भारत में तलाक को लेकर कानून बनाया गया है, जिसमें पति-पत्नी के बीच तलाक होने के बाद इस कानून के तहत ही आगे की प्रक्रिया की जाती है। इसके जरिए महिला को एलिमनी यानी गुजारा भत्ता भी दिए जाने का प्रावधान है। तलाक के बाद पत्नी को कितना गुजारा भत्ता दिया जाना चाहिए, इसका फैसला कोर्ट करता है। सुप्रीम कोर्ट में 15 अप्रैल को जस्टिस संजय करोल की अगुआई वाली बेंच इस मामले पर सुनवाई करेगी, जिसमें मुस्लिम महिलाओं को तलाक के बाद मिलने वाले गुजारा भत्ते पर फैसला सुनाया जाएगा।
आज होगा फैसला
पारिवारिक न्यायालय मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम 1939 के अनुसार किसी मुस्लिम महिला को उसका तलाक होने पर स्थायी गुजारा भत्ता दिया जा सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर फैसला देने में मदद के लिए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और सीनियर काउंसिल सिद्धार्थ दवे को न्यायमित्र नियुक्त किया गया है। जस्टिस संजय करोल और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की बेंच मामले की सुनवाई 15 अप्रैल यानी आज करने वाली है। इस दौरान यह भी फैसला लिया जाएगा कि क्या महिला की दूसरी शादी पर इस स्थायी गुजारा भत्ते में संशोधन किया जा सकता है?
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क्या कहता है 1986 का कानून?
मुस्लिम महिलाएं तलाक के बाद कुछ महीनों की इद्दत पूरी करती हैं। मुस्लिम महिलाएं (तलाक के बाद अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत इद्दत के दौरान के भरण-पोषण पाने की हकदार होती हैं। वहीं, ऐसी महिलाएं, जो तलाक के बाद शादी नहीं करती हैं और खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ रहती हैं, तो उन्हें इद्दत के बाद भी भरण-पोषण पाने का हक है।
गुजरात हाई कोर्ट ने एक फैमिली कोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए यह निष्कर्ष दिया कि 1939 के कानून से पहले मुस्लिम महिलाओं के पास अपने पति से तलाक लेने का कानूनी अधिकार नहीं था। उनको तब तक तलाक नहीं मिलता था, जब तक पति खुद से तलाक न दे। 1939 के कानून ने पहली बार महिलाओं को अदालत में तलाक के लिए आवेदन करने का कानूनी अधिकार दिया। अगर महिला 1939 के कानून के तहत अदालत के जरिए तलाक लेती है, तो उसे 1986 के कानून की धारा 3 के तहत उचित और न्यायसंगत प्रावधान का अधिकार दिया जाता है।
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