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भारत का धर्म चक्र: अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों को धर्म ने कैसे किया एकजुट?

Bharat Ek Soch: अंग्रेजों के दौर में धर्म को भारतीयों ने किस तरह देखा? आज हम आपको इन्हीं सवालों का जवाब बताने की कोशिश करेंगे।

Edited By : Anurradha Prasad | Updated: Oct 25, 2023 12:47
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news 24 editor in chief anuradha prasad special show
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Bharat Ek Soch: एक सोच कैसे किसी समाज को आबाद करती है, कैसे किसी को बर्बाद करती है। एक सोच कैसे किसी को जोड़ती है… किसी को तोड़ती है। कल के एपिसोड में बताया गया कि हजारों साल से धर्म कैसे मानवता के विकास में ध्वजवाहक की भूमिका में रहा है। वैदिक काल से लेकर अंग्रेजों के आने तक धर्म की व्याख्या कैसे समय के साथ बदलती गई..पाप-पुण्य की अवधारणा के बीच कैसे लोगों को धर्म के धागे से बांधते हुए कर्म पथ के लिए प्रेरित किया गया। आज हम आपको बताने की कोशिश करेंगे कि अंग्रेजों के दौर में धर्म को भारतीयों ने किस तरह देखा? ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारतीयों को एकजुट करने में धर्म किस तरह चुंबक की भूमिका में आया? महात्मा गांधी के रामराज्य से 21वीं शताब्दी में राम नाम की वोट बैंक पॉलिटिक्स के बीच धर्म के मायने कितने बदले? आज ऐसे ही सवालों के साथ देश में समय-समय पर धर्म को लेकर बदलती नजर और नजरिए की बात करेंगे।

भारत का ‘धर्मचक्र’ 

सन 1857 की क्रांति को अंग्रेजों ने बंदूक के दम पर कुचल दिया…लेकिन, उनकी नीतियां और नीयत कुछ पढ़े-लिखे भारतीयों की समझ में आ चुकी थीं। अब समस्या ये थी कि अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों को एकजुट कैसे किया जाए… ऐसे ही सवालों के बीच माथाचप्पी कर रहे थे- बाल गंगाधर तिलक। उन्हें पता चला कि ग्वालियर में किस तरह पूरे जोर-शोर से गणेशोत्सव मनाया जाता है। ऐसे में तिलक के दिमाग में इस सोच ने आकार लिया कि धार्मिक प्रवृति वाले भारत में गणेशोत्सव के जरिए लोगों को एकजुट किया जा सकता है। तिलक ने भारतीय जनमानस के बीच रचे-बसे विघ्नहर्ता यानी गणपति के नाम पर लोगों को जोड़ना शुरू किया। 1893 में सार्वजनिक रूप से गणेशोत्सव शुरू करने की तैयारी की गई। सबसे पहले पुणे में गायकवाड़, वाड़ा, तामणी, जोगेश्वरी, कस्बा गणपति और दगड़ू सेठ हलवाई के गणपति बैठाए गए। अगले साल 10 जगह गणपति महोत्सव हुआ। इससे पहले मराठा साम्राज्य में गणपति को राष्ट्र देव का दर्जा हासिल था। पेशवाओं के दौर में जमकर गणेशोत्सव मनाया जाता था…लेकिन, तिलक की तमाम कोशिशों की वजह से धीरे-धीरे पूरे महाराष्ट्र में गणपति महोत्सव की वापसी हो गई और तिलक भी एक सर्वमान्य नेता हो गए। वो गणेशोत्सव के जरिए अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन की जमीन तैयार कर रहे थे।

तिलक का खास प्रयोग

इतिहासकारों का एक बड़ा वर्ग तिलक को हिंदूवादी नेता करार देता है, लेकिन असल में ऐसा नहीं था। गणेशोत्सव तिलक की सोच से निकला एक ऐसा व्यावहारिक प्रयोग था…जिसमें धार्मिक प्रवृति वाले भारत में सफलता के चांस बहुत ज्यादा थे। तिलक का सिर्फ एक ही मकसद था-अंग्रेजों के खिलाफ समाज को एकजुट करना…दूसरी ओर उनके प्रयोगों में देश के हर धर्म और विचारधारा को जोड़ने की कोशिश भी चल रही थी, लेकिन एक बड़ा सच ये भी है कि उन्होंने धर्म के जरिए राष्ट्रवाद की जो सुनामी तैयार करने की कोशिश की…उसका दायरा सीमित था। इसे बड़ा आसमान दिया महात्मा गांधी ने…वो खुद को सनातनी हिंदू कहते थे।

आजादी की लड़ाई से लोगों को जोड़ने के लिए महात्मा गांधी ने रघुपति राघव राजा राम और वैष्णव वैष्णव जन तो तेने कहिए। जे पीड़ परायी जाणे रे जैसे भजनों को अपने कार्यक्रमों में शामिल किया। गांधी जी अच्छी तरह जानते थे कि भारतीय जनमानस के बीच मर्यादा पुरुषोत्तम राम की कितनी मजबूत जगह है। उनके लिए श्रीराम एक ऐसे आदर्श राजा थे- जिनके राज्य में लोग भय, भूख और भ्रष्टाचार से आजाद थे…जहां समाज के आखिरी आदमी को भी तरक्की का पूरा मौका मिलता था। इसलिए, महात्मा गांधी जी स्वराज और सर्वोदय दोनों को ही अपनी कल्पना के रामराज्य में देखा।

