राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए विधेयकों पर निर्णय लेने की समयसीमा तय करके सुप्रीम कोर्ट ने कुछ भी गलत नहीं किया है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला लोकतंत्र और संघवाद को बढ़ावा देगा। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस केएम जोसेफ ने यह बयान दिया है।
पूर्व जस्टिस जोसेफ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में केंद्रीय और राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए 3 महीने की समयसीमा निर्धारित की थी। यह आदेश देकर सुप्रीम कोर्ट ने कुछ गलत नहीं किया है। यह फैसला बिल्कुल उचित है, क्योंकि यह लोकतंत्र और संघवाद को बढ़ावा देगा।
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राज्यपाल केंद्र के एजेंट, कर्मचारी या प्रतिनिधि नहीं बन सकते
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, पूर्व जस्टिस जोसेफ शनिवार को कोच्चि में अखिल भारतीय अधिवक्ता संघ की राज्य समिति द्वारा आयोजित सेमिनार में बोल रहे थे। इस सेमिनार की थीम ‘राज्यपालों की शक्तियों के मामले में न्यायपालिका की भूमिका’ थी। अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि जब कोई विधेयक राज्यपाल के पास मंजूरी के लिए भेजा जाता है तो राज्यपाल की भूमिका बहुत सीमित होती है। राज्यपाल राज्य और केंद्र के बीच अहम कड़ी हो सकते हैं। लेकिन राज्यपाल केंद्र के कर्मचारी, एजेंट या प्रतिनिधि के रूप में कार्य नहीं कर सकते।
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तमिलनाडु राज्यपाल के खिलाफ केस मे सुनाया था फैसला
रिपोर्ट के अनुसार, पूर्व जस्टिस जोसेफ ने कहा कि तमिलनाडु के राज्यपाल ने विधेयकों को मंजूरी देने में देरी की। इस देरी के खिलाफ दायर याचिका की सुनवाई करते हुए 8 अप्रैल को जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच द्वारा फैसला सुनाया गया कि राज्यपाल और राष्ट्रपति 3 महीने के अंदर बिलों पर फैसला लें, लेकिन इस फैसले की कार्यकारी पदाधिकारियों ने तीखी आलोचना की, जबकि यह फैसला बिल्कुल सही है।
बता दें कि उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना की थी और कहा था कि न्यायपालिका ‘सुपर-संसद’ बनने की कोशिश कर रही है और अनुच्छेद 142 को संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाने वाला परमाणु मिसाइल समझ रही है।
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