How women become strong vote bank in Indian democracy: मैं हूं अनुराधा प्रसाद। 26 अगस्त की तारीख पूरी दुनिया की महिलाओं के लिए खास मायने रखती है। इस तारीख को महिला समानता दिवस के तौर पर मनाया जाता है। हर साल की तरह ही इस साल भी महिलाओं के हक और बराबरी की बातें दुनिया के हर हिस्से में सुनाई दी। वैसे तो भारतीय सनातन परंपरा में नारी और पुरुष दोनों को बराबर माना गया है। सृष्टि के संचालन में दोनों की बराबर की भूमिका मानी गई है। भगवान शिव का एक रूप अर्धनारीश्वर भी है, यानी आधी स्त्री और आधा पुरुष का। लेकिन, आधुनिक समय में महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई करीब 170 साल पहले शुरू हुई, जिसमें शादी के बाद महिला के लिए संपत्ति में हक के लिए आंदोलन शुरू हुआ। वक्त के साथ महिलाओं के लिए वोटिंग के अधिकार की मांग ने जोर पकड़ी। अमेरिका में 1920 में महिलाओं को वोटिंग का अधिकार मिला। लेकिन, आज मैं न तो पश्चिमी देशों में महिलाओं के अधिकारों के हुई लंबी लड़ाई का जिक्र करूंगी न मैं प्राचीन भारत में महिलाओं को हासिल सम्मान की बात करूंगी।
आज मैं आपको बताने की कोशिश करूंगी की मौजूदा राजनीति किस तरह से महिलाओं को एक बड़ी वोट शक्ति के रूप में देख रही है। महिलाएं स्वतंत्र रूप से फैसला लेकर किस तरह से भारतीय लोकतंत्र में सत्ता परिवर्तन की कहानियां तैयार करने में अहम किरदार निभा रही हैं? किस तरह से पॉलिटिकल पार्टियां महिला वोटरों को साधने के लिए नए-नए दांव आजमा रही हैं? अबकी बार मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना में महिला वोटरों के दम पर सत्ता में बने रहने और वापसी के लिए किस तरह के फार्मूले आजमाए जा रहे हैं। संसद और विधानसभाओं में वो दिन कब आएगा, जब पुरुष-महिला संख्या में बराबर दिखेंगे। ऐसे सभी सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे– अपने स्पेशल महिला…एक राजनीतिक शक्ति में।
महिलाओं के जीवन में कब आया बदलाव?
भारत के सामान्य मिडिल क्लास की महिलाओं और बेटियों की जिंदगी में सही मायनों में बदलाव की शुरुआत कब और कैसे हुई? उनकी सोच को नया आकार मिलना कब से शुरू हुआ? क्या ये सवाल कभी आपके जेहन में आया है। एक पत्रकार के रूप में जब भी मैं इस सवाल पर मंथन करती हूं। लोअर मिडिल क्लास परिवार से ऊंचे ख्वाब लिए दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में संघर्ष करने वाली लड़कियों से पूछती हूं तो जवाब आता है टेलीविजन ने उनके मम्मी-पापा की सोच में बदलाव किया। टीवी चैनलों पर प्रसारित न्यूज़ और दूसरे कार्यक्रमों की वजह से उनके मम्मी-पापा ने समाज की जकड़न को तोड़ने हुए उन्हें बाहर भेज कर पढ़ाया-लिखाया और आंखों में पल रहे सपनों को पूरा करने लिए आजादी दी। ये Indian Democracy को भीतर एक नया क्लास यानी वर्ग है।
इसी तरह, जब आप किसी हाउसिंग सोसाइटी की गेट पर दोपहर के समय स्कूल से लौटने वाले बच्चों की मम्मी की बातें सुनेंगे–तो थोड़ी हैरानी होगी। ज्यादा ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट होने के बाद भी घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियां निभाने में पूरी तरह से व्यस्त हैं। आशा और निराशा के बीच देश, काल और राजनीति पर खुलकर चर्चा करती हैं, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उनके परिवार के दूसरे सदस्यों की राजनीतिक पसंद या नापसंद क्या है? वो किस आधार पर अपने जनप्रतिनिधि का चुनाव करते हैं। लेकिन, आज की तारीख में ज्यादातर महिलाएं अपनी वोट की ताकत का इस्तेमाल बिल्कुल स्वतंत्र होकर कर रही हैं । ऐसे में पिछले कुछ वर्षों में ज्यादातर पॉलिटिकल पार्टियां महिलाओं को एक अलग मजबूत और टिकाऊ वोट बैंक के तौर पर देखने लगी हैं। सबसे पहले बात करते हैं कि नवंबर में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में महिला वोटरों को साधने के लिए किस तरह की तैयारियां चल रही हैं।
