Rajasthan Jodhpur Mata Temple Without Idol: नवरात्रों में माता के अलग-अलग रूपों की पूजा की जाती है। वहीं, राजस्थान के जोधपुर में माता का एक ऐसा मंदिर भी है जहां, देवी की कोई प्रतिमा नहीं है, बल्कि इसके बजाय उनके पोशाक की पूजा की जाती है। इसे खुंटिया चीर दर्शन कहा जाता है। इसमें तीन लोहे की कील पर माता की प्रतीक चीर (ओढ़नी) ओढ़ाई जाती है और यहां रहने वाले लोग इसे ही माता का स्वरूप मानकर उनकी पूजा करते हैं। इसी प्रकार से यहां लगभग 500 वर्षों से पूजा की जा रही है।
भिवानियो की कुलदेवी का है मंदिर
यह मंदिर कायस्थ माथुर समाज में भिवानियो की कुलदेवी का है, जहां मंदिर बना हुआ है उसे माताजी की पोल के नाम से जाना जाता है और यहां कोई पुजारी नहीं है। वर्तमान में पोल में 4 परिवार के लोग रहते हैं और वही लोग मिलकर पूजा करते हैं। इस मंदिर में भेरू और भगवान गणेश का स्वरूप भी स्थापित है। इस मंदिर में सुबह 6 बजे और शाम को 8:30 बजे आरती होती है। यहां नवरात्रि पर 9 दिन तक हवन पूजन किया जाता हैं और अखंड ज्योत भी रखी जाती है।
मंदिर से जुड़ी रोचक कहानी
इस मंदिर में नवरात्रे में ज्वारे भी उगाए जाते है। लोगों की मान्यता है कि पहले वाली क्यारी में उगने वाले ज्वारे से आने वाला साल कैसा रहेगा इसका पता लगाया जाता है। जबकि, दूसरी क्यारी में उगने वाले ज्वारे से यह साल कैसा रहेगा इसका अनुमान लगाया जाता है। ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष 6 को मंदिर का स्थापना दिवस मनाया जाता है। मंदिर से जुड़ी कहानी के बारे में जानकारी देते हुए डॉक्टर कृष्ण मुरारी माथुर ने बताया कि सम्राट नसीरुद्दीन तुगलक के शासनकाल में मुस्लिम धर्म अपनाने को लेकर फरमान जारी किया गया था। उस समय हमारे पूर्वज भिंवाजी ने ये स्वीकार करने से मना कर दिया था। वे देवी के उपासक थे और उन्होंने माता से प्रार्थना की अब हमें दिल्ली छोड़नी पड़ेगी। ये हमारे लिए सुरक्षित नहीं है। इसलिए आप हमारे साथ चलकर हमारी रक्षा कीजिए। उनकी प्रार्थना पर माता जी ने उन्हे श्रीयंत्र दिया।
यह भी पढ़ें- राजस्थान में 3 भाइयों की मौत, ट्रॉली में पीछे से घुसी बाइक, खेत से घर जा रहे थे तीनों
माता उनके साथ चलने के लिए तैयार हो गईं, लेकिन इसके लिए उन्होंने शर्त रखी कि जिस छबड़े में वह विराजमान हैं उसे वह कहीं हाथ से उतार कर पृथ्वी पर नहीं रखेंगे। यदि किसी कारणवश वे छाबड़े को कहीं भी धरती पर रख देंगे, तो वह वहीं छबड़े से निकलकर अपना स्थाई निवास बना लेंगी और उससे आगे नहीं चलेगी। माता की इस शर्त को स्वीकार करके भिंवाजी अपने गुरु के साथ राजस्थान को रवाना हुए।
जब वे टोंक जिले के सोनवाय गांव के पास पहुंचे, तो एक वट वृक्ष के नीचे विश्राम करने के लिए ठहर गए। सुवाजी छबड़े को अपने शिष्य भींवाजी को देकर अपना नित्य कर्म करने चले गए। सुवाजी को आने में कुछ देर हो गई इधर भींवाजी को लघुशंका लग गई और आखिर में लाचार होकर वे भी छबड़े को कुएं में उगे बड़ की जड़ में रखकर लघु शंका के लिए चले गए। धरती पर रखते ही श्रीयंत्र जो देवी बाला त्रिपुर सुंदरी का स्वरूप था, वह छबड़े से निकल कर वट वृक्ष पर विराजमान हो गईं। सुवाजी यह जानकर बड़े दुखी हुए और उन्होंने मन से क्षमा मांगी लेकिन, भगवती अपने निश्चय पर अटल रही। उनकी विनती पर माता ने भींवाजी को अपना प्रतीक चीर (ओढ़नी) व चरण (घाघरा) देकर कहा कि तुम मेरे प्रतीक की पूजा करना और इसे जहां कहीं भी रखोगे वहां मेरा मंदिर हो जाएगा।
उनके पूर्वज माता की बात मानकर पहले नागौर फिर मेड़ता होते हुए जोधपुर आए। यहां पर तीन खूंटियों पर इस तरह से पेरावान होती है, जिससे वो देवी का स्वरूप लगे। इस मंदिर को संवत 1583 में बनवाया गया था। यहां आज भी माथुर समाज के भी गोत्र के लोग दर्शन के लिए आते हैं। ये जोधपुर का पहला ऐसा मंदिर हैं, जहां देवी की बिना प्रतिमा के पूजा की जाती है। हर वर्ष यहां होने वाले स्थापना महोत्सव में बड़ी संख्या में समाज के लोग भाग लेते हैं। भिंवाजी ने टोंक जिले के सोनवाय में भी देवी का मंदिर भी बनवाया। यहां पर माता वृक्ष में विराजित होने की वजह से उनका नाम वटवासन माता, बड़माता, वरहुल, सोनवाय राय आदि नामों से जानी गई और वर्तमान में भिंवाजी के वंशज भिवानी कहलाते हैं।
टोंक में जिस बड़ की जड़ में श्रीयंत्र को रखा गया था। उस कुएं के आले में बड़ का वृक्ष होने की वजह से माता का नाम बड़वासन पड़ा। यह टोंक से 10 किलोमीटर दूर है। यहां आज भी कुएं में दर्शन करने के लिए लोग आते हैं। इसके लिए यहां पर सीढियां लगाई गई हैं।