---विज्ञापन---

भारत एक सोच

श्रीलंका, बांग्लादेश के बाद अब नेपाल, युवाओं को सरकार के खिलाफ कौन-सी ताकतें उकसा रही हैं?

नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे देशों में हाल के वर्षों में सत्ता परिवर्तन का कारण सोशल मीडिया बनता जा रहा है. सोशल मीडिया ने आज की पीढ़ी यानी Gen Z को एकजुट कर इतना ताकतवर बना दिया है कि सरकारें हिलने लगी हैं. लेकिन यह सवाल भी जरूरी है कि क्या यह गुस्सा स्वाभाविक है या इसके पीछे कोई छुपा एजेंडा काम कर रहा है?

Author Written By: Anurradha Prasad Author Published By : Avinash Tiwari Updated: Sep 13, 2025 23:53
Anuradha Prasad

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बैन के खिलाफ नेपाल में जिस तरह युवा सड़कों पर निकले और संसद तक को आग के हवाले कर दिया. Gen-G के प्रचंड गुस्से को देखते हुए केपी शर्मा ओली को प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी. अब नेपाल की अंतरिम सरकार की कमान सुशीला कार्की के हाथों में है लेकिन, बात यहीं खत्म नहीं होती. पिछले साल अगस्त महीने में बांग्लादेश में छात्र सड़कों पर उतरे. प्रदर्शन-गोलीबारी, कर्फ्यू और शेख हसीना को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर मुल्क छोड़ना पड़ा. वहां भी जेन-जी को छेड़ने वाला सूत्र सोशल मीडिया ही था. थोड़ा और पीछे चलें तो जुलाई 2022 में श्रीलंका में भी ऐसा ही हुआ.

Gen Z कोलंबो की सड़कों पर उतरी और राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया. राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे को इस्तीफा देकर मुल्क छोड़ कर भागना पड़ा. ऐसे में सवाल उठता है कि जो काम कभी बंदूक, तोप, टैंक और लड़ाकू विमानों की मदद से होता था, वो सोशल मीडिया के एल्गोरिदम के जरिए कैसे होने लगा है? आखिर, वो कौन सी ताकतें हैं–जो युवाओं को सत्ता प्रतिष्ठानों के खिलाफ उकसा रही हैं? लोकतंत्र में चुनावी प्रक्रिया को सोशल मीडिया किस हद तक प्रभावित कर रहा है? नेताओं को जमीनी स्तर की जगह सोशल मीडिया पर अपनी इमेज चमकाने की चिंता क्यों सता रही है? चुनाव में किसी की इमेज बिगाड़ने या नैरेटिव बदलने के लिए किस तरह सोशल मीडिया का इस्तेमाल हो रहा है? हर हाथ में स्मार्टफोन और सोशल मीडिया की शक्ति ने किस तरह से समाज, सियासत और सत्ता सरोकारों को प्रभावित किया है? आज ऐसे ही कुछ गंभीर सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे.

---विज्ञापन---

नेपाल के युवाओं को किसने भड़काया?

इस हफ्ते सोशल मीडिया की वजह से नेपाल में जो कुछ हुआ उसकी तुलना समंदर में उठने वाले ज्वार से की जा सकती है. अब नेपाल में हालात धीरे-धीरे सामान्य होने लगे हैं तो इसकी तुलना भाटा से की जा सकती है. समंदर में ज्वार-भाटा घूमती हुई पृथ्वी पर चंद्रमा और सूर्य के गुरुत्वाकर्षण की वजह से होता है लेकिन, सोशल मीडिया ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है, जिससे समाज में कब हलचल पैदा हो जाए? सत्ता-प्रतिष्ठानों के सामने युवा आक्रोश सुनामी की तरह सामने आ जाए कहना मुश्किल है? आखिर नेपाल के युवाओं को किसने भड़काया कि उन्होंने अपने देश की संसद तक फूंक डाली? ताकतवर मंत्रियों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा. पूर्व प्रधानमंत्री झलनाथ खनाल की पत्नी को जिंदा जला दिया. इस आक्रोश का ट्रिगर प्वाइंट सोशल मीडिया पर बैन तो हो सकता है लेकिन, नेपाल के युवाओं को सोशल मीडिया के जरिए एकजुट करने और चार्ज करने का काम एक या दो दिन में नहीं हो सकता है? ये सच है कि आज का युवा यानी Gen G सोशल मीडिया के बीच पला-बढ़ा है. उसके हाव-भाव पर सोशल मीडिया का प्रभाव है. Gen G के लिए WhatsApp चैट रूम है तो इंस्टाग्राम और फेसबुक चौक-चौराहा. यूट्यूब यूनिवर्सिटी की तरह है लेकिन, एक सच्चाई ये भी है कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर, उनके एल्गोरिदम पर अमेरिका का वर्चस्व है. ऐसे में सबसे पहले समझते हैं कि नेपाल से श्रीलंका तक सत्ता परिवर्तन में सोशल मीडिया किस तरह हथियार की तरह इस्तेमाल हो रहा है.