बीजेपी और कांग्रेस का फोकस महिला वोट बैंक पर
एमपी और छत्तीसगढ़ में बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही आधी आबादी पर फुल फोकस कर रही हैं। एमपी में शिवराज सरकार की लाड़ली बहना योजना का फायदा चुनावों में बीजेपी को मिलने की भविष्यवाणी भी पॉलिटिकल पंडित कर रहे हैं। एक सच ये भी है कि राजनीतिक दल महिलाओं को एक बड़े वोट बैंक की तरह तो देख रहे हैं। लेकिन, चुनावों में महिलाओं को टिकट देने से पहले बहुत हिसाब लगाते हैं। एमपी में करीब 2 करोड़, 62 लाख से ज्यादा महिला वोटर हैं। ये संख्या 2018 के एमपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मिले वोट से बहुत ज्यादा है और कांग्रेस को भी मिले वोट से ज्यादा। मतलब, सिर्फ महिलाओं का एकतरफा वोट किसी को भी सत्ता दिला सकता है और सत्ता से बेदखल कर सकता है। लेकिन, सूबे की 230 सीटों में से बीजेपी ने सिर्फ 23 और कांग्रेस ने 28 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया था। अगर सूबे की राजनीति में किसी बड़ी महिला नेता का नाम पूछ लीजिए तो दिमाग पर बहुत जोर डालना पड़ेगा।
बीजेपी संघर्ष के दिनों में एमपी में विजयाराजे सिंधिया और बाद में उमा भारती जैसी कद्दावर नेता लोगों के दिलों-दिमाग पर छाई रहीं। कांग्रेस में भी जमुना देवी जैसी लीडर ने राजनीति में ऊंचा मुकाम हासिल किया। लेकिन, 2023 में एमपी हो या छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों में दोनों ही बड़ी पार्टियों में कोई भी महिला चेहरा मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में लोगों को नहीं दिख रहा है। पड़ोसी राज्य राजस्थान में भी नवंबर में चुनाव होना है। वहां भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपनी लोकलुभावन योजनाओं के जरिए महिलाओं के दिल में जगह बनाने में लगे हुए हैं। कभी मुफ्त राशन किट पकड़ा कर, कभी मुफ्त स्मार्टफोन पकड़ा कर, कभी 500 रुपये यानी सस्ता रसोई सिलिंडर पकड़ा कर, कभी बस किराए में आधी छूट देकर। हिमाचल प्रदेश से लेकर कर्नाटक तक कांग्रेस रणनीतिकार देख चुके हैं कि महिला वोटर कैसे सत्ता समीकरण बदलने में बाजीगर की भूमिका में हैं।
कांग्रेस ने किया अपनी रणनीति में बदलाव
उत्तर से दक्षिण तक महिलाओं को एक मजबूत वोट बैंक के रूप में देखने की राजनीतिक संस्कृति मजबूत हुई है। यही वजह है कि जिस तमिलनाडु में करीब 65 साल पहले सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में मुफ्त भोजन की शुरुआत हुई। वो धीरे-धीरे पूरे देश में फ्रीबीज के रूप में बरगद जैसी बन चुकी हैं। सरकारें मुफ्त की योजनाओं के जरिए खासतौर से महिलाओं का वोट साधने की कोशिश कर रही हैं। 25 अगस्त को भी तमिलनाडु में एक योजना शुरू हुई, इसे नाम दिया गया है। मुख्यमंत्री प्रात:कालीन भोजन योजना। दलील दी जा रही है कि इस योजना का मकसद ये सुनिश्चित करना है कि छात्र-छात्राएं खाली पेट स्कूल न जाए और कामकाजी माताओं का बोझ कम किया जा सके। अब थोड़ा फ्लैशबैक में चलते हैं। पिछले साल यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने अपनी रणनीति में बड़ा बदला किया और महिला वोटरों पर खासतौर से फोकस किया गया। प्रियंका गांधी की इस रणनीति के तहत महिलाओं को 40 फीसदी टिकट दिए गए। पंजाब विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस ने महिलाओं पर खास तौर से फोकस किया। भले ही यूपी और पंजाब चुनाव में कांग्रेस को कामयाबी नहीं मिली लेकिन, दूसरी पार्टियों को भी कांग्रेस ने महिलाओं के मुद्दों पर खास तवज्जो देने के लिए मजबूर कर दिया।
