Vijay Diwas 2023 : 16 दिसंबर को मनाया जाने वाला विजय दिवस साल 1971 में पाकिस्तान पर भारत की जीत का प्रतीक है जिसने बांग्लादेश की आजादी का रास्ता साफ किया था। यह लड़ाई पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के विद्रोह और पाकिस्तान की सैन्य कार्रवाई के चलते शुरू हुई थी। तीन दिसंबर को पाकिस्तान की ओर से एयर स्ट्राइक किए जाने के बाद इस मामले में भारत ने दखल दिया था।
भारत और पाक के बीच यह युद्ध 13 दिन चला था जिसके बाद लगभग 90,000 पाक सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया था। 16 दिसंबर 1971 को पाक सेना के जनरल नियाजी ने ढाका में भारतीय सेना और बांग्लादेश की मुक्ति वाहिनी के आगे घुटने टेके थे। पढ़िए भारत के उन पांच जांबाजों की कहानी जिन्होंने इस युद्ध में भारत की जीत सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाई थी।
फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ
इस अहम लड़ाई में भारत की जीत का नेतृत्व करने वाले थे फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ जो तब भारतीय सेना के प्रमुख हुआ करते थे। पूर्वी पाकिस्तान में बढ़ती हिंसा के चलते उनसे अप्रैल 1971 में ही सैन्य दखल देने के लिए कहा गया था। लेकिन प्रतिकूल जलवायु परिस्थितियों और संभावित चीनी खतरे की वजह से मानेकशॉ ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया था।
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जल्दबाजी के स्थान पर तैयारी पर उनका जोर इस लड़ाई के अंत में काफी महत्वपूर्ण साबित हुआ था। युद्ध से पहले के महीनों में मानेकशॉ ने हर सैनिक के दिमाग में हर हाल में जीत का भाव भरा। युद्ध से पहले दिमागी रूप से तैयार होने का उनका मंत्र उनकी रणनीति का एक अहम हिस्सा था। भारत की शानदार जीत के बावजूद मानेकशॉ ने नैतिक आचरण को प्राथमिकता दी थी।
रामेश्वर नाथ काओ
इस जंग में पर्दे के पीछे से अहम भूमिका निभा रहे थे रामेश्वर नाथ काओ जो रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (RAW) के प्रमुख थे। उनकी ओर से इंटेलिजेंस को लेकर की गई कोशिशों ने बांग्लादेश के निर्माण में महत्वपूर्ण रोल निभाया था। 1971 के युद्ध में उनकी एक खास उपलब्धि मुक्ति वाहिनी को रॉ का सहयोग उपलब्ध कराना था।
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उनके नेतृत्व में रॉ ने एक लाख से ज्यादा पूर्वी पाकिस्तानी सैनिकों को प्रशिक्षण दिया था। उनके इस कूटनीतिक कदम ने पूर्वी पाकिस्तान के विलय, बांग्लादेश के जन्म के साथ पूर्वी सीमा पर भारत को इसकी सुरक्षा संबंधी चिंताओं से मुक्ति दी थी। खास तौर पर जब उस समय वहां पर चीन के रूप में एक बड़ा खतरा मौजूद था।
ब्रिगेडियर कुलदीप सिंह चांदपुरी
1971 के युद्ध के दौरान कुलदीप सिंह चांदपुरी सेना में मेजर थे। पाकिस्तानी सेना ने लोंगेवाला सीमा पर जब हमला किया था तब उनके पास केवल 120 सैनिकों की टुकड़ी थी और उनके सामने थे पाक सेना के 2000 से ज्यादा सैनिक और 40 टैंकों का बेड़ा। लेकिन चांदपुरी के नेतृत्व और भारतीय सैनिकों की वीरता के आगे पाकिस्तानी सैनिक कहीं नहीं टिक पाए थे।
किसी युद्ध के दौरान जैसा साहस चांदपुरी की लीडरशिप में भारतीय सैनिकों ने दिखाया था वैसा शायद ही कहीं देखने को मिले। इस लड़ाई में हर घंटे स्थिति भारत के खिलाफ होती जा रही थी लेकिन चांदपुरी ने अपने सैनिकों में ऐसा जज्बा भरा कि हार मानना तो दूर उन्होंने पाकिस्तानी सेना के छक्के छु़ड़ा दिए थे। प्रसिद्ध फिल्म बॉर्डर भी इसी घटना पर बनी थी।
फ्लाइंग ऑफिसर निर्मल जीत सिंह सेखों
परमवीर चक्र पाने वाले एयरफोर्स के पहले और अकेले अधिकारी फ्लाइंग ऑफिसर निर्मल जीत सिंह सेखों ने श्रीनगर एयरफील्ड की सुरक्षा करने में अदम्य साहस का प्रदर्शन किया था। वह 1971 युद्ध के दौरान 18 स्क्वाड्रन का हिस्सा थे और श्रीनगर एयरबेस पर तैनात थे। 14 दिसंबर 1971 को कोहरे भरी सुबह में वह फ्लाइट लेफ्टिनेंट बलधीर सिंह घुमान के साथ स्टैंडबाय ड्यूटी पर थे। पाकिस्तानी एयरफोर्स तब श्रीनगर एयरबेस पर एफ-86 सेबरजेट से बमबारी करने वाली थी।
एयर ट्रैफिक कंट्रोल के साथ कम्युनिकेशन में दिक्कत के बाद भी सेखों और घुमान ने उड़ान भरी। टेकऑफ के दौरान सेखों ने अपने पास से पाकिस्तानी जेट जाते हुए देखे और उनसे भिड़ गए। उन्होंने दुश्मन के दो विमान गिराए। इसके बाद उन्हें पाकिस्तान के चार विमानों ने घेर लिया था। इस भिड़ंत में उनके विमान को भी खासा नुकसान पहुंचा था और बडगाम में क्रैश हो गया था जिसमें फ्लाइंग ऑफिसर सेखों शहीद हो गए थे। बता दें कि तब उनकी उम्र महज 26 साल थी।
मेजर जनरल इयान कारडोजो
पांचवीं गोरखा रायफल्स का हिस्सा रहे मेजर जनरल इयान कारडोजो का नाम बलिदान और साहस का पर्यायवाची माना जाता है। 1971 के युद्ध में उनका पैर एक लैंडमाइन पर पड़ गया था जिसमें उन्हें अपना पैर खोना पड़ा था। उनके पास न कोई दवा थी न कोई मेडिकल टूल, ऐसे में उन्होंने अपनी ही खुखरी से अपना पैर काट दिया था। वह भारतीय सेना में एक बटालियन और एक ब्रिगेड को कमांड करने वाले पहले वॉर-डिसेबल्ड अधिकारी बने थे।