The Most Controversial Nobel Peace Prize : नोबेल शांति पुरस्कार को दुनियाभर में शांति की स्थापने के लिए किए जा रहे प्रयासों का प्रतीक माना जाता है। लेकिन, शांति को समर्पित यह प्रतिष्ठित सम्मान भी विवादों से अछूता नहीं है। नोबेल कमेटी ने आज यानी शुक्रवार को नोबेल शांति पुरस्कार 2024 का एलान किया है और यह सम्मान जापान के संगठन Nihon Hidankyo को दिया गया है। लेकिन, इस रिपोर्ट में हम बात करने जा रहे हैं इतिहास के सबसे विवादित नोबेल शांति पुरस्कार के बारे में जो साल 1973 में दिया गया था।
साल 1973 में दिया गया नोबेल शांति पुरस्कार को इसके इतिहास का सबसे विवादित पुरस्कार माना जाता है। नॉर्वे की नोबेल कमेटी ने उस साल अमेरिका के तत्कालीन विदेश सचिव हेनरी किसिंजर (Henry Kissinger) और उत्तरी वियतनाम के मध्यस्थ ली डक थो (Le Duc Tho) को पेरिस शांति समझौते के जरिए वियतनाम युद्ध में सीजफायर कराने में उनकी कोशिशों के लिए दिया था। लेकिन, नोबेल कमेटी के इस फैसले के खिलाफ बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए थे। कुछ लोगों ने तो इसे सबसे खराब नोबेल पीस प्राइज कह दिया था।
फेल हो गया था पेरिस शांति समझौता
1970 के दशक की शुरुआत तक वियतनाम को करीब 2 दशक हो चुके थे। इतने लंबे समय से क्षेत्र में मची तबाही के खिलाफ पूरी दुनिया में आक्रोश फैल गया था और अमेरिका में भी युद्ध के खिलाफ भावना तेज हो गई थी। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के चीफ डिप्लोमैट के रूप में नॉर्थ वियतनाम के सीनियर लीडर ली डक थो के साथ वार्ता की अगुवाई की थी, ताकि वियतनाम में विवाद को समाप्त किया जा सके। इन वार्ताओं का परिणाम पेरिस शांति समझौते के रूप में निकला जिस पर 27 जनवरी 1973 को हस्ताक्षर किए गए थे।
इसके बाद युद्ध विराम हुआ और अमेरिका ने वियतनाम से अपने सैनिकों की वापसी शुरू कर दी थी। लेकिन, यह समझौता लंबे समय तक नहीं टिक पाया। जल्द ही नॉर्थ और साउथ वियतनाम में सीजफायर का उल्लंघन हुआ और लड़ाई फिर से शुरू हो गई। आलोचकों का तर्क था कि यह समझौता शांति का असली समझौता होने की जगह अमेरिका के लिए अपनी प्रतिष्ठा बचाने का एक तरीका था। इतिहासकारों ने इसे लेकर बाद में कहा था कि यह कोई शांति समझौता नहीं था बल्कि एक तरह का युद्धविराम था जो तेजी के साथ टूटने लगा था।
थो ने पुरस्कार लेने से कर दिया इनकार
किसिंजर और थो को नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने की घोषणा ने पूरी दुनिया के पॉलिटिकल और डिप्लोमैटिक सर्कल्स को बड़ा झटका दिया था। 16 अक्टूबर 1973 को नोबेल कमेटी ने इसका एलान किया था। द न्यूयॉर्क टाइम्स ने तो इसे ‘नोबेल वॉर प्राइज’ कह दिया था। पूरे मामले में सबसे तगड़ा रिएक्शन खुद ली डक थो का था जिन्होंने इस पुरस्कार को स्वीकार करने से ही इनकार कर दिया था। बता दें कि उनके इस कदम ने उन्हें इतिहास का अकेला ऐसा नोबेल पुरस्कार विजेता शख्स बना दिया जिसने शांति पुरस्कार को लेने से ही इनकार कर दिया हो।
Le Duc Tho of the Communist Party of Vietnam was awarded Nobel Peace prize in 1973. But he refused to accept it. Almost 50 years down the line, comrade Budhadeb Bhattacharya is refusing to accept the Padma Bhushan, India’s second highest civilian award. pic.twitter.com/b1hqUkf1OY
— nate (@ScarletNate) January 26, 2022
नोबेल कमेटी के भेजे टेलीग्राम में थो ने कहा था कि जब वियतनाम को लेकर पेरिस समझौते का सम्मान होगा, बंदूकें शांत हो जाएंगी और साउथ वियतनाम में सही मायनों में शांति की स्थापना हो जाएगी, तब में इस पुरस्कार को स्वीकार करने के बारे में सोचूंगा। वहीं, किसिंजर ने अवॉर्ड स्वीकार कर लिया था लेकिन वह ऑस्लो में हुई सेरेमनी में नहीं पहुंचे थे। 2 साल बाद जब वियतनाम आधिकारिक रूप से समाप्त हो गया तब किसिंजर ने अपना नोबेल प्राइज लौटाने की कोशिश की थी। लेकिन, नोबेल कमेटी ने इसे वापस लेने से इनकार कर दिया था।
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