वो धर्म के नाम पर उपजी एक सोच ही थी, जिसमें भारत के बंटवारे की स्क्रिप्ट तैयार हुई। मुस्लिमों के लिए एक अलग मुल्क के तौर पर दुनिया के नक्शे पर पाकिस्तान का जन्म हुआ…तो भारत के भीतर भी ऐसी सोच वालों की कमी नहीं थी, जिन्हें ये लगता था कि जब मुसलमानों के लिए अलग मुल्क पाकिस्तान बन चुका है..तो उन्हें वहीं चले जाना चाहिए। लेकिन, आजाद भारत में ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं थी-जो धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव के पक्षधर नहीं थे। ऐसे में संविधान में भी सबको बराबरी के चश्मे से देखने की एक ईमानदार कोशिश हुई। संभवत: In theory and Practice ये पश्चिमी देशों के सेक्युलरिज्म और सेक्युलर स्टेट से आगे की सोच थी। आजाद भारत धीरे-धीरे सबको साथ लेकर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा था। उस दौर के एक संत करपात्री महाराज का भी जिक्र करना जरूरी है– जिन्होंने रामराज्य परिषद नाम से एक पार्टी बनाई थी। दूसरी ओर, पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोग भी थे – जिन्होंने अपने एकात्म मानववाद की सोच में धर्म को एक अलग नजरिए से देखने की कोशिश की… उनके मुताबिक, मोक्ष ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है। लेकिन, इसे अर्थ और काम की सीढ़ी के जरिए ही हासिल किया जा सकता है। इस सोच का एक पहलू ये भी है कि धर्म महत्वपूर्ण है… पर अर्थ के अभाव में धर्म टिक नहीं सकता है। ये धर्म का एक ऐसा व्यवहारिक पक्ष है –जो एक आम आदमी को धर्म के नाम पर दिखावे की जगह आर्थिक आत्मनिर्भरता और जिम्मेदारियों को निभाते हुए मोक्ष का रास्ता दिखाता है।

समाज की बेहतरी का मंत्र

त्रेतायुग और द्वापर युग के किरदारों में समाज की बेहतरी का मंत्र खोजा जाने लगा…खुद समाजवादी नेता डॉक्टर राम मनोहर लोहिया की सोच में भी मर्यादा पुरुषोत्तम राम रहे…उन्होंने श्रीराम को समाज में गैर-बराबरी मिटाने वाले हीरो के तौर पर देखा…और रामायण मेले की शुरुआत की। धीरे-धीरे भारत की राजनीति में रामराज्य की जगह राम मंदिर की बात होने लगी… 80 के दशक में विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन तेज कर दिया… ये देश की बदलती फिजा और राजनीति में प्रयोग ही था–जिसमें साल 1986 में अयोध्या में विवादित स्थल पर वर्षों से लगा ताला खुल गया। बीजेपी को रामधुन में सत्ता के खिड़की दरवाजे खुलते दिखाई देने लगे… ये भारत की वोट बैंक पॉलिटिक्स में प्रतीकात्मक हिंदुत्व की सुनामी का ही कमाल था कि साइंस-टेक्नोलॉजी और कंप्यूटर की बात करने वाले राजीव गांधी को 1989 में अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत अयोध्या से करनी पड़ी…रामराज्य स्थापित करने को अपना चुनावी नारा बताया और उसके बाद भारतीय राजनीति में धर्म और हिंदुत्व की आंधी ने तीन दशकों तक वोट बैंक पॉलिटिक्स को प्रभावित किया।

धर्म को अपनी-अपनी सहूलियत के हिसाब से देखा

सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट, हिंदुत्ववादी सभी ने धर्म को अपनी-अपनी सहूलियत के हिसाब से देखा है। लेकिन, भारत के एक सामान्य आदमी के लिए धर्म एक ऐसा चुंबक है, जिसमें केरल का आदमी भगवान शिव के दर्शन के लिए उत्तराखंड के केदारधाम पहुंच जाता है। बक्सर के एक छोटे से गांव का आदमी जिंदगी मे पहली बार ट्रेन पर चढ़कर दक्षिण में रामेश्वरम पहुंच जाता है…जम्मू से चलकर कोई पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा में शामिल होने के लिए निकल पड़ता है…तो गुवाहाटी से किसी को श्रीकृष्ण का सम्मोहन द्वारका तक खींच लाता है।

ये भारत के भीतर धर्म की गर्भ से निकला तीर्थ संस्कार है…जो विशालकाय भारत को सदियों से आपस में जोड़ता रहा है। लोगों का हिमालय के ऊंचे पहाड़ों से लेकर दक्षिणी छोर पर समंदर किनारों तक से रिश्ता जोड़ने में सीमेंट की भूमिका में रहा है।समय के साथ धर्म के मायने बदलते गए हैं। वोट बैंक पॉलिटिक्स और प्रतीकात्मक हिंदुत्व की होड़ ने भले ही भारत में धर्म के दायरे और मायने दोनों को ही छोटा किया हो… लेकिन, एक बड़ा सच ये भी है कि भारत के एक आदमी को देश के हर हिस्से से जोड़ने और उसके भीतर भावनात्मक लगाव पैदा करने में धर्म, देवी-देवता और तीर्थों का बड़ा योगदान है। ये धर्म का मजबूत धागा ही है, उसके भीतर से पाप-पुण्य और दूसरों की मदद वाली सोच ही है, जो ज्यादातर लोगों को गलत-सही के बीच फर्क करने के लिए मजबूर करती है…लोगों को बुराई से अच्छाई की ओर कदम बढ़ाने का रास्ता दिखाती है।

First published on: Oct 22, 2023 09:00 PM

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