Supreme Court SC ST Reservation Judgement: नेताओं का मूल चरित्र होता है- समाज की हर हलचल के बीच अपने लिए संभावना तलाशना। ये बहुत हद तक सही है कि चुनावी राजनीति में गणित से अधिक रसायन काम करता है। इसी हफ्ते देश की सबसे बड़ी अदालत ने एक ऐसा फैसला सुनाया- जिसका असर सामाजिक व्यवस्था और चुनावी राजनीति में दिखना तय है। सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति यानी SC और अनुसूचित जनजाति यानि ST में कोटे के भीतर कोटे को मंजूरी दे दी है। इससे राज्य सरकारों को SC/ST में सब-कैटिगराइजेशन की छूट मिल गई है। इस फैसले को सियासी पार्टियां अपनी वोट की जमीन के हिसाब से देख रही हैं।
किस सोच के साथ हुई आरक्षण की शुरुआत?
पिछले तीन दशक में हमारे देश की चुनावी व्यवस्था को दो बड़े मुद्दों ने सबसे अधिक प्रभावित किया है। एक है मंडल यानी आरक्षण और दूसरा है कमंडल यानी हिंदुत्व। अयोध्या में राम मंदिर बनने के बाद हिंदुत्व के मुद्दे ने अपना चोला बदलना शुरू कर दिया है। वहीं, मंडल में ओबीसी आरक्षण में कोटा के भीतर कोटा वाली व्यवस्था अब SC/ST की ओर बढ़ गई है। ऐसे में आज हम आपको बताने की कोशिश करेंगे कि SC/ST में सब-कैटिगराइजेशन से कैसे बदलेगा देश का सामाजिक और राजनीतिक माहौल? क्या SC/ST में क्रीमी लेयर सिस्टम सिस्टम लागू होगा? कैसे तय होगा कि SC/ST समुदाय में A आरक्षण का हकदार और B नहीं। क्या सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले से देश में जातीय जनगणना की मांग करने वालों को नया आधार मिला है? हमारे देश में किस सोच के साथ आरक्षण की शुरुआत हुई और उसका अंजाम किस रूप में सामने आया? संविधान सभा में हमारे पुरखों ने आरक्षण को किस तरह देखा? ऐसे ही सवालों के सवाल खोजने की कोशिश करेंगे- अपने खास कार्यक्रम आरक्षण का रसायन शास्त्र में।
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प्रयोगशाला में दो अलग-अलग रसायनों को एक ही स्थिति में बार-बार मिलाने पर नतीजा एक जैसा ही आएगा, लेकिन समाज एक ऐसी प्रयोगशाला है- जिसमें एक ही प्रयोग बार-बार दोहराने पर नतीजा अलग आता है। इसी हफ्ते आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 6:1 से SC/ST आरक्षण में सब-कैटगरी को ग्रीन सिग्नल दे दिया। इसका मतलब ये हुआ कि जिस तरह से ओबीसी आरक्षण में कई कैटेगरी है। क्रीमी लेयर है। उसी तरह अब SC/ST आरक्षण में भी राज्य सरकारों को सब-कैटगरी बनाने और आरक्षण तय करने की इजाजत मिल गई है। कोर्ट ने कहा कि कोटा में कोटा असमानता के खिलाफ नहीं है। ऐसे में सबसे पहले ये समझते हैं कि संविधान पीठ ने इस मामले को किस तरह देखा?
कई राज्यों में असर दिखना तय
अनुसूचित जाति में आरक्षण की स्थिति का सही आकलन करने के लिए राज्य सरकारों ने आयोग भी बनाए। मसलन, साल 1997 में आंध्र सरकार ने जस्टिस पी. रामचंद्र राजू आयोग का गठन किया- जिसने पाया कि SC कैटगरी में आरक्षण का फायदा सिर्फ कुछ जातियों को मिला है। यूपी में साल 2001 में बनी हुकूम सिंह समिति इस नतीजे पर पहुंची कि आरक्षण का लाभ समाज के सबसे पिछड़े वर्गों को नहीं मिला है। तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों में SC, ST और OBC में अलग-अलग सब-कैटगरी बनाकर रिजर्वेशन की व्यवस्था है। कर्नाटक में तो एससी कोटे से ही कोडवा और माडिगा को अलग-अलग आरक्षण मिलता है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का असर महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, बिहार समेत दक्षिण भारत के कई राज्यों में दिखना तय माना जा रहा है, लेकिन एक आशंका ये भी जताई जा रही है कि SC/ST में कोटा के भीतर कोटा सिस्टम आने से एक समुदाय के भीतर राजनीतिक बंटवारा के लिए जमीन तैयार होगी। राज्य स्तर की पार्टियां अपने सियासी नफा-नुकसान को देखते हुए सब-कैटगरी बनाती दिख सकती है। ऐसे में ये जानना भी जरूरी है कि देश के राजनीतिक दल कोटा को भीतर कोटा सिस्टम को किस तरह से देख रहे हैं?
