आज क्या है? इस सवाल का जवाब यदि चंद सेकंड में जुबां पर नहीं आया, तो फिर शायद हमने इतिहास की किताबों में दर्ज वीर गाथाओं को गंभीरता से नहीं पढ़ा। आज शहीदी दिवस है। यह दिवस क्यों मनाया जाता है? यदि इस सवाल का जवाब तलाशने में दिमाग और जुबां के बीच कनेक्शन लॉस्ट हो गया, तो फिर हमें वाकई अपने ज्ञान पर शर्मिंदा होने की जरूरत है। शहीदी दिवस महज इतिहास में दर्ज एक तारीख नहीं है, यह पराक्रम, शौर्य, साहस और समर्पण का प्रतीक है। यह वो दिन है जब वतन की आजादी के लिए अपने हितों को सूली पर चढ़ाने वाले तीन युवाओं को फांसी के फंदे पर चढ़ा दिया गया था।
23 मार्च 1931 को अंग्रेजों ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी। महज 23-24 साल की उम्र में इन युवाओं ने हंसते-हंसते अपने प्राण देश पर न्यौछावर कर दिए। उनकी शहादत ने सैकड़ों युवाओं में जोश का संचार किया। फिर युवा जोश और अनुभव के संगम से एक ऐसा ज्वार आया कि अंग्रेजों को 1947 में भारत छोड़कर जाना पड़ा।
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1961 में जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ ने सही ही लिखा था…
उरूजे कामयाबी पर कभी हिंदोस्ताँ होगा।
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियाँ होगा॥
चखाएँगे मज़ा बर्बादी-ए-गुलशन का गुलचीं को।
बहार आ जाएगी उस दम जब अपना बाग़बाँ होगा।
ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ ख़ंजर-ए-क़ातिल।
पता कब फ़ैसला उनके हमारे दरमियाँ होगा॥
जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज़।
न जाने बाद मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा॥
वतन के आबरू का पास देखें कौन करता है।
सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तहाँ होगा॥
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा॥
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे।
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा॥
भगत सिंह का छोटा सा जीवन तमाम उपलब्धियों और अनगिनत सीख से भरा हुआ है। उनकी शहादत दर्शाती है कि जीवन में सबसे महत्वपूर्ण वतन है। वह लगन, समर्पण और लक्ष्य के प्रति अटूट विश्वास की भी सीख देते हैं। साइमन कमीशन के विरोध में लाला लाजपत राय पर हुए लाठीचार्ज का बदला लेने के लिए असेम्बली में बम फेंककर ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा बुलंद करना। आजादी के प्रति उनके समर्पण का उदाहरण है और अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों से ब्रिटिश हुकूमत में डर पैदा करना, उनकी लगन का परिणाम। देश की आजादी उनका लक्ष्य था और इसके प्रति विश्वास आखिरी सांस तक कायम रहा।
भगत सिंह के नारे आज भी जोश भरने का माद्दा रखते हैं…
बहरों को सुनाने के लिए धमाका जरूरी है।
जिंदगी तो अपने दम पर ही जी जाती है, दूसरों के कंधे पर तो सिर्फ जनाजे उठाए जाते हैं।
इस कदर वाकिफ है मेरी कलम मेरे जज़्बातों से, अगर मैं इश्क़ लिखना भी चाहूँ तो इंकलाब लिखा जाता है
जिंदा रहने की हसरत मेरी भी है, पर मैं कैद रहकर अपना जीवन नहीं बिताना चाहता
आपका जीवन तभी सफल हो सकता है जब आपका निश्चित लक्ष्य हो और आप उनके लिए पूरी तरह से समर्पित हो।
आलोचना और आजाद सोच एक क्रान्तिकारी के दो अनिवार्य गुण हैं
वो मुझे मार सकते हैं, लेकिन मेरे विचारों को नहीं मार सकते।’
भगत सिंह पर कई फिल्में भी बनीं और बननी भी चाहिए। ‘रंग दे बसंती’ जैसी फिल्में जीवन का मकसद समझाती हैं, लेकिन जीवन की आपाधापी में यह मकसद फिर कहीं खो जाता है। इसलिए शहीदों की शहादत से देश, खासकर युवा पीढ़ी को रूबरू कराने के लिए एक मेकेनिज्म की ज़रूरत है। शहीदों के सपनों का भारत तभी आकार लेगा, जब देश का भविष्य कही जाने वाली युवा पीढ़ी को उसकी समझ होगी। यह अफसोस किन्तु सत्य है कि क्रांति के जनक, आजादी के स्तंभकारों के बारे में ज्यादा बातें नहीं होतीं। होती भी हैं, तो उन्हें समझने वाले बेहद कम होते हैं। आज की पीढ़ी में से कितने लोगों के नाम भगत होंगे? आज भगत सिंह की चाहत भले ही जीवित है, लेकिन इस चाहत को दूसरों को आंगन में फलते-फूलते देखना लोग ज्यादा पसंद करते हैं। वाकई ये हम सब के लिए शर्मिंदा होने की बात है कि फिल्मी हीरो के नाम पर अपने बच्चों का नाम रखने को आतुर लोग भगत सिंह की क्रांति की कामना दूसरे के घर से करते हैं।
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भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु महज नाम नहीं हैं। आज जिस खुली हवा में हम सांस ले रहे हैं, उसकी वजहें हैं। उनका यश, कीर्ति, पराक्रम और बलिदान हम सभी को बार-बार याद दिलाया जाना चाहिए।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)