अभिषेक मेहरोत्रा
ग्रुप एडिटर डिजिटल, न्यूज24
Holi 2025: रंगों के त्योहार होली की सबसे खास बात यह है कि जैसे ही फेस्टिवल अपनी खुमारी पर आता है तो हर कोई अलग-अलग रंगों में रंगा नजर आता है। कलर्स की अच्छी बात यह है कि वे कास्ट, क्रीड और जेंडर में भेद नहीं करते, इसलिए होली की रंगत और बढ़ जाती है। यह फेस्टिवल कुछ देर के लिए अपनी पहचान भूलकर, अपना रुतबा किनारे रखकर सबके साथ मिलने-जुलने का नाम है। सालों से ऐसा बाकायदा होता आ रहा है, लेकिन पिछले कुछ समय में होली की रंगत को बदलने की कोशिशें भी हुई हैं। हालिया कुछ बयानों में इसकी झलक भी दिखाई देती है। शायद इसलिए अब होली से हुड़दंग अलग करने की ज़रूरत महसूस होने लगी है।
होलिका के दहन से हुई होली की शुरुआत
होली रंगों का त्योहार है, रंग चाहे गहरे हों या हल्के…देते सुकून ही हैं, फिर इसमें हुड़दंग का क्या काम? क्या किसी को ज़बरदस्ती रंग लगाकर इस फेस्टिवल के असली उद्देश्य को पूरा किया जा सकता है? ज़बरदस्ती केवल क्रोध, नफरत और कई मामलों में बदले जैसी भावनाओं को जन्म दे सकती है। इससे प्यार हासिल नहीं किया जा सकता, जबकि होली नफरत और दुश्मनी मिटाकर खुशियों बांटने का नाम है। होली की तो शुरुआत ही बुराई के विनाश के साथ हुई है। हिरण्यकश्यप के कहने पर होलिका अपने भतीजे प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर आग में प्रवेश कर गई, किंतु भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ।
लेकिन होलिका जल गई, तभी से बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में होलिका दहन होने लगा। खुशी में रंग-गुलाल लगाए जाने की शुरुआत हुई। इसलिए रंग खुशी में बिखेरे जाते हैं, अपनी खुशी में दूसरों को शामिल करने के लिए बिखरे जाते हैं, न कि उन्हें दुख पहुंचाने के लिए। हाल ही में दिए गए कुछ बयानों ने होली को न केवल एक वर्ग तक सीमित करने का प्रयास किया, बल्कि इस पावन दिन को अघोषित कर्फ्यू करार दे डाला। होली भले ही हिंदुओं का त्योहार है, लेकिन यह कभी भी धर्म के बंधन में नहीं बंधा। मुगलों से लेकर अमीर खुसरो, सूफी शाह नियाज अहमद बरेलवी और बाबा बुल्ले शाह तक सब होली के रंग रंगे।
सूफी संत बुल्ले शाह ने लिखा है…
होरी खेलूंगी कहकर बिस्मिल्लाह
नाम नबी की रतन चढ़ी बूंद पड़ी अल्लाह अल्लाह
रंग-रंगीली ओही खिलावे जो सखी होवे फना-फिल्लाह
होरी खेलूंगी कहकर बिस्मिल्लाह
अलस्तो-बे-रब्बेकुम पीतम बोले सब सखियां ने घूंघट खोले
क़ालू-बला ही यूं कर बोले ला-इलाहा इल-लल्लाह
होरी खेलूंगी कहकर बिस्मिल्लाह
नहनो-अक़रब की बंसी बजाई मन-अरफ-नफ्सह की कूक सुनाई
फसम्मा वज्हुल्लाह की धूम मचाई विच दरबार रसूलल्लाह
होरी खेलूंगी कहकर बिस्मिल्लाह
हाथ जोड़ कर पांव पड़ूंगी आजिज़ होकर बिंती करूंगी
झगड़ा कर भर झोली लूंगी नूर मोहम्मद सल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कहकर बिस्मिल्लाह
फजकुरूनी की होरी बनाऊं वश्कुरूली पिया को रिझाऊं
ऐसे पिया के मैं बल-बल जाऊं कैसा पिया सुब्हान-अल्लाह
होरी खेलूंगी कहकर बिस्मिल्लाह
सिब्ग़तुल्लाह की भर पिचकारी अल्लाहुस-समद पिया मुंह पर मारी
नूर नबी दा हक से जारी नूर मोहम्मद सल्लल्लाह
‘बुल्लिहा’ शौह दी धूम मची है ला-इलाहा इल-लल्लाह
होरी खेलूंगी कहकर बिस्मिल्लाह
होली को कहा जाता था ईद-ए-गुलाबी
अमीर खुसरो ने अपने आध्यात्मिक गुरु दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन औलिया के लिए लिखी पंक्तियों में होली के रंगों का विस्तार से जिक्र किया था। शाह नियाज अहमद बरेलवी ने होली पर कई गीत और कविताएं लिखी हैं। होरी होए रही है अहमद जियो के द्वार, हजरत अली का रंग बना है हसन हुसैन खिलार…जैसी उनकी कई रचनाएं होली को धर्म और जात-पात से परे करती हैं। बताया तो यहां तक जाता है कि शाहजहां के समय होली को ईद-ए-गुलाबी कहा जाता था तो फिर इस पावन त्योहार पर खास धर्म-समाज, उसके लोगों से नफरत क्यों?
रंग एकरूपता लाते हैं और होली इसी एकरूपता का नाम है। होली का रंग हर उस व्यक्ति पर चढ़ जाता है, जो इसे महसूस करना चाहता है। यह अहसास जिस्मानी और रूहानी दोनों होता है, लेकिन तभी जब ‘चाहत’ मौजूद हो। इसलिए होली को हुड़दंग नहीं, स्नेह और लगाव के साथ मनाया जाना चाहिए। होली की सार्थकता तभी है, जब गालों पर रंग में सहमति का भाव हो। यह रंग चेहरे पर खुशी की वजह बनें, नफरत या आंखों में आंसू का कारण नहीं। आइए इस होली पर, नफरत की हर कड़ी को तोड़कर मेल-मिलाप की उस परंपरा को आगे बढ़ाएं, जो रंगों के इस त्योहार की नींव रही है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)