्मक कार्य माना जाता था, जो कठोर नियमों और शुद्धता के साथ किया जाता था। यह हिंसा नहीं, बल्कि आध्यात्मिक कर्मकांड का हिस्सा थी।
हालांकि, कुछ विद्वान, जैसे डॉ. एस.पी. सभारथनम शिवाचार्यार, मानते हैं कि वैदिक बलि प्रतीकात्मक थी। उनके अनुसार, ऋग्वेद के कुछ पदों में बलि का मतलब अहंकार, लोभ, या नकारात्मक प्रवृत्तियों का त्याग है, न कि वास्तविक पशु की हत्या करना है। बृहदारण्यक उपनिषद में भी यज्ञों को आध्यात्मिक और प्रतीकात्मक बताया गया है, जिसमें पशुबलि की जगह मन और आत्मा की शुद्धि पर जोर दिया गया है।
शाक्त परंपरा में पशुबलि का है उल्लेख
शाक्त परंपरा, मां दुर्गा, काली और अन्य शक्ति रूपों की पूजा पर केंद्रित है। इसमें पशुबलि का विशेष महत्व रहा है। कालिका पुराण और देवी भागवत पुराण जैसे ग्रंथों में देवी को प्रसन्न करने के लिए पशुबलि का उल्लेख है। खासकर पूर्वी भारत जैसे पश्चिम बंगाल, असम, ओडिशा आदि प्रदेशों के साथ ही नेपाल जैसे देशों में काली, दुर्गा पूजा और नवरात्रि के दौरान बकरे, मुर्गे या भैंसे की बलि दी जाती रही है। कालिका पुराण में बलि (बकरे) और महाबलि (हाथी) का वर्णन है लेकिन मानव बलि को आधुनिक काल में प्रतीकात्मक मूर्ति के रूप में करने की सलाह दी गई है।
तंत्र शास्त्रों में पशुबलि को देवी के क्रोधी स्वरूप को शांत करने और भक्तों को भौतिक व आध्यात्मिक लाभ देने का साधन माना गया है। जैसे कोलकाता के कालीघाट मंदिर और नेपाल का गढ़ीमाई मंदिर इस प्रथा के लिए प्रसिद्ध हैं। द गार्जियन की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2009 में गढ़ीमाई त्योहार में लगभग 2.5 लाख पशुओं की बलि दी गई थी, जो इस प्रथा की व्यापकता को दर्शाता है। हालांकि तंत्र में यह भी कहा गया है कि सात्विक भक्तों को प्रतीकात्मक बलि जैसे फल, फूल, नींबू या नारियल अर्पित करनी चाहिए।
सात्विक भेंट स्वीकार करते हैं भगवान श्रीकृष्ण
वैदिक काल के बाद, उपनिषदों और पुराणों में अहिंसा का महत्व बढ़ा है। भागवत पुराण, पद्म पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण और आदित्य पुराण जैसे ग्रंथों में कलियुग में पशुबलि को वर्जित बताया गया है। भागवत पुराण के अनुसार स्रौत यज्ञों में पशुबलि अनुचित है। मनुस्मृति में भी स्पष्ट किया गया है कि यज्ञ के लिए बलि स्वीकार्य हो सकती है, लेकिन अनावश्यक हिंसा पाप है। पद्म पुराण में सभी जीवों के प्रति करुणा और सम्मान की बात कही गई है।
भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे पत्र, पुष्प, फल, या जल जैसी सात्विक भेंट को स्वीकार करते हैं। हालांकि इसे श्रद्धा और भक्ति से अर्पित किया गया हो। यह दर्शाता है कि भक्ति और प्रेम को बलि से अधिक महत्व दिया गया है।
कई महात्माओं और विद्वानों ने किया पशुबलि का विरोध
आधुनिक युग में पशुबलि को लेकर धार्मिक और सामाजिक बहस तेज हो गई है। स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, और अन्य संतों ने पशुबलि का विरोध किया था और अहिंसा को हिंदू धर्म का मूल सिद्धांत बताया था। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि सच्ची भक्ति मन और आत्मा की शुद्धि में है, न कि हिंसा में है। महात्मा गांधी ने भी पशुबलि को अनैतिक और धर्म के खिलाफ माना था।
भारत में कुछ क्षेत्रों, जैसे पश्चिम बंगाल, असम, और हिमाचल प्रदेश, में पशुबलि की प्रथा अब भी जारी है। हालांति पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 के तहत कई राज्यों में इसे प्रतिबंधित या हतोत्साहित किया जा रहा है। जैसे त्रिपुरा और तमिलनाडु जैसे राज्यों में मंदिरों में पशुबलि पर रोक है। इसके अलावा, सामाजिक जागरूकता और पशु अधिकार संगठनों के दबाव ने इस प्रथा को कम करने में मदद की है।
अब दी जाती है प्रतीकात्मक बलि
आधुनिक समय में कई विद्वान और धार्मिक गुरु प्रतीकात्मक बलि को बढ़ावा देते हैं। तंत्र और शाक्त परंपराओं में नारियल, कद्दू, या फूलों की बलि को स्वीकार्य माना जाने लगा है। यह प्रतीकात्मक बलि अहिंसा के सिद्धांत के अनुरूप है और हिंसा से बचाती है। कुछ विद्वानों का मानना है कि सच्ची बलि आंतरिक जैसे अहंकार, क्रोध, या लोभ का त्याग करना होनी चाहिए।
कुछ समुदाय मानते हैं परंपरा का हिस्सा
पशुबलि का प्रचलन भारत के कुछ क्षेत्रों और नेपाल में सांस्कृतिक रूप से गहरा जुड़ा हुआ है। यह प्रथा प्राचीन आदिवासी संस्कृतियों के हिंदू धर्म में समावेश से भी प्रभावित हुई। हालांकि शहरीकरण और शिक्षा के प्रसार के साथ, लोग अब इसे पुरातन और अनावश्यक मानने लगे हैं। दूसरी ओर, कुछ समुदाय इसे अपनी सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा मानते हैं और इसे छोड़ने को तैयार नहीं हैं।
शास्त्रों और उपनिषदों में भक्ति को प्राथमिकता
हिंदू शास्त्रों में पशुबलि को लेकर कोई एकरूपता नहीं है। वैदिक काल में यह प्रचलित थी, लेकिन उपनिषदों और पुराणों ने अहिंसा और भक्ति को प्राथमिकता दी है। शाक्त परंपरा में पशुबलि का विधान है, लेकिन कई ग्रंथ, जैसे भागवत पुराण, इसे कलियुग में वर्जित मानते हैं। भगवद्गीता और मनुस्मृति जैसे ग्रंथ सात्विक भेंट और आंतरिक शुद्धि को महत्व देते हैं।
आधुनिक समय में, नैतिकता, कानून, और सामाजिक जागरूकता ने पशुबलि को विवादास्पद बना दिया है। अधिकांश विद्वान और धार्मिक नेता प्रतीकात्मक बलि और अहिंसा को अपनाने की सलाह देते हैं। यह व्यक्तिगत और सामुदायिक विश्वास पर निर्भर करता है कि कोई इस प्रथा को सही माने या गलत। हालांकि शास्त्रों का मूल संदेश यही है कि सच्ची भक्ति श्रद्धा, प्रेम, और करुणा में निहित है, न कि हिंसा में है।
डिस्क्लेमर: यहां दी गई जानकारी धार्मिक शास्त्र की मान्यताओं पर आधारित है तथा केवल सूचना के लिए दी जा रही है। News24 इसकी पुष्टि नहीं करता है।
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