Bet on Chicken: आपने क्रिकेट जैसे खेल में सटोरियों द्वारा सट्टा लगाने की बात पढ़ी- सुनी होगी पर आज हम आपको बताने जा रहे हैं ऐसे इलाकों के बारे में जहां मुर्गे पर लगता है लाखों का सट्टा और इस खेल में हार का मतलब होता है मौत। यह खेल है झारखंड के ग्रामीण इलाकों में खेले जाने वाले परंपरा मुर्गा लड़ाई (Tradition Cock Fight) का है, जो अब विकृत होकर सट्टा के खेल में बदल गया है।
झारखंड के खूंटी, पश्चिमी सिंहभूम, लातेहार, लोहरदगा आदि इलाकों के ग्रामीण हाट और ग्रामीण मेलों में मुर्गा लड़ाई के दौरान खुब सट्टेबाजी होती है। आम तौर पर इस खेल की शुरुआत 25 दिसंबर के आसपास हो जाती है और यह फरवरी तक जोर-शोर से चलता है।
क्या होता है मुर्गा लड़ाई का खेल
मुर्गा लड़ाई में दो प्रशिक्षित मुर्गे को आपस में लड़वाया जाता है। यह खेल किसी एक मुर्गा के मारे जाने या बुरी तरह घायल होने तक जारी रहता है। इसके लिए करीब 20-22 फुट का एक खास घेरा बनाया जाता है। इसी घेरे में दो मुर्गे के बीच होती है खूनी जंग। जहां यह खेल होता है उसे मुर्गा पाडा कहते हैं। लड़ाई के दौरान दोनों मुर्गे अपनी-अपनी पैतरेबाजी दिखाते हैं। इस घेरे के बाहर मुर्गा लगाने वाला और दर्शकों की उपस्थिति होती है।
10 मिनट का होता है एक राउंड
कुस्ती के खेल की तरह मुर्गा लड़ाई के इस खेल में भी कई राउंड होते हैं। एक राउंड लगभग 10 मिनट के आसपास का होता है। इस दौरान मुर्गे का मालिक मुर्गे में आक्रोश भरने के लिए अजीब तरह की आवाज मुंह से निकालता है। इस आवाज को सुनकर मुर्गा आक्रमक हो जाता है।
मुर्गे के पांव में बंधा होता है धारदार हथियार
मुर्गा लड़ाई के खेल में मुर्गे के पांव में एक धारदार हथियार को बांध दिया जाता है। इस हथियार को स्थानीय भाषा में कत्थी कहते हैं। कत्थी के धार से ही मुर्गा घायल हो जाता है। ज्यादातर लड़ाई में इसके धार से मुर्गे की गर्दन कट जाती है। पश्चिमी सिंहभूम के चक्रधरपुर के पोटका बाजार में चल रहे मुर्गा लड़ाई के दर्शक अमर मांझी न्यूज़ 24 से कहते हैं कि मुर्गा लड़ाई आदिवासी परंपरा का हिस्सा है और यह सदियों से चला आ रहा है। अमर बताते हैं कि लडाई से पहले मुर्गे के पांव में कत्थी बांधना सबकी बस का नहीं होता। इसे खास हुनरमंद आदमी ही कर सकता है ऐसे लोग जो इस काम को करते हैं उन्हें कातकीर कहा जाता है।
लड़ाई के दौरान चलता है सट्टा
मुर्गा लड़ाई के दौरान सट्टेबाजी का खेल भी चलता रहता है। सटोरिए मुर्गा पर दर्शकों को सट्टा लगाने को लेकर उकसाते रहते हैं। मुर्गे के रंग के आधार पर स्थानीय भाषा में सट्टेबाजी हो जाती है। जो मुर्गा जीतता है उसपर दांव लगाने वाले को 10 रुपए के बदले 30 से 50 रूपए तक दिए जाते हैं। एक मुर्गा पाडा में दर्जनों जोड़े मुर्गे की लड़ाई होती हैं और इस दौरान लाखों का सट्टा लगता है।
होती है लड़ाकू बनाने की ट्रेनिंग
मुर्गा लड़ाई के लिए मुर्गों को खास तौर पर ट्रेंड किया जाता है। इन्हें कई कई दिन अंधेरे में रखा जाता है जिससे ये गुस्सैल बन सकें। इसके साथ ही इन्हें बीच- बीच में बिना कत्थी के थोडी- थोड़ी देर के लिए दूसरे मुर्गे से लड़वाया जाता है। जब मुर्गा का मालिक पूरी तरह इसकी ट्रेनिंग से आश्वस्त हो जाता है तब इसे मुर्गा पाडा में लड़वाने ले जाता है। इन दिनों मुर्गा को मजबूत और लड़ाकू बनाने के लिए की तरह की दवाएं भी इंजेक्शन के द्वारा दी जाने लगी हैं।
बदलते वक्त के साथ बदला स्वरूप
आदिवासी संस्कृति पर काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार एम अखलाक बताते हैं कि मुर्गा लड़ाई आदिवासी बहुल संस्कृति में प्राचीन काल से मनोरंजन के तौर पर आयोजित की जाती रही है। झारखंड के साथ ही की अन्य आदिवासी बहुल प्रदेशों में भी यह परंपरा आपको दिख जाएंगी। समय के साथ इस खेल में सट्टेबाजी जैसी विसंगतियां बढ़ने लगी। जरूरत इसमें सुधार की है। कत्थी जैसे धारदार हथियार को हटा कर इस खेल को हिंसक होने से बचाया जा सकता है।
(विवेक चंद्र की रिपोर्ट)