Bharat Ek Soch : कुछ समय पहले की बात है कि सुप्रीम कोर्ट के बाहर एक तस्वीर दिखी। एक व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट की मुख्य बिल्डिंग के सामने खड़ा आंखें बंद कर हाथ जोड़े प्रार्थना कर रहा था, कुछ दूरी पर ही उसने अपनी चप्पल उतार रखी थी। वो शख्स ऐसे खड़ा होकर प्रार्थना कर रहा था, जैसे कोई भक्त किसी मंदिर के द्वार पर खड़ा होता है, जिसकी आखिरी उम्मीद मंदिर के भीतर विराजमान देवता होते हैं। दरअसल, उस व्यक्ति से जुड़े किसी मामले की सुनवाई अदालत में होनी थी। दुनिया के सबसे बड़े और मुखर लोकतंत्र में आम आदमी को सबसे अधिक भरोसा देश की अदालतों पर है। उनमें बैठकर फैसला सुनाने वाले जजों पर हैं। हमारी न्यायपालिका में समय-समय पर भ्रष्टाचार का मुद्दा उठता रहा है, लेकिन दिल्ली में जस्टिस यशवंत वर्मा के घर मिले नोटों के ढेर के बाद से कई तरह के सवाल खड़े हो गए हैं। खुद देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ पूछ रहे हैं कि अगर कोई ऐसा अपराध हुआ है, जो लोकतंत्र और कानून के शासन की नींव को हिला देता है, तो उसे दंड क्यों नहीं मिला? चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बीआर गवई का कहना है कि न्यायपालिका को सिर्फ इंसाफ नहीं करना चाहिए, बल्कि ऐसा दिखना भी चाहिए कि न्यायपालिका सच के साथ खड़ी है। ज्यूडिशियरी, जज और उनकी भूमिका को लेकर पूरे देश में चर्चा चल रही है। 21 जुलाई से शुरू होने वाले मानसून सत्र में सबसे अधिक चर्चा जिस मुद्दे पर होने की संभावना है- वो है न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की, जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग की।
दरअसल, इसी साल 14 मार्च को होली थी, पूरा देश होली के रंग में रंगा था। इसी तारीख को रात करीब 11.30 बजे दिल्ली के लुटियन जोन के एक बंगले में आग लगी। पता था 30 तुगलक रोड। ये सरकारी आवास जस्टिस यशवंत वर्मा का था। आग बुझाने पहुंचे फायरकर्मियों को बोरों में भरे नोटों के जले बंडल दिखे। नोटों के जले बंडल की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हो गईं। सवाल पूछा जाने लगा कि किसके नोट, कहां से आए नोट? विवाद बढ़ने के बाद जस्टिस वर्मा का इलाहाबाद हाईकोर्ट ट्रांसफर कर दिया गया। ऐसे में सवाल उठता है कि जब कानून की नजरों में सभी समान हैं तो फिर किसी आम आदमी, सरकारी बाबू या नेता के घर बोरों में नोट की गड्डियां मिली होतीं तो उसके साथ पुलिस किस तरह का सुलूक करती? जजों के खिलाफ FIR क्यों नहीं दर्ज होती? क्या न्यायपालिका में ऐसा सिस्टम नहीं होना चाहिए, जिससे गंभीर आरोपों के बाद जज खुद नैतिक रूप से जांच पूरी होने तक अलग हो जाएं, अपने पद से इस्तीफा दें। आखिर एक जस्टिस को हटाने के लिए महाभियोग लाने की जरूरत क्यों पड़ती है? अब तक हमारे देश में जजों के खिलाफ लाए गए महाभियोग प्रस्तावों का नतीजा क्या निकला है? जजों की नियुक्ति का कॉलेजियम सिस्टम भी क्यों सवालों के घेरे में हैं? भ्रष्टाचार और परिवारवाद के आरोपों के बीच कैसे पारदर्शी होगी देश की न्याय व्यवस्था?
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न्यायपालिका के भीतर मौजूद भ्रष्टतंत्र के खिलाफ कहां आवाज उठाएंगे?
