Papankusha Ekadashi 2024: सनातन पंचांग के अनुसार, इस बार आश्विन माह की शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि को मनाई जाने वाली पापांकुशा एकादशी दो दिन पड़ रही है, 13 अक्टूबर और 14 अक्टूबर। वहीं, सोमवार 14 अक्टूबर, 2024 को एक बेहद दुर्लभ योग बन रहा है। कहते हैं कि ऐसा योग सदियों में एक-दो बार ही बनता है, जिसे त्रिस्पृशा योग कहते हैं। पद्म पुराण के अनुसार, एकादशी तिथि को बनने वाले इस योग के कारण वह एकादशी व्रत ‘त्रिस्पृशा एकादशी’ भी कहलाती है और इसे करने से एक हजार एकादशी व्रतों का फल मिलता है। आइए जानते हैं, त्रिस्पृशा एकादशी क्या है? साथ ही जानते हैं, कथा, पूजा विधि और मंत्र।
त्रिस्पृशा एकादशी क्या है?
पद्म पुराण के अनुसार, जब एक ही दिन एकादशी, द्वादशी और रात्रि के अंतिम पहर में त्रयोदशी तिथि का संयोग होता है, तो उसे तिथियों का त्रिस्पृशा योग कहते है। इस योग के बनने की पहली और अंतिम शर्त यही है कि एक दिन के सूर्योदय से दूसरे दिन के सूर्योदय के दौरान तीन तीन तिथियों का मेल होना चाहिए। उसमें दशमी तिथि का योग नहीं होता है। तभी वह त्रिस्पृशा योग माना गया है। एकादशी और द्वादशी तिथियों में यह संयोग सर्वोत्तम और बेहद फलदायी माना गया है।
त्रिस्पृशा योग का महत्व
सूर्योदय से कुछ मिनटों पहले एकादशी हो, फिर पूरे दिन द्वादशी रहे और उसके बाद त्रयोदशी तिथि हो तो ये त्रिस्पर्शा द्वादशी कहलाती है, यानी एक ही दिन में तीनों तिथियां आने से ऐसा योग बनता है। ऐसा संयोग अतिदुर्लभ है। इसलिए इस दिन पूजा-पाठ का महत्व बढ़ जाता है। त्रिस्पृशा योग में एकादशी व्रत का उपवास करने से हजार एकादशी और एक हजार अश्वमेध यज्ञ और सौ वाजपेय यज्ञों का फल मिलता है। यह व्रत करने वाले पुरुष और स्त्री विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होते हैं।
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त्रिस्पृशा एकादशी की असली कथा
त्रिस्पृशा या त्रिस्पर्शा एकादशी कथा का वर्णन पद्म पुराण में किया गया है। भगवान विष्णु को समर्पित इस पुराण के अनुसार, स्वयं नारद जी ने इस व्रत के बारे संपूर्ण ज्ञान भगवान महादेव शिव से प्राप्त किया था।
नारद जी बोले, “हे सर्वेश्वर! अब आप विशेष रूप से त्रिस्पृशा नामक व्रत का वर्णन कीजिए, जिसे सुनकर लोग तत्काल कर्मबन्धन से मुक्त हो जाते हैं।”
भगवान शिव ने कहा, “हे विद्वन्! पूर्वकाल में सम्पूर्ण लोकों के हित की इच्छा से सनत्कुमार जी ने व्यास जी के प्रति इस व्रत का वर्णन किया था। यह व्रत सम्पूर्ण पाप राशि का दमन करने वाला और महान् दुखों का विनाशक है। त्रिस्पृशा नामक महान् व्रत सम्पूर्ण कामनाओं का दाता माना गया है। ब्राह्मणों के लिए तो या और भी मोक्षदायक भी है।”
महादेव ने कहा, “हे महामुने! देवाधिदेव भगवान ने मोक्ष-प्राप्ति के लिये इस व्रत की सृष्टि की है। इसलिये इसे वैष्णवी तिथि कहते हैं। इन्द्रियॉ का निग्रह न होने से मन में स्थिरता नहीं आती है । मन की यह अस्थिरता ही मोक्ष में बाधक है।”
उन्होंने कहा, “मुनिश्रेष्ठ! जो ध्यान-धारणा से वर्जित, विषय परायण और काम-भोग में आसक्त हैं, उनके लिए त्रिस्पृशा ही मोक्षदायिनी है। पूर्वकाल में जब चक्रधारी श्री विष्णु के द्वारा क्षीरसागर का मंथन हो रहा था, उस समय चरणो में पड़े हुए देवताओं के मध्य में ब्रह्माजी से मैंने ही इस व्रत का वर्णन किया था। जो लोग विषयॉ में आसक्त रहकर भी त्रिस्पृशा का व्रत करेंगे, उनके लिये भी मैंने मोक्ष का अधिकार दे रखा है। हे नारद! तुम इस व्रत का अनुष्ठान करो, क्योंकि त्रिस्पृशा मोक्ष देने वाली है।”
उन्होंने कहा, महामुने! बड़े-बड़े मुनियों के समुदाय ने इस व्रत का पालन किया है। यदि भाग्यवश कार्तिक शुक्लपक्ष में सोमवार या बुधवार से युक्त त्रिस्पृशा एकादशी हो, तो वह करोड़ों पापों का नाश करने वाली है और पापों की तो बात ही क्या है, त्रिस्पृशा के व्रत से ब्रह्म-हत्या आदि महा-पाप भी नष्ट हो जाते हैं। प्रयाग में मृत्यु होने से और द्वारका में श्रीकृष्ण के निकट गोमती में स्नान करने से शाश्वत मोक्ष प्राप्त होता है, परन्तु त्रिस्पृशा का उपवास करने से घर पर भी मुक्ति हो जाती है। इसलिये विप्रवर नारद! तुम मोक्षदायिनी त्रिस्पृश्या के व्रत का अवश्य अनुष्ठान करो।”
पूजा विधि और मंत्र
- इस दिन तिल के पानी से स्नान करने पीले या सफेद वस्त्र पहनकर पंचोपचार से भगवान विष्णु की पूजा करें।
- पूजा में पंचामृत के साथ ही शंख में दूध और जल मिलाकर भगवान का अभिषेक करने का विशेष विधान है। ऐसा करने से गोमेध यज्ञ करने जितना फल मिलता है।
- भगवान विष्णु को धूप-दीप दिखाकर नैवेद्य लगाएं। फिर सुंदर पुष्प और कोमल तुलसी दल से भगवान् की पूजा करें। पूजा के बाद व्रत-कथा सुनें। इसके बाद आरती करें और प्रसाद बांट दें।
- मान्यता है कि त्रिस्पर्शा एकादशी की पूजा में भगवान दामोदर को सुन्दर ऊंची बांस की छड़ी भी भेंट करनी चाहिए।
- इन मंत्रों का जाप करें: दामोदराय नमः और माधवाय नमः इन दो मंत्रों का विधिवत जाप करें।
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