Opinion: सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में गर्भपात क़ानून को लेकर एक फैसला दिया। जिसमें कहा गया कि विवाहित हो या अविवाहित, सभी महिलाओं को सुरक्षित गर्भपात का अधिकार है। अविवाहित महिला भी गर्भपात करा सकती है। उसी फैसले में यह भी कहा गया कि अगर पत्नी की सहमति के बिना पति ने शारीरिक सम्बंध बनाया और पत्नी गर्भवती हो गयी तो वह चाहे तो गर्भपात करा सकती है, इसके लिए पति की सहमति की जरूरत नहीं होगी। इस फैसले से कुछ लोग बहुत आहत हैं। उन्हें लगता है कि इससे सुप्रीम कोर्ट ने शादी पूर्व सेक्स करने की खुली छूट दे दी है, जैसे इस फैसले के पहले तो यह होता ही नहीं था।
यह फैसला जस्टिस डी वाय चंद्रचूड़ की बेंच का था। इसलिए अब चार साल पहले एडल्टरी के मामले में उनके फैसले को लेकर तरह-तरह से आलोचना की जा रही है। जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली पांच सदस्यीय पीठ ने 2018 में एडल्टरी यानी व्यभिचार से जुड़े क़ानून को रद्द कर दिया था। उस बेंच में जस्टिस चंद्रचूड़ भी थे।
एडल्टरी से जुड़े क़ानून सेक्शन 497 से जुड़े मामले में फैसला सुनाते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि पति, पत्नी के सेक्सुअलिटी का मालिक नहीं हो सकता। शादी का मतलब यह नहीं कि पत्नी किससे शारीरिक सम्बंध बनाये यह पति तय करेगा!
इस फैसले में कही गयी बातें गले नहीं उतरतीं। क्योंकि अगर यही सही है तो शादी जैसी संस्था का कोई मतलब नहीं रह जाता। क्योंकि शादीशुदा महिला या पुरुष किसी तीसरे से शारीरिक सम्बंध बनाये यह शादी की अवधारणा के खिलाफ है। लेकिन जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह बात क्यों कही, शायद बहुत लोगों ने उसे जानने-समझने की कोशिश नहीं की।
भारतीय दंड विधान की धारा 497 में प्रावधान था कि अगर कोई तीसरा व्यक्ति किसी की पत्नी से शारीरिक सम्बंध बनाता है और उसमें पति की सहमति है तो यह व्यभिचार यानी एडल्टरी का अपराध नहीं होगा। इसे अपराध साबित होने के लिए जरूरी है कि पति ने सहमति नहीं दी हो। यहां पत्नी की सहमति असहमति का कोई मूल्य नहीं था। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सेक्शन 497 को रद्द कर दिया था। जस्टिस चंद्रचूड़ की आलोचना करने वाले इस समाज को एडल्टरी की उस परिभाषा से कोई दिक्कत नहीं थी जिसमें पत्नी को वस्तु समझा गया था।
यह जानना महत्वपूर्ण है कि एडल्टरी क़ानून को चुनौती देने वाली याचिका को 1985 में जस्टिस डी वाय चंद्रचूड़ के पिता और तत्कालीन मुख्यन्यायाधीश जस्टिस वाय वी चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि समाज के व्यापक हित में इस क़ानून का बने रहना जरूरी है।
जस्टिस चंद्रचूड़ का 2018 का एडल्टरी क़ानून से जुड़ा फैसला स्त्री पर पुरूष स्वामित्व की सोच पर प्रहार था। गर्भपात क़ानून को लेकर विवाहित अविवाहित में भेद ख़त्म करने का उनका फैसला बदलते समाज की जरूरत है। जस्टिस चंद्रचूड़ बदलते समाज की जरूरतों के मुताबिक क़ानूनों की व्याख्या करते हैं। उनकी यह व्याख्या कुछ लोगों को प्रगतिशील लगती है तो कुछ इसे स्थापित सामाजिक मूल्यों के खिलाफ देखते हैं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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