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ओबीसी रिजर्वेशन में कोटा के भीतर कोटा सिस्टम पहले से चला आ रहा है। आरक्षण का फायदा अलग-अलग राज्यों में गिनती की कुछ जातियों के लोगों को मिला। मसलन, बिहार में यादव और कुर्मी, उत्तर प्रदेश में यादव और राजस्थान में मीणा समुदाय। इससे ओबीसी कैटगरी के भीतर आरक्षण को लेकर खींचतान बढ़ने लगी। जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी का नारा अगड़ा-पिछड़ा की जगह ओबीसी में ही कोटा के भीतर कोटा को लेकर होने लगा। दूसरा पहलू ये है कि आरक्षण का आधार सिर्फ जन्म न हो और आर्थिक रूप से संपन्न ओबीसी समुदाय के लोगों को आरक्षण का फायदा लेने से रोकने के लिए क्रीमी लेयर तय हुआ। 1993 में सालाना एक लाख रुपये से अधिक आमदनी वालों को क्रीमी लेयर माना गया। जो अब बढ़ते-बढ़ते आठ लाख रुपये सालाना हो चुका है। ऐसे में सवाल उठता है कि SC/ST में किस जाति के कितने लोग हैं और उनकी आर्थिक हैसियत क्या है। ये कैसे पता चलेगा? इसके लिए तो देश में जातीय जनगणना करनी पड़ेगी। जिसकी मांग राहुल गांधी समेत इंडिया गठबंधन के ज्यादातर दल कर रहे हैं।
राजनीति में कैसे हुई आरक्षण की एंट्री?
देश में आखिरी जातीय जनगणना अंग्रेजों के दौर में ही हुई थी। उसी आंकड़े के आधार पर सभी अपनी दावेदारी करते हैं। अपने समुदाय के लोगों की संख्या बढ़-चढ़कर बताते हैं। भारत में जाति की राजनीति कहां से और कैसे शुरू हुई, ये एक बहुत ही लंबी कहानी है, लेकिन भारतीय राजनीति में दमदार तरीके से आरक्षण की एंट्री कैसे हुई। इसका एक पन्ना आजादी की लड़ाई के बीच लिखा गया, जिसका बीजारोपण अंग्रेजों ने किया। Divide and Rule Policy के तहत अंग्रेजों ने 1909 में मुस्लिमों के लिए Separate Electoral Board का गठन किया।
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मतलब, केंद्रीय विधायिका और प्रांतीय विधायिकाओं मुस्लिमों के लिए सीटें रिजर्व करने की व्यवस्था। इसी तर्ज पर भारत की पिछड़ी जातियां भी अपने लिए आरक्षण की मांग करने लगीं। ऐसे में साल 1932 में अंग्रेजों ने एक ऐसी व्यवस्था शुरू की, जिसे कम्युनल अवॉर्ड के नाम से जाना जाता है। इससे दलितों को अलग निर्वाचन के साथ दो वोट का अधिकार मिला। इसमें दलितों ते एक वोट से अपना और दूसरे वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुनने का अधिकार मिला।
महात्मा गांधी दलितों को मिले भेदभाव पूर्ण अधिकारों का विरोध कर रहे थे। उनकी सोच थी कि इससे हिंदू समाज बंट जाएगा। देश की पिछड़ी जातियों के लिए Separate Electorate के मुद्दे पर महात्मा गांधी और बाबा साहेब के बीच टकराव लगातार बढ़ता जा रहा था। ऐसे में गांधी जी आमरण अनशन पर बैठ गए, जिसका नतीजा निकला Poona Pact इसे आरक्षण और पिछड़ी जातियों के इतिहास में एक टर्निंग प्वाइंट कहा जा सकता है, लेकिन आजादी के बाद संविधान सभा ने आरक्षण को किस तरह से देखा…ये जानना और समझना जरूरी है।
दस साल के लिए आरक्षण
संविधान सभा ने सरकारी शिक्षण संस्थानों, सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्रों की नौकरियों में SC के लिए 15 फीसदी और ST के लिए साढ़े सात फीसदी आरक्षण तय किया, वो भी दस वर्षों के लिए। दस साल बाद आरक्षण की समीक्षा होनी थी पर राजनीति ने कभी जाति के नाम पर भेदभाव खत्म करने की ईमानदार कोशिश नहीं की और आजाद भारत में जातियां सियासी बिसात पर गोटियों की तरह इस्तेमाल होने लगीं। आजादी के बाद कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ने का रास्ता विरोधी पार्टियों की समझ में नहीं आ रहा था…ऐसे में सोशलिस्ट राम मनोहर लोहिया ने पिछड़ी जातियों की गोलबंदी का रास्ता निकला और संख्या के आधार पर सत्ता में हिस्सेदारी पर जोर दिया।
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जाति आधारित पार्टियां बनीं
नतीजा ये निकला कि साल 1967 में बिहार में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। साल 1977 में बिहार में पिछड़ों के लिए 26 फीसदी आरक्षण देने का फैसला हुआ। इसके बाद सामाजिक रूप से पिछड़ों की पहचान के लिए मंडल आयोग का गठन हुआ। जिसकी रिपोर्ट को वीपी सिंह सरकार ने लागू कर पिछड़ों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का रास्ता खोला। मंडल की राजनीतिक लहर में कईयों की नेतागिरी चमकी। कई सूबे के मुख्यमंत्री और केंद्र में मंत्री जैसे बड़े पद पर पहुंचे। जाति आधारित पार्टियां बनीं और ये सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। जिस रफ्तार से आरक्षण की सीमा बढ़ रही है। किसी न किसी बहाने लोगों को आरक्षण के दायरे में लाने का रास्ता निकाला जा रहा है। उससे दिनों-दिन सामान्य कैटगरी छोटी होती होती जा रही है । ऐसे में वो दिन दूर नहीं दिख रहा- जब देश में सरकारी नौकरियां नाम मात्र की होंगी और आरक्षण की रेंज में देश की 80 फीसदी से अधिक आबादी।