क्या बाहरी ताकतों का एजेंडा हैं ये आंदोलन?

इतिहास गवाह है कि अरब स्प्रिंग में कई मुल्कों में अवाम ने हुक्मरानों को उखाड़ फेका. हुक्मरानों के खिलाफ लोगों को सड़कों पर लाने में सोशल मीडिया ने बड़ी भूमिका निभाई. लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि सोशल मीडिया के जरिए सड़को पर उतरी जेन-जी सचमुच आवाम की आवाज है, दर्द है. उसके पीछे किसी बाहरी ताकत का गुप्त एजेंडा नहीं है. सोशल मीडिया के जरिए जेन-जी को सड़कों पर उतारने में कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं है? सत्ता परिवर्तन या सत्ता हासिल करने की मंशा नहीं है. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के दूसरी बार राष्ट्रपति की कुर्सी तक पहुंचने में सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका मानी जाती है. राष्ट्रपति ट्रंप के दौर में कूटनीतिक रिश्तों को साधने और अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल हो रहा है. इससे बंद कमरे में बातचीत और आपसी सहमति जैसी बातों के लिए जगह दिनों-दिन कम होती जा रही है. ऐसे में सोशल मीडिया के दबाव ने तुरंत एक्शन के लिए हुक्मरानों को मजबूर कर दिया है. ऐसे में धैर्य और संयम की जगह इंटरनेशनल डिप्लोमेसी में कम होती जा रही है.

---विज्ञापन---

अपनी बात कहने की होड़, सुनने की क्षमता कम

सोशल मीडिया शक्ति भी है और संहार भी. आज की तारीख में ज्यादातर हाथों में इंटरनेट से लैस स्मार्टफोन है और सोशल मीडिया की ताकत ने हर शख्स को अपनी बात पूरी दुनिया में पहुंचाने के लिए फेसबुक, इंस्टाग्राम, X जैसे प्लेटफॉर्म मौजूद हैं. ऐसे में दुनिया में एक नई तरह की होड़ लगी है अपनी बात कहने की. इससे दिनों-दिन दूसरों की बात सुनने की क्षमता कम होती जा रही है. जरा याद कीजिए, दिल्ली में निर्भया कांड के बाद टेलीविजन न्यूज चैनलों के जरिए प्रदर्शनकारियों की बातें लोगों तक पहुंचीं. इसी तरह अन्ना आंदोलन से जुड़ी खबरें टीवी न्यूज चैनलों के जरिए लोगों तक पहुंची और लोगों ने अपनी राय बनाई. तब सोशल मीडिया का प्रभाव इतना अधिक नहीं बढ़ा था. न्यूज चैनलों का किसी भी खबर को दर्शकों तक पहुंचाने से पहले फिल्टर, क्रॉस चेक का मैकेनिज्म है. किसी खबर को प्रसारित करने से पहले संपादक सोचता है कि उस खबर का समाज पर किस तरह का असर पड़ेगा?

