OP Rajbhar Mau seat: उत्तरप्रदेश में मऊ सीट पर होने वाले उपचुनाव को लेकर बयानों की सियासत शुरू हो गई है। सुभासपा प्रमुख और यूपी सरकार में मंत्री ओमप्रकाश राजभर ने मंगलवार को कहा कि मऊ सीट पर हमारी पार्टी की ही दावेदारी होगी। उन्होंने कहा कि 2022 में हमने यह सीट जीती ऐसे में उपचुनाव में हम इस सीट पर मजबूती से चुनाव लड़ेंगे। ऐसे में सवाल यह है कि राजभर इस सीट पर चुनाव के ऐलान से पहले ही इतने आक्रामक क्यों है?
2022 विधानसभा चुनाव में राजभर सपा की अगुवाई वाले विपक्षी गठबंधन का हिस्सा थे। ऐसे में उन्होंने यह सीट सपा से लड़-झगड़कर ली थी। ऐसे में सपा ने उनको सीट तो दी लेकिन उम्मीदवार अपना दिया। सपा ने इस सीट से पूर्व सांसद मुख्तार अंसारी के बेटे अब्बास अंसारी को उम्मीदवार बनवाया। यह सीट अंसारी परिवार की परंपरागत सीट मानी जाती है। ऐसे में राजभर चाहते हैं कि यह सीट उनके पास ही रहे। राजभर इससे पहले 2017 में बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए में थे। तब भी यह सीट उनके पास ही थी। उस समय सपा की ओर से इस सीट पर मुख्तार अंसारी उम्मीदवार थे। तब राजभर ने महेंद्र राजभर को उम्मीदवार बनाया था। मुख्तार तब का चुनाव 8698 वोट के मामूली अंतर से जीत लिया था।
राजभर इतने आक्रामक क्यों हैं?
राजभर चुनाव के ऐलान से पहले ही बीजेपी को ये बता देना चाहते हैं कि इस सीट पर उन्हीं का दावा है। ऐसे में अब सवाल यह है कि इस पर बीजेपी की क्या प्रतिक्रिया रहती है। इस बीच एक और चर्चा इन दिनों हवा में हैं। वह बाहुबली और माफिया डॉन ब्रजेश सिंह से जुड़ी है। बाहुबली ब्रजेश सिंह करीब 14 साल जेल में रहने के बाद 2022 में जेल से रिहा हुए थे। इस दौरान उन्होंने जेल से 2016 में वाराणसी की सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर एमएलसी का चुनाव लड़ा था। जिसमें उन्होंने 1954 वोट से जीत दर्ज की थी। इस सीट से पहले कभी उनकी पत्नी और भाई भी उम्मीदवारी कर चुके हैं। इससे पहले बृजेश सिंह 2012 विधानसभा चुनाव में सैयदराजा सीट से भी निर्दलीय चुनाव लड़ चुके हैं। इस सीट से वे मात्र 2016 वोटों के अंतर से चुनाव हार गए थे।
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जानें क्या है मऊ सीट का इतिहास
मऊ सदर 1957 में अस्तित्व में आई। शुरुआत में इस सीट पर कांग्रेस का कब्जा रहा। यहां से सबसे पहली जीत बेनी बाई ने दर्ज की थी। इसके बाद 1967 में पहली बार भारतीय जनसंघ ने यहां से जीत दर्ज की। यहां से बृजमोहन दास अग्रवाल ने जीत दर्ज की। इसके बाद इस सीट से कभी बीजेपी जीत दर्ज नहीं कर पाई। इस सीट पर हमेशा से मुस्लिम उम्मीदवारों की जीत होती आई है। 1969 में क्रांति दल के हबीर्बुर रहमान, 1974 में अब्दुल बकी सीपीआई से चुनाव जीते। 1977 में जनता पार्टी के रामजी, 1980 में निर्दलीय खैरुल बशर, 1985 में सीपीआई के अकबाल अहमद, 1989 में बसपा के मोबिन अहम को यहां पर पहली जीत मिली। यह बसपा की इस सीट पर पहली जीत थी। इसके बाद 1991 में सीपीआई से इम्तियाज अहमद 1993 में बसपा से नसीम खान ने यहां पर चुनावी जीत दर्ज की।
1996 से रहा अंसारी परिवार का दबदबा
इस सीट पर पहली बार 1996 में मुख्तार अंसारी ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर जीत दर्ज की थी। इसके बाद 2002, 2007, 2012 और 2017 में लगातार मुख्तार ने यहां पर जीत दर्ज की। मुख्तार अंसारी के जेल जाने के बाद उनकी विधायकी रद्द हो गई। इसके बाद सुभाषपा से इस सीट से अब्बास अंसारी को उतारा। हालांकि यह सीट उन्होंने बसपा से लड़-झगड़कर हासिल की थी।
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