Bangladesh Political Crisis : राजनीतिक संकट से गुजर रहे बांग्लादेश में हालात इस समय बेहद गंभीर हैं। लंबे समय तक इस देश की कमान संभालने वाली शेख हसीना ने सोमवार को सेना के दबाव में आकर इस्तीफा दे दिया था और इसी के साथ देश भी छोड़ दिया था। बांग्लादेश में नई सरकार के गठन की तैयारियां चल रही हैं। हालांकि, स्थिति अभी भी नियंत्रण में नहीं है। रिपोर्ट्स के अनुसार वहां हिंसा और अराजकता का माहौल अभी भी बना हुआ है। इस बीच हम आपको बताने जा रहे हैं साल 1971 की उस लड़ाई के बारे में जिसमें पाकिस्तान के 2 टुकड़े हो गए थे।
कई मोर्चों पर लड़ा जाता है युद्ध
एक युद्ध कितने मोर्चों पर लड़ते हुए जीता जाता है। राजनीतिक नेतृत्व और सेना में सिपाही से जनरल तक किस तरह काम करते हैं- इसे समझना भी जरूरी है। ऐसे में सबसे पहले 1971 के जंग की पृष्ठभूमि से परिचय जरूरी है। तभी समझने में आसानी होगी कि किसी भी युद्ध में जीत के लिए एक साथ कितने मोर्चों पर तैयारियां करनी होती है। भले ही पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान को इस्लाम जोड़ रहा था, लेकिन दोनों हिस्सों के खान-पान, बोल-चाल, रहन-सहन में बहुत अंतर था। पूर्वी पाकिस्तान में ऑपरेशन सर्चलाइट ने लोगों के भीतर खौफ पैदा कर दिया। जान बचाने के लिए लोग सरहद पार कर भारतीय इलाकों में दाखिल होने लगे। ऐसे में पाकिस्तान के भीतर की लड़ाई भारत के लिए बहुत बड़ी मुसीबत बन गई। इतनी बड़ी तादाद में शरणार्थियों का बोझ झेलना भारत के लिए मुमकिन नहीं था। कुछ महीने में ही करीब एक करोड़ शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान से भारत के सीमावर्ती राज्यों में आ गए। आज की तारीख में भी दुनिया के नक्शे पर सवा सौ से ज्यादा देश ऐसे हैं- जिनकी आबादी एक करोड़ से कम है। जरा सोचिए, 1971 में भारत की स्थिति और ऊपर से एक करोड़ शरणार्थियों का बोझ, ऐसे में राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर चिंतित तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आर्मी चीफ सैम मानेक शॉ को बुलाया। उनसे पूछा कि क्या भारत सैनिक कार्रवाई से पाकिस्तान को रोक सकता है? मामला बहुत पेचीदा था। पूरी जिंदगी फौज के अनुशासन और सैन्य रणनीति में महारत रखने वाले सैम बहादुर की समझ में तुरंत आ गया कि जल्दबाजी कदम उठाने का क्या नतीजा हो सकता है। ऐसे में बिना किसी दबाव के उन्होंने सच्चाई बयां की और राजनीतिक नेतृत्व यानी इंदिरा गांधी ने भी उसी सलाह पर अमल किया- जो एक प्रोफेशनल आर्मी के जनरल ने दी। उस घटना का जिक्र खुद सैम मानेक भी कुछ इंटरव्यू में कर चुके हैं।
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इंदिरा गांधी की रणनीति
जनरल मानेक शॉ एक सैन्य रणनीतिकार की तरह सोच रहे थे और इंदिरा गांधी एक राजनेता की तरह। किसी ने एक-दूसरे की बात काटने की कोशिश नहीं की। दोनों ने अपना पक्ष रखा। एक-दूसरे का सम्मान किया। एक-दूसरे की सीमाओं को समझा और भारत के लिए जो बेहतर लगा, उस पर पूरी ईमानदारी से आगे बढ़े। राजनीति अपना काम कर रही थी और सेना अपना काम। आर्मी, एयरफोर्स और नेवी के बड़े-बड़े कमांडर युद्ध की तैयारियों में व्यस्त थे, तो राजनीतिक नेतृत्व अपने तरीके के युद्ध के दौरान और संभावित खतरों को टालने के लिए कूटनीतिक मोर्चे बंदी में लगा हुआ था। इंदिरा गांधी ये भी अच्छी तरह समझ रही थीं कि अगर युद्ध लंबा खिंचा तो उसका अंजाम क्या होगा? पाकिस्तान को हारता देखकर अमेरिका किस तरह के तिकड़म कर सकता है? ऐसे में इंदिरा गांधी ने तब के विदेश मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह को मिशन पर लगा रखा था। खुद इंदिरा गांधी रूस और अमेरिका के दौरे पर गईं। भारत अच्छी तरह समझ रहा था कि युद्ध के दौरान अमेरिका किस हद तक जा सकता है। ऐसे में भारत ने रूस को अपने पक्ष में खड़ा करने की दमदार स्क्रिप्ट तैयार कर दी। संयुक्त राष्ट्र में भी अमेरिका और पाकिस्तान से हर तिकड़म को फेल करने के लिए कूटनीतिक मोर्चेबंदी हो चुकी थी।
