सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अभय एस ओका ने ट्रायल कोर्ट में लंबित केसों, देशभर में न्यायिक ढांचे की स्थिति और मामलों के निपटारे में देरी के कारण विचाराधीन कैदियों की पीड़ा पर चिंता जताई है। उन्होंने बुधवार को संविधान के 75 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में दिल्ली के भारत मंडपम में सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया। इसमें उन्होंने एक व्याख्यान दिया, जिसका विषय था ‘न्याय तक पहुंच और संविधान के 75 साल- न्यायपालिका और नागरिकों के बीच की खाई को पाटना’, जिसमें जस्टिस ने कहा कि हमें यह कहने का कोई अधिकार नहीं है कि आम आदमी को न्यायपालिका पर भरोसा है।
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कैदियों और उनके परिजनों की पीड़ा पर चिंता जताई
जस्टिस ओका ने विचाराधीन कैदियों और उनके परिवार के सदस्यों की पीड़ा का जिक्र करते हुए उन मामलों के बारे में चिंता जताई, जहां लंबे समय तक जेल में कैद रहने के बाद आखिर में सबूतों के अभाव में आरोपी को बरी कर दिया जाता है। उन्होंने कहा कि एक मुद्दा यह है कि स्पष्ट मामलों में जमानत क्यों नहीं दी जाती? कई ऐसे मामले हैं, जिनमें जमानत नहीं दी जाती और मुकदमा पूरा होने में सालों लग जाते हैं। हो सकता है कि 10 साल की कैद के बाद अदालत सबूतों के अभाव में बरी कर दे।
जस्टिस ओका ने कहा कि हमें परिणामों के बारे में सोचना होगा। अपराधी का पूरा परिवार पीड़ित होता है। किसी दिन कोई वादी हमसे सवाल करेगा कि जब मेरे खिलाफ कोई सबूत नहीं था तो मुझे 10-12 साल तक हिरासत में क्यों रखा गया? या 3-4 साल तक क्यों रखा गया? वह हमसे पूछेगा कि हम न केवल उसे बल्कि उसके परिवार को भी कैसे मुआवजा देंगे, जिसने बहुत कष्ट झेले हैं। न्यायपालिका को अपनी पीठ थपथपाने का कोई अधिकार नहीं, क्योंकि इंसान को न्यायपालिका पर भरोसा नहीं है।
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खामियों और कमियों ने सुधार की उम्मीद जताई
मेरा विचार है कि यह कथन मूलतः सही नहीं हो सकता है। यदि हमारे पास 4.54 करोड़ मामले लंबित हैं, जिनमें से 25-30% 10 वर्ष पुराने हैं तो क्या हम अभी भी मान सकते हैं कि आम आदमी को इस संस्था पर बहुत भरोसा है? हमें अपनी खामियों और कमियों को स्वीकार करना चाहिए। उन खामियों और कमियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।