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भारत एक सोच

Bharat Ek Soch: भारत में तेजी से क्यों बढ़ रहे तलाक के मामले?

Bharat Ek Soch: आज भारत का सामाजिक ताना-बाना कमजोर हो रहा है, युवा जिम्मेदारियां लेने से बच रहे हैं। ऐसे में परिवार जैसी संस्थाओं पर अब खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में आइये जानते हैं गृहस्थ जीवन का क्या महत्व है?

Author Edited By : Anurradha Prasad Updated: Mar 2, 2025 22:41
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Bharat Ek Soch: भारत में सामाजिक ताने-बाने को हजारों साल के बाद मजबूती मिली है। लोगों को धर्म और कर्म के धागे में गूंथ कर किस तरह से एक मजबूत सामाजिक व्यवस्था का निर्माण किया गया। इंसान को खुद की जगह दूसरों के लिए जीने का फलसफा सिखाया। आज की तारीख में बच्चों के पालन-पोषण और शिक्षा -दीक्षा में कहीं-न-कहीं ऐसी कमी महसूस की जा रही है, जिसमें चरित्र निर्माण हाशिए पर जाता दिख रहा है। स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ऐसे गुणों से युक्त करने की कोशिश कम होती दिख रही है – जिनका सामना मनुष्य को जिंदगी में कदम-कदम पर करना पड़ता है। इसका सबसे बड़ा साइड इफेक्ट इंसानी सभ्यता की तरक्की के लिए सबसे जरूरी गृहस्थ आश्रम पर दिख रहा है।

जिम्मेदारियों से बचने का रास्ता खोज रहे युवा

पारिवारिक रिश्ते दरक रहे हैं। ज्यादातर युवा जिम्मेदारियों से बचने का रास्ता खोज रहे हैं, ऐसे में समझना जरूरी है कि विकसित भारत के लिए किस तरह के संयमी, संतुलित, अनुशासित और सरोकारी गृहस्थ जीवन की जरूरत है ? पारिवारिक मूल्यों को स्थापित कर किस तरह विकसित भारत के सपने को पूरा किया जा सकता है? सामाजिक ताने-बाने में गृहस्थ आश्रम में आती फॉल्ट लाइनों को कहां-कहां ठीक करने की जरूरत है?

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गृहस्थ आश्रम का नाम कर्म पथ भी हो सकता था । गृहस्थ जीवन का गणितशास्त्र या गृहस्थ आश्रम का समाजशास्त्र भी हो सकता था। दरअसल, भारत की परंपरा में हजारों साल से सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः वाली सोच आगे रही है । समाज को… गांव को … शहर को…पूरी दुनिया को एक परिवार की तरह देखा गया है। भारतीय गृहस्थ सिर्फ अपनी समृद्धि के लिए जिम्मेदार नहीं होता है, पूरी दुनिया की खुशहाली के लिए योगदान देना भी उसका परम कर्तव्य है। भारतीय परंपरा की आश्रम व्यवस्था में सबसे अहम गृहस्थ आश्रम को माना गया है। कोई भी युवा शिक्षा-दीक्षा हासिल कर सबसे पहले अपने लिए रोजगार खोजता है, फिर विवाह करता है यानी गृहस्थ आश्रम जीवन का वह हिस्सा है – जिसमें व्यक्ति विवाह करके पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाता है । ऐसे में सबसे पहले समझते हैं कि भारतीय परंपरा में गृहस्थ का मतलब क्या है?

ब्रह्मचर्य आश्रम में गृहस्थ आश्रम की परीक्षा

गृहस्थ आश्रम में इंसान एक से अनेक बनने की प्रक्रिया में आगे बढ़ता है। इसमें स्त्री और पुरुष एक और एक मिलकर दो नहीं एक होते हैं । यजुर्वेद कहता है कि गृहस्थ के सभी कर्म, नियम, भोग, धर्म नियमों से बंधे होते हैं। गृहस्थ जीवन सिर्फ पति -पत्नी के बीच का संबंध नहीं बल्कि सृष्टि और समाज को आगे बढ़ाने का पवित्र रिश्ता है। जिसकी बुनियाद एक-दूसरे के प्रति सम्मान और भरोसे पर टिकी होती है । एक-दूसरे के प्रति समर्पण और जिम्मेदारियों को ईमानदारी से निभाने का भाव होता है ।

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ब्रह्मचर्य आश्रम में रहते जो भी शिक्षा-दीक्षा होती है, उसकी परीक्षा गृहस्थ आश्रम में ही होती है। ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास में गृहस्थ को इसलिए भी श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि, इसी आश्रम में रहते हुए इंसान कमाई करता है। क्योंकि, न ब्रह्मचारी कमाता है। ना वानप्रस्थी और ना ही संन्यासी। एक तरह से तीनों आश्रमों को चलाने की जिम्मेदारी गृहस्थ उठाता है। एक जिम्मेदार, कामयाब और संतुलित गृहस्थ की कामयाबी में ही समाज और इंसानी सभ्यता की बेहतरी देखी गयी है।