पाकिस्तान ने की मूर्खता
अप्रैल 1971 के बाद सैम मानेकशॉ के नेतृत्व में भारतीय फौज ने अपनी तैयारियां पूरी कर लीं। उन्होंने कई बहुत ही काबिल अफसरों मसलन, लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा, लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह, मेजर जनरल जेएफआर जेकब, मेजर जनरल इंद्रजीत सिंह गिल, मेजर जनरल जीएस नागरा को अहम जिम्मेदारी सौंपी। इसी तरह एयर चीफ मार्शल पी सी लाल और नेवी चीफ एडमिरल एसएम नंदा ने भी अपने चुनिंदा अफसरों को अहम मोर्चे पर लगाया। हर स्थिति से निपटने के लिए कई प्लान पर एक साथ काम चल रहा था। युद्ध के दौरान हर तरह स्थिति से निपटने के लिए आपसी सहयोग और समन्यव का बहुत ही मजबूत मैकेनिज्म भी समानांतर काम कर रहा था। पूर्वी पाकिस्तान में मुक्ति वाहिनी के लड़ाके भारत की हर तरह से मदद के लिए तैयार थे। मतलब, पूर्व और पश्चिम दोनों ही मोर्चों पर दुश्मन को पटखनी देने का इंतजाम हो चुका था, लेकिन पूरी तैयारी के बावजूद भारतीय फौज सरहद से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी। पाकिस्तान ने एक मूर्खता कर दी। उसे लगा कि अगर हम भारत के पश्चिमी हिस्से को निशाना बनाएंगे तो भारत पूर्वी इलाके से पीछे हट जाएगा। उसे भारत की तैयारियों का अंदाजा नहीं था। पाकिस्तान ने 3 दिसंबर, 1971 को भारत के कई अहम हवाई अड्डों पर एक साथ बमबारी शुरू कर दी और युद्ध का आगाज हो गया।
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भारतीय नेवी का प्रचंड प्रहार
पश्चिमी मोर्चे से लेकर पूर्वी मोर्चे तक इंडियन आर्मी, नेवी और एयरफोर्स ने पाकिस्तान को इतना कड़ा जवाब देना शुरू किया। जिसके बारे में पाकिस्तानी आर्मी के जनरलों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। भारतीय सेना के जवान नॉर्थ ईस्ट के कई राज्यों से पूर्वी पाकिस्तान की आर्मी की घेराबंदी तोड़ते हुए सरहद के भीतर दाखिल हो गए और आगे बढ़ने लगे। भारतीय फौज के प्रचंड प्रहार को देखते हुए पाकिस्तान फौज ने संख्या में अधिक होने के बाद भी सरेंडर करना शुरू कर दिया। शुरुआती हमले में ही पूर्वी पाकिस्तान में मौजूद फौजियों का कनेक्शन पश्चिमी पाकिस्तान से कट गया। इस जंग में मीडिया भी बड़ी भूमिका निभा रहा था। क्योंकि, मोर्चे पर लड़ रहे फौजियों के पास ख़बर जानने का एक ही बड़ा साधन था- रेडियो। दोनों ही ओर के फौजियों को बीबीसी के न्यूज बुलेटिन का बेसब्री से इंतजार रहता था। ऐसे में मीडिया पर प्रसारित खबरें भी मोर्चे पर लड़ रहे जवानों का हौसला बढ़ाने और गिराने में अहम भूमिका निभा रही थीं। दूसरी ओर, इंडियन नेवी ने शुरुआती दौर में ही एक अमेरिका से मिली पाकिस्तान की परमाणु पनडुब्बी PNS गाजी को डुबो दिया, दूसरी ओर भारतीय नेवी के प्रचंड प्रहार से कराची कांपने लगा। तीन दिनों तक कराची के लोगों को सूरज के दर्शन तक नहीं हुए। धीरे-धीरे पाकिस्तानी सैनिकों की हिम्मत टूटने लगी।
सैम मानेकशॉ की भूमिका
