Laghukatha: ईश्वर की बनाई सृष्टि में भी अनोखी विचित्रता है। कुछ लोगों की क्रियाशीलता अपने कर्म में होती है, तो कुछ लोगों की दूसरों के जीवन के उथल-पुथल को जानने की। भगवान ने भवानी को भी कुछ ऐसा ही दुर्गुण अत्यधिक मात्रा में दिया था। भवानी की मुलाक़ात किसी भी व्यक्ति के मन को आहत करने में कोई कमी नहीं छोड़ती थी। यदि आपकी शादी हो गई और बच्चे नहीं है, तो जीवन जीना व्यर्थ है। यदि आप शादी के बाद अध्ययनरत है, तो वह शिक्षा किसी काम की नहीं। यदि आपकी नौकरी में कार्य का अतिरिक्त बोझ है तो वह भी परेशानी का ही रूप है। यदि आपका बच्चा पढ़ाई नहीं कर रहा है तो आपका भविष्य बर्बाद है। शादी यदि नौकरी वाले से की है तो उसका दुख और बिजनेसमैन से की है तो उसकी कमियां , यानी जीवन में संतुष्टि किसी भी पक्ष में नहीं है। यह सभी भवानी के सामान्य विश्लेषण है। अब बारी आती है दुख के पोस्टमार्टम की।
भवानी की सहेली रमा करीब तेरह सालों से संतानहीनता के कष्ट से ग्रसित थी। उपचार, दवाइयों और डाक्टरों के चक्कर ने उसकी हिम्मत तोड़ी, पर एक नन्ही जान की चाह में उसने यह सब कुछ करना स्वीकार किया। ईश्वर की कृपा से गर्भधारण हुआ पर नरक यातना का अनुभव भोगना अभी बाकी था। यह भी पढ़ें: लघुकथा: प्रयासों की शीघ्रता
कंप्लीट बेडरेस्ट यानि ब्रश, टॉइलेट, खाना इत्यादि सभी कुछ बिस्तर पर करना था। इन सब के कारण वह खुद को असहाय महसूस करती थी। पूरे समय डॉक्टर की निगरानी में दवाइयां और इंजेक्शन, इन सभी परिस्थितियों के बीच रमा की तबीयत पुछने भवानी आई। उसे उसकी पुरानी हर स्थिति की पूर्ण जानकारी थी, पर दुख का पोस्टमार्टम की आदत कहां जाने वाली थी। उसके आहत मन की मरम्मत करने की बजाए उसने उसके दुख को कुरेद-कुरेद कर पूछा। यह भी पढ़ें: लघुकथा: शर्तों वाली भक्ति
भविष्य की चिंताओं से उसे डराया। डिलिवरी, बच्चे की देखरेख को लेकर शंकात्मक प्रश्न किए। फिर लड़का-लड़की के भेदभाव को उजागर किया। ऑपरेशन होने के भय से उसे डराया। बच्चे की देखरेख में आने वाली परेशानियों को कष्टकारी बताया। हर प्रश्न के साथ नकारात्मक विचार जुड़े थे। रमा मन-ही-मन खुद को कोस रही थी कि क्यों भवानी मेरा हाल जानने के बहाने मेरे दुख का पोस्टमार्टम करने आ गई।
इस लघुकथा से क्या शिक्षा मिलती है?
इस लघुकथा से यह शिक्षा मिलती है कि मनुष्य जीवन तो सदैव सुख-दुख के आवरण से घिरा रहना वाला संघर्षमयी जीवन है। भगवान के अवतारों में भी हमें यही क्रम देखने को मिला, फिर किसी की दुखती रग को टटोलने का क्या मतलब। जीवन तो सदैव सुख-दुख की परिभाषा से ही सुशोभित होगा। ईश्वर ने तो केवल दुख के प्रकार में विषमता रखी है। अतः सदैव लोगों के दुख को न्यून करने में सहयोगी बनें और लोगों को जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण दिखाएँ और खुद भी आशावादी रहें। यह भी पढ़ें: लघुकथा: स्त्री बनना है जरूरी
डॉ. रीना रवि मालपानी (कवयित्री एवं लेखिका)