स्मार्टफोन ने सबको स्वघोषित पत्रकार और सोशल मीडिया ने ब्रॉडकास्टर बना दिया है. जहां सूचना या खबर को क्रॉस चेक या फिल्टर करने का मैकेनिज्म नहीं है. सोशल मीडिया पर कब और कौन सी खबर वायरल हो जाएगी या वायरल करा दी जाएगी…कहना मुश्किल है. हाल में बिहार में एक मंच से प्रधानमंत्री मोदी के लिए अपशब्द कहे गए. उनकी दिवंगत मां के लिए अपशब्द का इस्तेमाल हुआ. ये एक सामान्य कार्यकर्ता द्वारा किया गया, जो निंदनीय है लेकिन, इस मुद्दे को सोशल मीडिया के लिए इतना तूल दिया गया कि देश के ज्यादातर लोगों तक ये बात पहुंच गई कि पीएम मोदी और उनकी मां का अपमान किया गया. इसी तरह हाल में AI की मदद से बना एक वीडियो जारी किया गया, जिसमें पीएम मोदी और उनकी दिवंगत मां के बीच संवाद है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या एआई और सोशल मीडिया के जरिए लोकतंत्र में इसी तरह नैरेटिव गढ़ने का खेल होगा? ये लोकतंत्र की सेहत के लिए कितना नुकसानदेह है?

सच को झूठ और झूठ को सच बताने का खेल

बिहार विधानसभा चुनाव में भी सोशल मीडिया हैंडल से एक-दूसरे पर ताबड़तोड़ हमले बोले जा रहे हैं. राजनीतिक दलों के साइबर सिपाही मैदान में डटे हुए हैं और जहां उनका काम ऐसी खबरों को वायरल करना है जो विरोधी पक्ष की ताकत को कमजोर करते हों. राजनीतिक दल भी टिकटों के बंटवारे से लेकर नेताओं की हैसियत आंकने तक में उनके फॉलोअर्स का ध्यान रखते हैं. ऐसे में तेजी से बदलती दुनिया में इंटरनेट और सोशल मीडिया की ताकत का इस्तेमाल राजनीतिक दल अपने तरीके से कर रहे हैं. बिजनेस कंपनियां अपने तरीके से और आम आदमी अपने तरीके से. पॉलिटिकल नैरेटिव अपने हिसाब से आगे बढ़ाने के लिए राजनीतिक दल और नेता सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं. ऐसे में फेक न्यूज और सूचनाओं को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की प्रवृत्ति तूफानी रफ्तार से आगे बढ़ रही है जो लोगों की सामूहिक चेतना को प्रभावित कर रहे हैं. सच को झूठ और झूठ को सच बताने का खेल भी सोशल मीडिया के जरिए धड़ल्ले से चल रहा है. इसे कुछ समाजशास्त्री लोकतंत्र के लिए बेहतर तो कुछ हानिकारक मान रहे हैं.

आज की तारीख में सोशल मीडिया आम आदमी के हाथों में एक ताकतवर हथियार की तरह है, जिसका इस्तेमाल वो अपनी समझ के मुताबिक करता है. इसे कंट्रोल करना असंभव जैसा है, इसके जितने फायदे हैं तो जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल पर उतना ही नुकसान भी. ये लोकतंत्र को मजबूत बनाने और मतदाता जागरूकता बढ़ाने में सक्षम है. लेकिन इसका दुरुपयोग चुनावी प्रक्रिया को कमजोर भी बना सकता है. फर्जी खबरें, डीपफेक और माइक्रो टारगेटिंग जैसे खतरे लोकतांत्रिक मूल्यों को नुकसान पहुंचाते हैं तो कूटनीति में सोशल मीडिया के अधिक इस्तेमाल ने आपसी सहमति और बंद कमरों में दुनिया की गंभीर समस्याओं को सुलझाने वाली सोच को कमजोर किया है. सोशल मीडिया की मदद से छोटे मुल्कों में तख्तापलट जैसे प्रयोग ने भी दुनिया में नए तरह की चिंता पैदा कर दी है? ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि इस बात में कैसे फर्क होगा कि सड़कों पर उतरे जेन-जी किसी दूसरे के एजेंडा का हिस्सा नहीं हैं, उनका आक्रोश जायज है? इस बात की क्या गारंटी है कि नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका में तख्तापलट करने वाले Gen-G मुल्क की सही मायनों में आवाज थे, महाशक्तियों के शक्ति संतुलन और जोर-आजमाइश का मोहरा नहीं. इस पर गंभीरता से मंथन की जरूरत है.

First published on: Sep 13, 2025 09:06 PM

संबंधित खबरें

Leave a Reply

You must be logged in to post a comment.