दिनेश पाठक, वरिष्ठ पत्रकार
Lok Sabha Election 2024 : वे राजनीति के पुराने धुरंधर खिलाड़ी मुलायम सिंह यादव के पुत्र हैं, जिन्हें पिता ने बेहद कम उम्र में देश के सबसे बड़े राज्य की सीएम की कुर्सी चांदी की प्लेट में परोस दी। जब वे सीएम बने तो उनकी छवि बेहद शानदार थी। लोगों को उम्मीद थी कि अब समाजवादी पार्टी का चेहरा बदला है तो उसका मूल चरित्र भी बदलेगा। क्योंकि सीएम बनने के पहले प्रदेश अध्यक्ष एवं युवा मामलों के प्रभारी के रूप में उन्होंने एक बहुत शानदार पहल की थी। पिता के चाहने के बावजूद उन्होंने मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद और डीपी यादव जैसे आपराधिक चरित्र के लोगों को पार्टी में एंट्री देने से इनकार कर दिया था। इसे छिपाया नहीं, अपनी बात खुले मंचों से रखी। जनता ने तालियां बजाकर उस नौजवान अखिलेश यादव का स्वागत किया।
मुलायम यादव के चेहरे पर सपा ने विधानसभा चुनाव 2012 जीता था
जब अखिलेश यादव यह सब कर रहे थे तो शायद मुलायम सिंह यादव को जरूर पता रहा होगा कि वे बेटे को 2012 का चुनाव जीतने के बाद सीएम की कुर्सी सौंप देंगे, और किसी को पुख्ता तौर पर यह जानकारी नहीं थी, अखिलेश को भी नहीं। यह चुनाव मुलायम सिंह के चेहरे पर ही लड़ा गया था। सीएम के रूप में लोग उन्हीं को देख रहे थे लेकिन अचानक जब सीएम के रूप में अखिलेश का नाम सामने आया तो राज्य की आम जनता भी खुश हुई, क्योंकि आपराधिक छवि के लोगों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने और उन्हें अंदर न आने देने से उनकी छवि बेहद शानदार बन चुकी थी। चूंकि, मुलायम सिंह यादव ने पार्टी खड़ी की थी तो उन्होंने कई बार कुछ नियमों को अनदेखा भी किया था।
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मुलायम ने मुसलमानों का खुलकर किया सपोर्ट
यह सर्वविदित है कि वे जिसे प्यार करते थे, उसका साथ दिल खोलकर सपोर्ट करते थे, भले ही कोई नियम-कानून बाधा बन रहे हों। भले ही कोई कितना बड़ा अपराधी छवि का हो। अफसर इसे जानते थे, इसलिए उनके इशारों के अनुरूप अधिकारी उनका साथ देने से पीछे नहीं हटते थे। अयोध्या आंदोलन के बाद उनका नाम मुल्ला मुलायम केवल इसलिए पड़ गया क्योंकि वे खुलकर मुसलमान समाज के साथ खड़े थे।
अखिलेश के सीएम बनते ही सपा में शुरू हो गया था टकराव
जब अखिलेश यादव सीएम बने तो राज्य में एक ऐसा संदेश गया कि एक पढ़ा-लिखा इंजीनियर राज्य का सीएम बना है तो कुछ अच्छा होगा लेकिन सत्ता संभालते ही अखिलेश का चाचा शिवपाल यादव, आजम खान समेत मुलायम सिंह के करीबी अलग-अलग नेताओं से टकराव शुरू हो गया। मुलायम सिंह चाहते थे कि अखिलेश इन लोगों से टकराने के बजाए सामंजस्य बनाकर चलें लेकिन ऐसा हो न सका। रिश्ते में दरार बढ़ती गई और उसी बीच मुजफ्फरनगर दंगा हो गया।
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अखिलेश यादव ने पार्टी पर किया कब्जा
यहां अखिलेश की प्रशासनिक चूक सामने आई और दंगा भड़कता ही गया। महीनों लग गया उससे निपटने में फिर भी दाग धुले नहीं जा सके। अखिलेश सरकार पर दंगे के दाग अभी भी बने हुए हैं। इस दौरान सीएम के रूप में खूब वैचारिक टकराव भी अखिलेश ने झेले। मुलायम सिंह का समर्थन था तो बहुत सारे लोग सामने आकर विरोध नहीं करते लेकिन अखिलेश के कोर ग्रुप के नौजवान नेता को सार्वजनिक तौर पर भला-बुरा कहने से नहीं चूकते। समय को भांपते हुए प्रो. राम गोपाल यादव अखिलेश के साथ हो लिए और उसी दौरान अखिलेश ने एक सम्मेलन बुलाकर समाजवादी पार्टी पर कब्जा कर लिया। पिता मुलायम सिंह जानबूझकर सब कुछ हारते रहे, ताकि बेटा जीत जाए।
चाचा शिवपाल यादव ने बनाई अलग पार्टी
समय बीतता गया और अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा हो गए। कुछ दिन के लिए चाचा शिवपाल ने अलग पार्टी बना ली। भाई के निधन के बाद वे फिर से अखिलेश के साथ आ गए। अखिलेश ने जब से पार्टी संभाली अनेक प्रयोग किए, लेकिन सब उलटे पड़े। उन्होंने कांग्रेस से लेकर ओमप्रकाश राजभर, महान दल से लेकर बहुजन समाज पार्टी तक से गठबंधन किया, लेकिन कुछ खास हासिल नहीं हुआ।
2014 के चुनाव में सपा का कोई खास प्रदर्शन नहीं रहा
उनके सीएम रहते 2014 के चुनाव में समाजवादी पार्टी के हाथ कुछ खास हाथ नहीं लगा। साल 2017 का विधानसभा चुनाव भी समाजवादी पार्टी बुरी तरह हारी। सबक फिर भी नहीं लिया। 2019 लोकसभा चुनाव में सपा पांच सीटों पर सिमट गई, जबकि गठबंधन की दूसरी साझेदार बसपा को दस सीटें मिलीं। 2022 में समाजवादी पार्टी को जो 111 सीटें मिलीं उसमें पार्टी का योगदान कम, मुसलमानों का एकतरफा वोट डालना था।
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अखिलेश यादव के नेतृत्व में हारती आ रही पार्टी
मुस्लिम समाज को लगा कि सपा ही उनके हितों की रक्षा कर सकती है। भाजपा को हरा सकती है। पार्टी स्थानीय निकाय चुनाव से लेकर पंचायत चुनाव तक में हारती आ रही है। 2022 विधानसभा चुनाव के बाद गठबंधन के साझेदार राजभर एनडीए पहुंच गए। रालोद एनडीए पहुंच गया। स्वामी प्रसाद मौर्य और सलीम शेरवानी पार्टी की नीतियों से खफा होकर इस्तीफा दे दिए। मौर्य ने तो पार्टी और विधान परिषद से भी इस्तीफा दे दिया।
विपक्ष को एकजुट होकर लड़ना होगा
लोकसभा चुनाव के लिए बने इंडिया गठबंधन के प्रमुख साझेदार कांग्रेस के नेता राहुल गांधी जब यूपी पहुंचे तो भी अखिलेश ने उनका साथ नहीं दिया। संदेश इसका भी अच्छा नहीं गया है। जब सामने वाला योद्धा बेहद मजबूत हो तो विपक्ष को एकजुट होकर ज्यादा सतर्क होकर लड़ना होता है, लेकिन अखिलेश की राजनीति में वह सतर्कता कहीं गायब दिखाई देती है। देखना रोचक होगा कि अगला लोकसभा चुनाव सपा के खाते में कितनी सीटें लेकर आता है?