Bihar Aurangabad: बेटियां हर क्षेत्र में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रही हैं। बेटों के बराबर कंधे से कंधा मिलाकर बेटियां चल रही हैं। बेटी बचाओ, बेटो पढ़ाओ अभियान भी शुरू किया गया। इस तरह अब महिलाओं के आत्मविश्वास को भी बढ़ावा मिल रहा है। इसी बीच अब बिहार से रुढ़िवादी रीति रिवाज को तोड़ने का साहस दिखाने वाली बेटी की खबर सामने आ रही है।
परंपराओं को तोड़ पेश की मिशाल
बिहार के औरंगाबाद के गोह के जमुआईन गांव की एक बेटी ने सामाजिक परंपराओं को तोड़कर एक मिशाल पेश की है। समाज की रूढ़िवादी परंपरा से आगे बढ़कर बिहार की इस बेटी ने न केवल अपने पिता की अर्थी कन्धा दिया बल्कि श्मशान घाट तक गई और रीति-रिवाज के साथ अंतिम संस्कार भी किया।
बेटी का नाम सुमन कुमारी बताया जा रहा है जो दिनेश महतो व पुष्पा देवी की इकलौती संतान है। सुमन 12 वीं में पढ़ाई कर रही है। सुमन के पिता दिनेश महतो लगभग 15 सालों से सिकंदराबाद में एक निजी कंपनी में काम करते थे। पिछले 2 साल से वह हार्ट की बीमारी से परेशान थे।
इलाज कराते कराते हो गया कर्ज
लगभग आठ महीने पहले दिनेश महतो का ऑपरेशन भी हुआ। इलाज में अधिक पैसा खर्च होने से परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ती चली गई। हालांकि किसी तरह परिवार गुजरा कर रहा था लेकिन दवाओं में पैसा अधिक खर्च होने से कर्ज हो गया। 5 फरवरी को दिनेश महतो का निधन हो गया।
पिता के निधन के बाद जब अंतिम संस्कार करने की बारी आई तो दिनेश के भतीजे से अंतिम क्रिया कराने की चर्चा होने लगी। अर्थी श्मशान ले जाने के लिए पिंड देने, कंधा देने और मुखाग्नि देने के लिए लड़कियां बहुत कम जाती हैं, ऐसे कार्यों से उन्हें दूर रखा जाता है लेकिन सुमन ने इस परंपरा को तोड़ते हुए खुद अंतिम संस्कार करणे का फैसला किया।
पिता का किया अंतिम संस्कार, हो रही वाहवाही
सुमन ने साफ कर दिया कि मैं पापा की इकलौती बेटी हूं। पापा को पिंड, कंधा और मुखाग्नि देने का अधिकार मुझसे परंपरा के नाम पर छीना नहीं जा सकता। उसने साहस के साथ कहा कि धर्म की किस किताब में लिखा है कि बेटी अपने बाप को कंधा नहीं दे सकती। यह सुनकर मौजूद सभी लोगों ने सुमन की बातों पर सहमति जताई।
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इसके बाद सुमन ने ना सिर्फ पिता की अर्थी को कंधा दिया बल्कि बेटी होते हुए भी बेटे का फर्ज निभाया और पिता का अंतिम संस्कार किया। अब सुमन की खूब चर्चा हो रही है और हर तरफ तारीफ हो रही है।
हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, कई बेटियों ने अपनी पिता की चिटा को मुखाग्नि दी है लेकिन संख्या बेहद कम है। ऐसा कर पाने की हिम्मत बहुत काम बेटियां ही दिखा पाती हैं। धीरे-धीरे इस परंपरा को तोड़ अब लड़कियां आगे बढ़ रही हैं।