अगर आपका किसी से झगड़ा हो जाए, अन्याय हो रहा हो तो कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं। अगर कोई अफसर काम नहीं कर रहा है तो भी अदालत का दरवाजा खुला है। विधायक, सांसद, मंत्री के खिलाफ भी लोग कोर्ट पहुंचते हैं। लेकिन, अगर वर्षों से आपका कोई केस अदालत में लटका पड़ा है तो कहां जाएंगे? न्यायपालिका के भीतर मौजूद भ्रष्टतंत्र के खिलाफ कहां आवाज उठाएंगे? उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के मेंबर्स से बातचीत के दौरान कहा कि तीन महीने से अधिक समय बीत चुका है और अब तक जांच की शुरुआत भी नहीं हुई। जब आप कोर्ट जाते हैं तो वे पूछते हैं FIR में देरी क्यों हुई? दरअसल, उप-राष्ट्रपति धनखड़ बिना नाम लिए जस्टिस यशवंत वर्मा कैश कांड का जिक्र कर रहे थे, शायद वो बताने की कोशिश कर रहे थे कि ज्यूडिशियरी के सामने सरकार कितनी लाचार है।
कैश कांड में शुरुआती कार्रवाई क्यों नहीं हुई?
उप-राष्ट्रपति पूछ रहे हैं कि कैश कांड सामने आने और सुप्रीम कोर्ट की आंतरिक जांच रिपोर्ट आने के बाद भी शुरुआती कार्रवाई क्यों नहीं हुई? क्या ये हमारी ज्यूडिशियल सिस्टम के भीतर कभी है या फिर राजनीतिज्ञ इस मुद्दे को जरूरत से ज्यादा तूल दे रहे हैं। हमारे संविधान में किस सोच के साथ सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों को हटाने की प्रक्रिया को बहुत मुश्किल बनाया गया, उसके पीछे संविधान निर्माताओं की सोच क्या रही? दरअसल, सुप्रीम कोर्ट के किसी जज के खिलाफ महाभियोग चलाने की प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 124(4) में दी गई। वहीं, संविधान का अनुच्छेद 218 कहता है कि यह प्रावधान हाईकोर्ट के जज पर भी लागू होते हैं। न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए महाभियोग की आधार प्रक्रिया का स्तर बहुत ऊंचा रखा गया है, जिससे न्यायमूर्ति बिना किसी दबाव और प्रभाव के संविधान की भावना के मुताबिक फैसला सुना सकें। लेकिन, कोई व्यवस्था पूरी तरह मुकम्मल नहीं होती। कमियों का फायदा उठाने की कोशिश कुछ स्वार्थी लोग करते रहते हैं। आखिर गंभीर आरोप लगने के तुरंत बाद किसी सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के जस्टिस के खिलाफ केस क्यों नहीं दर्ज होता है? संसद में मानसून सत्र में कैश कांड में फंसे जस्टिस यशवंत वर्मा को हटाने के लिए महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी में है। अब बड़ा सवाल ये है कि क्या सरकार जस्टिस वर्मा को महाभियोग लाकर हटा पाएगी?
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जानें कानून के जानकारों ने क्या दीं दलीलें?