हर कदम पर महिला की भूमिका अर्धांगिनी की

एक इंसान की जिंदगी में 25 से 50 साल की उम्र को सबसे ऊर्जावान माना जाता है। जिसमें इंसान की शारीरिक और मानसिक क्षमता चरम पर होती है। वो अपना सर्वश्रेष्ठ खुद की तरक्की, परिवार के प्रति जिम्मेदारियों को निभाने और समाज की बेहतरी के लिए दे सकता है। सांसारिक चुनौतियों से निपटने में महिला हर कदम पर अर्धांगिनी की भूमिका में खड़ी रहती है। इसलिए, दुर्गा सप्तशती में कहा गया है – या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता, यानी स्त्री मातृ स्वरूपा होती है, जो परिवार और समाज को शक्ति और ऊर्जा प्रदान करती है । ऋग्वेद कहता है … संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् यानी सभी को एकजुट होकर, समान विचारों के साथ आगे बढ़ना चाहिए।

भारत में तलाक के मामले तेजी से बढ़ रहे

अथर्ववेद के मुताबिक जहां प्रेम और संतोष हो, वही सच्चा गृहस्थ जीवन है । लेकिन, हाल के वर्षों में तेजी से बदलती दुनिया में गृहस्थ आश्रम में पति-पत्नी के रिश्तों में हम की जगह मैं आता जा रहा है, जिससे भारत जैसे देश में भी तलाक के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। इससे हमारे सामाजिक ताने-बाने में परिवार जैसी संस्थाएं कमजोर पड़ने लगी हैं। धैर्य, संयम और सहनशीलता तीनों की गृहस्थों में कमी महसूस की जा रही है। पति-पत्नी के बीच तलाक की नौबत कहीं बच्चे की जिम्मेदारी संभालने के नाम पर आ रही है तो कहीं बुजुर्ग माता-पिता की जिम्मेदारी उठाने के मुद्दे पर तो कहीं Extra Marital Affairs की वजह से । It’s my life … It’s my style वाली सोच ने गृहस्थ आश्रम में रिश्तों को किश्तों में या रास्तों पर ला दिया है। इसमें विवाह जैसी पवित्र संस्था को भी कॉन्ट्रैक्ट की तरह देखने की सोच आगे बढ़ रही है। सामाजिक जिम्मेदारियों से बचने के लिए लीव इन रिलेशनशिप जैसे रास्ते को चुनने में भी हिचक नहीं दिखाई जा रही है।

भगवान शिव शक्ति के देवता

कहा जाता है कि गृहस्थ आश्रम में रहना किले के भीतर हमेशा लड़ने जैसा है। इसमें इंसान को सहयोग और सुरक्षा दोनों मिलते हैं तो परिवार के सदस्यों के बीच तालमेल बैठाना पड़ता है। विरोधी स्वभाव वालों को संयम, धैर्य और सौहार्द के साथ लेकर आगे बढ़ना होता है। भारतीय परंपरा में भगवान शिव को शक्ति का देवता माना गया है। शिव परिवार में विरोधी स्वभाव के सदस्य हैं। बगल में पत्नी पार्वती जिनका वाहन बाघ है…भोले शंकर के गले में नाग है और वो नंदी की सवारी करते हैं । इसी तरह गणेश की सवारी चूहा है तो कार्तिकेय का वाहन मोर है…शिव संदेश देते हैं कि परिवार में विरोधाभासी स्वभाव वाले लोगों को किस तरह से साथ लेकर चला जा सकता है।

मैं को किनारे करना पड़ता है

गृहस्थ जीवन की कामयाबी के लिए में मैं को किनारे कर हम के लिए जीना पड़ता है … कदम-कदम पर त्याग करना पड़ता है। परिवार, समाज, देश लिए हलाहल पीना पड़ता है सफल गृहस्थ अर्थ और काम के बीच रहते हुए भी संयम के साथ संन्यासी जैसा जीवन जीता है। त्रेतायुग के मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जीवन भी यही संदेश देता है और आधुनिक युग में महात्मा गांधी भी कुछ इसी तरह का रास्ता दिखाते हैं। आज की पीढ़ी को समझना होगा कि भारतीय परंपरा में धर्म का असली मतलब है पूरी शिद्दत के साथ अपना कर्म करना। रिश्तों को ईमानदारी और धैर्य के साथ सींचना। एक-दूसरे के प्रति सम्मान और बोली में संयम रखना। कर्म में पवित्रता के जरिए अर्थ अर्जित करना–हर गृहस्थ का धर्म है। क्योंकि, अर्थ बिना सब व्यर्थ है। अर्थोपार्जन परिवार के लिए… समाज के लिए … देश के लिए होना चाहिए…ना कि सिर्फ और सिर्फ खुद के भौतिक शरीर की सुख-सुविधा और भोग-विलास के लिए।

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Edited By

Anurradha Prasad

First published on: Mar 02, 2025 10:33 PM

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