Religious Facts: हिंदू धर्म में त्रिदेवों का विशेष महत्व माना गया है। इन त्रिदेवों में भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश आते हैं। वहीं, इन त्रिदेवों को भगवान शिव का अंश माना जाता है। शिव परमतत्व, निराकार हैं। इनसे ही तीनों देवों की उत्पत्ति हुई है। शिव से ही विष्णु और शंकर की उत्पत्ति हुई है और ब्रह्मा जी भगवान श्रीहरि से निकले हैं। इन त्रिदेवों को तीन अलग-अलग कामों का जिम्मा मिला हुआ है। इनमें भगवान ब्रह्मा सृष्टि के रचियता हैं और विष्णु पालनकर्ता हैं। संहार का दायित्व शंकर (महेश) जी के पास है।
देवी भागवत पुराण में शिव की शक्ति को आदिशक्ति या महामाया कहा गया है। इस आदिशक्ति के ही स्वरूप माता पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती व ब्रह्माणी हैं। शिव के बिना शक्ति और शक्ति के बिना शिव अधूरे हैं। मां शक्ति को ही अलग-अलग स्वरूप में वर्णित किया गया है। मार्कंडेय पुराण में शिव की शक्ति का दुर्गा मां के रूप में वर्णित किया गया है। यहां एक बात ये साफ है कि शिव ही परमब्रह्म हैं, जिनसे तीनों देव निकले हैं और सृष्टि की रचना हुई है। इन देवों के अलग-अलग दायित्व हैं।
क्या कहते हैं शास्त्र?
शिव पुराण की विद्येश्वर संहिता में अध्याय 5 में ‘शिव’ को परम तत्त्व, निराकार और सर्वव्यापी चेतना के रूप में वर्णित किया गया है। वे वह शक्ति हैं, जो सृष्टि के पहले और बाद में भी विद्यमान रहती है। इसके विपरीत, ‘शंकर’ को ‘शिव’ द्वारा ही उत्पन्न एक साकार रूप बताया गया है, जो त्रिशूल, डमरू और जटाओं के साथ भक्तों को दर्शन देते हैं।
वायु पुराण के अध्याय 4 में ‘शिव’ को परमात्मा और ‘शंकर’ को उनके कार्यकारी रूप के रूप में उल्लेखित किया गया है। ‘शंकर’ रुद्र, भैरव या महादेव के रूप में सृष्टि में संतुलन बनाए रखते हैं, जबकि ‘शिव’ वह निराकार शक्ति हैं, जो इन रूपों को शक्ति देती है।
लिंग पुराण के अध्याय 17 में ‘शिव’ को लिंग के रूप में निराकार और शाश्वत बताया गया है, जो सृष्टि की उत्पत्ति और अंत का प्रतीक है। ‘शंकर’ को उनका साकार रूप माना गया है, जिन्हें नीलकंठ, अर्द्धनारीश्वर या नटराज के रूप में पूजा जाता है। यह पुराण कहता है कि ‘शिव’ की पूजा निराकार लिंग के रूप में होती है, जबकि ‘शंकर’ की पूजा मूर्तियों और चित्रों के माध्यम से होती है।
स्कंद पुराण काशी खंड, अध्याय 12 में ‘शिव’ को सृष्टि का मूल स्रोत और ‘शंकर’ को उनके भौतिक अवतार के रूप में वर्णित किया गया है। यहां ‘शंकर’ को वह रूप बताया गया है, जो काशी में महाकाल के रूप में पूजा जाता है।
पद्म पुराण सृष्टि खंड में ‘शिव’ को अनादि और अनंत शक्ति के रूप में देखा गया है, जबकि ‘शंकर’ को वह रूप बताया गया है, जो सृष्टि के संहार और कल्याण के लिए कार्य करता है। यह पुराण ‘शंकर’ को भक्तों के लिए सुलभ रूप के रूप में प्रस्तुत करता है।
ऋग्वेद तैत्तिरीय संहिता में ‘शिव’ को परम चेतना के रूप में वर्णित किया गया है, जबकि ‘रुद्र’ को ‘शंकर’ का एक रूप माना गया है। रुद्र सूक्त में ‘रुद्र’ को क्रोधी और कल्याणकारी दोनों रूपों में दिखाया गया है, जो ‘शंकर’ के साकार स्वरूप को दर्शाता है।
क्या है दोनों का मूल अर्थ?
‘शिव’ शब्द का अर्थ कल्याणकारी और शुद्ध है । यह निराकार, सर्वव्यापी और परम चेतना का प्रतीक है। ‘शिव’ वह ब्रह्म हैं, जो सृष्टि से परे और सभी रूपों से मुक्त हैं। दूसरी ओर, ‘शंकर’ का अर्थ है ‘जो कल्याण करता है’। ‘शंकर’ ‘शिव’ का साकार रूप हैं, जिन्हें हम योगी, नटराज, रुद्र या भोलेनाथ के रूप में पूजते हैं। ‘शंकर’ वह रूप है, जो भक्तों के साथ व्यक्तिगत संबंध बनाते हैं और सृष्टि के लिए कार्य करते है।
दार्शनिक और आध्यात्मिक अंतर
दार्शनिक दृष्टिकोण से ‘शिव’ अद्वैत वेदांत के परम सत्य के समान हैं। वे वह ब्रह्म हैं, जिसमें कोई द्वैत नहीं है। ‘शंकर’ उस सत्य का कार्यकारी रूप हैं, जो सृष्टि में संतुलन बनाए रखते हैं। उदाहरण के लिए, ‘शिव’ सृष्टि की मूल ऊर्जा हैं, जबकि ‘शंकर’ उस ऊर्जा का वह रूप हैं, जो नृत्य, ध्यान या संहार के माध्यम से प्रकट होता है। तांत्रिक परंपराओं में भी ‘शिव’ को शक्ति का स्रोत और ‘शंकर’ को उस शक्ति के उपयोगकर्ता के रूप में देखा जाता है।
पूजा में भी है अंतर
शिव की पूजा निराकार और आध्यात्मिक होती है। शिवलिंग की पूजा, ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र का जाप, और ध्यान ‘शिव’ की निराकार शक्ति से जुड़ने के तरीके हैं।
शंकर की पूजा साकार रूपों पर केंद्रित होती है। भक्त भगवान ‘शंकर’ को मूर्तियों, चित्रों या उनके विभिन्न रूपों (महाकाल, भैरव, नटराज) के माध्यम से पूजते हैं।
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