महिलाएं सोच समझकर करती हैं वोट
महिलाएं बहुत सोच-समझकर अपनी वोट की ताकत का इस्तेमाल कर रही हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि महिलाओं के वोट का बड़ा हिस्सा उस राजनीतिक पार्टी के खाते में ज्यादा जा रहा है, जो उनकी रोजमर्रा की मुश्किलों को कम करने में मददगार की भूमिका में है। Centre for the Study of Developing Societies यानी CSDS की स्टडी के मुताबिक, 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान यूपी में बीजेपी को 49 फीसदी वोट मिले, जिसमें से महिला वोटरों की तादाद 51 फीसदी थी। पिछले कुछ वर्षों में चुनाव को दौरान महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत तेजी से बढ़ा है जो अब पुरूषों के बराबर आ चुका है। साल 1962 में पुरुष वोटरों का Turnout 63.3% था तो महिलाओं का 46.6 फीसदी। मतलब, पुरुष और महिला वोटरों के बीच गैप 16.7 फीसदी का था। ये अंतर 1991 में घटकर 10.2 फीसदी पर आ गया और 2019 में ये अंतर 0.4 % पर आ चुका है। दुनिया के सबसे बुलंद लोकतंत्र के लिए इसे शुभ संकेत के तौर पर देखा जा सकता है।
लेकिन, ये भी एक विचित्र विडंबना है कि आजादी के अमृत काल में भी संसद में महिलाओं का प्रतिधित्व बहुत कम है। 542 सदस्यों वाली लोकसभा में 78 महिलाएं हैं और 224 सदस्यों वाली राज्यसभा में 24 महिलाएं हैं। इसी तरह प्रधानमंत्री मोदी के 77 सदस्यों वाले मंत्री परिषद में सिर्फ 11 महिलाओं को जगह मिली हैं, जिसमें सिर्फ दो कैबिनेट मंत्री हैं। ऐसे में ये समझना भी जरूरी है कि जो राजनीति महिलाओं को एक मजबूत वोट बैंक की तरह देखती है, वो चुनावों में टिकट बांटते समय महिलाओं को बराबरी का हक देने से क्यों बचती है?
महिला वोटरों को लुभाने की हर कोई कर रहा जुगत
नेता हमेशा वही सफल होता है, जो वक्त से आगे की सोच रखता हो और बड़ी चतुराई से लोगों के दिल में जगह बनाने में माहिर होता है। भारतीय लोकतंत्र और यहां की चुनावी राजनीति उस दौर से बहुत आगे निकल चुकी है, जिसमें महिलाओं की पहचान किसी की पत्नी, किसी की बेटी, किसी की बहू, किसी की मां के रूप में होती थी। उनका वोट उसी को जाता है, जहां परिवार के पुरुष चाहते थे। राजनीति का वो दौर भी धीरे-धीरे किनारे लगता जा रहा है, जिसमें जातीय गोलबंदी ड्राइविंग सीट पर हुआ करती थी। जातीय गोलबंदी के जरिए 30 से 40 फीसदी वोटों का समीकरण बैठाने की जुगत होती थी। लेकिन, महिला वोटरों ने जिस तरह से खुलकर अपनी राजनीतिक पसंद और नापसंद का इजहार EVM का बटन दबाकर करना शुरू किया है, उसमें पॉलिटिकल पार्टियों को बड़ी संभावना दिख रही है। ऐसे में महिला वोटरों को लुभाने के लिए हर महीने कैश मदद से स्मार्टफोन देने तक जैसी योजनाएं तो तूफानी रफ्तार से चलाई जा रही हैं। लेकिन, संसद और विधानसभाओं में उन्हें बराबरी का हक दिए जाने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
स्क्रिप्ट और रिसर्च: विजय शंकर
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