भारतीय वायुसेना का फाइटर जेट पूरब से लेकर पश्चिम तक दुश्मन के लिए काल बने हुए थे। पूर्वी मोर्चे पर पाकिस्तान के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी आखिरी गोली तक लड़ने का दावा कर रहे थे। उन्हें उम्मीद थी कि अमेरिका पाकिस्तान की जरूर मदद करेगा। अमेरिका ने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। यहां तक की अपना सबसे मजबूत 7th Fleet भारत की ओर रवाना कर दिया, जैसे ही ये खबर भारत पहुंची जनरल मानेक शॉ से भी पूछा जाने लगा कि अब क्या होगा? अगर अमेरिकी फौजी भी मैदान-ए-जंग में पाकिस्तान की मदद के लिए आ गए तो क्या होगा? सैम मानेकशॉ इस बात को लेकर तो कॉन्फिडेंट थे कि जमीनी लड़ाई में वो अमेरिका को भी हरा देंगे, लेकिन 7th Fleet की काट उनके पास नहीं थी। लेकिन, तब की पीएम इंदिरा गांधी इस बात को लेकर पूरी तरह कॉन्फिडेंट थीं कि अमेरिकी नौसेना के सबसे ताकतवर 7th Fleet कुछ नहीं कर पाएगा क्योंकि, रूस के साथ दोस्ती कर अमेरिका की काट इंदिरा गांधी ने तैयार कर ली थी। पाकिस्तान को बुरी तरह से पिटता देख कर अमेरिका किस तिकड़म को आजमाएगा और संयुक्त राष्ट्र में उसके मंसूबों को किस तरह नाकाम किया जाएगा, इसकी मुकम्मल तैयारी इंदिरा गांधी ने कर रखी थी।
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कोई भी युद्ध हथियार, हौसला, कूटनीति, खुफिया सूचना के समेत कई मोर्चों पर एक साथ लड़ा जाता है। सेना, राजनीतिक नेतृत्व, कूटनीतिज्ञ, जासूस और मुल्क के लोग सभी बराबर की भूमिका निभाते हैं। साल 1971 के युद्ध की जीत में भारतीय वायु सेना के अदम्य शौर्य के एक खास पन्ने का जिक्र करना भी जरूरी है। संभवत:, उसी हमले ने पूर्वी पाकिस्तान के कमांडरों के हौसले बुरी तरह से पस्त कर दिए। वो तारीख थी 14 दिसंबर की। ढाका के गवर्नर हाउस में एक अहम मीटिंग की खबर भारत के हाथ लगी। ढाका में मौजूद पाकिस्तानी नुमाइंदों और सेना के बड़े अफसरों का मनोबल तोड़ने के लिए शायद ही इससे बेहतर कोई और मौका मिलता। ऐसे में इंडियन एयरफोर्स ने पूर्वी पाकिस्तान के कंट्रोल रूम यानी ढाका गवर्नर हाउस पर बम गिराने का बड़ा फैसला किया। जनरल मानेक शॉ की समझ में एक बात अच्छी तरह आ चुकी थी कि पूर्वी पाकिस्तान के फौजी अब किसी भी समय सरेंडर कर सकते हैं। ऐसे में सरेंडर किस तरह से हो, कहां हो, कैसे हो, इसकी स्क्रिप्ट पर भी काम शुरू हो गया।
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भारतीय फौज का अनुशासन
ढाका में सरेंडर की खबर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जनरल सैम मानेकशॉ ने दी। मिसेज गांधी ने लोकसभा में शोर-शराबे के बीच ऐलान किया कि ढाका अब एक स्वतंत्र देश की राजधानी है। पाकिस्तान के 93 हजार अफसर और जवानों ने सरेंडर कर दिया। ये दुनिया के इतिहास में सबसे बड़ा सरेंडर है। सरेंडर के वक्त ढाका के रेसकोर्स मैदान में भारतीय फौजियों की तुलना में पाकिस्तानी फौजियों की तादाद 9 गुना से ज्यादा थी, लेकिन उनके हौसले बुरी तरह टूट चुके थे। भारतीय फौज किन आदर्शों पर चलती है- दुश्मन देश के युद्धबंदियों के साथ किस तरह का सुलूक करती है, इसकी अनगिनत कहानियां सरेंडर करने वाले पाकिस्तान फौज के जवान और अफसरों के घर में आज भी कहीं सुनी जाती हैं। भारतीय फौज कितनी अनुशासित है- इसकी भी नजीर 1971 का युद्ध है। भारतीय फौज के शूरवीरों ने जंग जीता और उसके बाद आगे का फैसला तब के राजनीतिक नेतृत्व पर छोड़ दिया और ये भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक नेतृत्व के काम करने का तरीका है– जिसमें युद्ध में जीत का क्रेडिट तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी देश के लोगों को देती हैं। सेना के जवानों को देती हैं। ये विपक्षी दलों का संसदीय राजनीति में काम काज का तरीका है– जिसमें जीत के बाद अटल बिहारी वाजपेयी इंदिरा गांधी की तुलना शक्ति की दुर्गा से करते हैं यानी कोई भी जंग सिर्फ और सिर्फ हथियारों के दम पर नहीं लड़ी जाती है। उसमें कई फ्रंट पर तैयारियां करनी पड़ती है। तभी 1971 जैसी जीत मिलती है। जिससे देश का दम पूरी दुनिया को बताना नहीं पड़ता। पूरी दुनिया खुद महसूस करती है।
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