बिहार की राजनीति में इन दिनों एक नई खिचड़ी पक रही है और यह खिचड़ी भारतीय जनता पार्टी की पसमांदा मुसलमानों को साधने की रणनीति है। जिस पार्टी पर कभी मुसलमानों के विरोध का आरोप लगता था। वह अब मुस्लिम समाज के सबसे हाशिये पर खड़े वर्ग को अपना कहने की कोशिश कर रही है। सोमवार को बीजेपी ने पासमंदा मुसलमानो का सम्मलेन बुलाया था, जिसमें बड़ी संख्या में पसमन्दा मुसलमान खासकर महिलाएं शामिल हुई थी। अब पासमंदा मुसलमानों को जोड़ने की यह रणनीति महज एक चुनावी प्रयोग है या वास्तव में सामाजिक प्रतिनिधित्व की दिशा में कोई बड़ा कदम है।
बिहार में 2023 की गणना के अनुसार, 17.7 फीसदी मुसलमानों की आबादी है जिसमें से 73 फीसदी पासमंदा मुसलमान है। पासमंदा मुसलमानों के लिए नीतीश सरकार ने कई काम किए हैं और इस आबादी का वोट नीतीश कुमार को मिलता रहा है।
कौन हैं पसमांदा मुसलमान?
बीजेपी के प्रदेश मीडिया प्रभारी और बीजेपी पासमंदा समाज के अध्यक्ष दानिश इकबाल ने बताया कि ‘पसमांदा’ शब्द फारसी मूल का है, जिसका अर्थ पीछे छूटे हुए होता है। यह शब्द भारतीय मुस्लिम समाज के उन वर्गों के लिए इस्तेमाल होता है, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से कमजोर हैं। इनमें वे मुसलमान आते हैं जो ऐतिहासिक रूप से दलित और पिछड़े हिंदू समुदायों से इस्लाम में आए। इनकी स्थिति मुस्लिम समाज में भी निचली मानी जाती है। जहां अशराफ (सैयद, शेख, पठान आदि उच्च जाति) वर्ग रहा है। इन्हें उनका हक दिलाने के लिए केंद्र की मोदी सरकार और बिहार की नीतीश सरकार बहुत काम कर रही है।
बिहार में मुस्लिम आबादी लगभग 17.7% है, जिनमें करीब 73% पसमांदा समुदाय से आते हैं। यानी पूरे राज्य की कुल आबादी में इनकी हिस्सेदारी करीब 10–12% के आसपास है।
बीजेपी को पसमांदा याद क्यों आए?
वोट बैंक की नई तलाश
बीजेपी को पारंपरिक रूप से मुस्लिम वोट नहीं मिलते, लेकिन बिहार जैसे राज्य में जहां मुस्लिम वोट निर्णायक होते हैं। वहां पसमांदा समुदाय को साधना एक नई रणनीति है।
सोशल इंजीनियरिंग का विस्तार
बीजेपी ने हिंदू समाज में पिछड़ी जातियों और दलितों को जोड़कर अपनी ताकत बढ़ाई है। अब वह मुस्लिम समाज के OBC और दलित तबकों को साथ लाने की कोशिश कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद कई मंचों से पसमांदा मुसलमानों के उत्थान की बात कर चुके हैं।
विपक्ष की ‘अशराफ’ निर्भरता
बीजेपी का दावा है कि आरजेडी और जेडीयू जैसे दल अशराफ मुसलमानों को ही प्रतिनिधित्व देते हैं और पसमांदा तबकों की उपेक्षा करते आए हैं। भाजपा इस वर्ग को प्रतिनिधित्व और सम्मान देकर खुद को उनका असली हितैषी साबित करना चाहती है।
पसमांदा सम्मेलनों के जरिए सीधा जुड़ाव
बीजेपी बिहार में लगातार पसमांदा सम्मेलनों का आयोजन कर रही है। इन आयोजनों में समुदाय विशेष के मुद्दों को सुना जाता है और केंद्र की योजनाओं की जानकारी दी जाती है। पार्टी सिर्फ वोट मांगने तक सीमित नहीं रहना चाहती, बल्कि पसमांदा समाज से नेता तैयार कर उन्हें पार्टी में अहम भूमिका देने की बात कर रही है। बीजेपी इस वर्ग को ‘वोट बैंक’ नहीं बल्कि ‘पार्टनर’ बनाने की कोशिश कर रही है।
राजनीतिक विश्लेषक डॉ संजय कुमार के अनुसार बीजेपी की इस रणनीति के सामने कई चुनौतियां भी हैं. मुस्लिम समाज में भाजपा को लेकर वर्षों से अविश्वास की भावना है। आरजेडी और जेडीयू जैसे दल भाजपा की इस कोशिश को “राजनीतिक छलावा” करार देकर जनता को सतर्क करने की कोशिश करेंगे। खुद पसमांदा समाज भी अंदरूनी तौर पर कई उप-जातियों और वर्गों में बंटा हुआ है। इन सबको एक छतरी के नीचे लाना किसी भी पार्टी के लिए आसान नहीं होगा। विधानसभा और अन्य राजनीतिक संस्थाओं में पसमांदा प्रतिनिधित्व आज भी नाममात्र है। अगर बीजेपी वाकई भरोसा जीतना चाहती है तो उसे इन्हें टिकट और नेतृत्व में हिस्सेदारी देनी होगी।
क्या बदल जाएगा बिहार का सियासी गणित?
अगर भाजपा अपनी रणनीति में सफल होती है और पसमांदा समुदायों को वास्तविक प्रतिनिधित्व और सम्मान देती है, तो यह बिहार की राजनीति का नया टर्निंग पॉइंट हो सकता है। अब तक हाशिए पर रहे ये लोग अगर संगठित होकर बोलने लगे, तो राजनीति की दिशा भी बदल सकती है। अब बिहार की राजनीति में पसमांदा मुसलमान सिर्फ एक वोटर नहीं, बल्कि एक महत्वपूर्ण शक्ति बनकर उभर रहे हैं और उनकी लड़ाई अब सिर्फ ‘पहचान’ की नहीं ‘प्रतिनिधित्व’ की है।
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