कानून के जानकार दलील देते हैं कि आम आदमी और जज के लिए एक प्रक्रिया नहीं हो सकती है। क्योंकि, जज को समाज के ताकतवर लोगों के खिलाफ फैसला देना होता है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए कुछ गेटकीपर्स की जरूरी है। ऐसे में सवाल उठता है कि न्यायपालिका ने अपने भीतर ऐसा मजबूत तंत्र क्यों नहीं तैयार किया, जिससे गंभीर आरोपों के बाद जजों को खुद ही हटा सके या कार्रवाई की जा सके। अमेरिका और ब्रिटेन में भी सुप्रीम कोर्ट के जजों को हटाने के लिए महाभियोग की प्रक्रिया अपनाई जाती है, जो बहुत मुश्किल है। ऐसे में जजों को स्वतंत्र होकर फैसला सुनाने के लिए एक तरह से महाभियोग का सुरक्षा कवच दिया गया है, जिसे भेदना मुश्किल रहा है। भारतीय परंपरा में न्याय किसी राज्य की शाखा नहीं, नैतिक रीढ़ हुआ करता था। राजा सिर्फ कार्यपालिका नहीं बल्कि न्यायदाता भी था। जब राजा खुद न्याय देने का काम नहीं कर पाता था तो अपने प्रतिनिधि के तौर पर न्यायाधीश नियुक्त करने लगा। न्यायाधीश के तौर पर ऐसे व्यक्ति चुने जाते थे, जिसके चरित्र, संयम और विद्वता पर किसी को संदेश न हो। ऐसे 4-5 जजों की कमेटी लोगों को न्याय देने का काम करती थी। मौजूदा समय में हमारे देश में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति कॉलेजियम सिस्टम से होती है। इस सिस्टम को भाई-भतीजावाद बढ़ाने वाला माना जाता है। संविधान का अनुच्छेद 124 (2) सुप्रीम कोर्ट और अनुच्छेद 217 हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति से जुड़ा है। संविधान में कॉलेजियम शब्द का जिक्र नहीं है, लेकिन ये परंपरा हमारी व्यवस्था का हिस्सा बनी हुई है, जो सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जस्टिस की नियुक्ति से लेकर ट्रांसफर तक में बड़ी भूमिका निभाती है। इसे जजों की नियुक्ति के मामले में न्यायपालिका और सरकार के बीच पुल की तरह भी देखा जा सकता है।
कॉलेजियम व्यवस्था में नियुक्ति से लेकर ट्रांसफर तक होता है
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बीआर गवई भी न्यायपालिका में नियुक्ति के कॉलेजियम सिस्टम में खामियों की बात कुबूल करते हैं, लेकिन वो जजों को बाहरी दबाव से मुक्त रखने की बात करते हैं। अक्सर दलील दी जाती है कि कॉलेजियम व्यवस्था में कोई ठोस मैकेनिज्म नहीं है, ये बंद कमरे में होने वाली ऐसी व्यवस्था बन चुकी है, जिसके फैसलों की जानकारी सरकार के पास सिफारिश की शक्ल में पहुंचने के बाद सामने आती है। अगर कॉलेजियम ने कुछ नामों पर मुहर लगाकर सरकार के पास नियुक्ति के लिए सिफारिश बढ़ा दी तो ये जरूरी नहीं कि सरकार कॉलेजियम की ओर से सिफारिश नामों पर हरी झंडी दिखा दे, लाल झंडी दिखाने का अधिकार सरकार के पास है। हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति भी कॉलेजियम सिस्टम से ही होती है। हाईकोर्ट जजों के ट्रांसफर में भी यही व्यवस्था काम करती है। ऐसे में जजों की नियुक्ति में देरी का ठीकरा कभी कॉलेजियम के सिर फोड़ा जाता है तो कभी सरकार के सिर। कॉलेजियम में पारदर्शिता की कमी और भाई-भतीजावाद के आरोपों के बीच जजों की नियुक्ति प्रक्रिया की कमियों को दुरुस्त करने के लिए साल 2014 में मोदी सरकार संविधान संशोधन के जरिए एक नया कानून लेकर आई, नाम दिया गया नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन एक्ट। इस कानून के तहत जजों की नियुक्ति के लिए एक 6 सदस्यीय आयोग बनना था। जब ये कानून लागू हुआ तो इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। संविधान पीठ ने इस कानून को खारिज कर दिया। कहा गया कि न्यायिक प्रशासन संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है, इसे संसद के कानून से नहीं बदला जा सकता है।
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न्यायपालिका में तीन फॉल्टलाइनों पर ध्यान देने की जरूरत
कानून के जानकारों का एक वर्ग मानता है कि न्यायपालिका की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया में सरकार की भूमिका न के बराबर हो। ऐसे में एक सवाल ये भी उठता है कि ज्यूडिशियरी के भीतर से ऐसा मजबूत तंत्र क्यों नहीं निकल कर सामने आता है, जो अंदरुनी भ्रष्टाचार के मामलों को खुद निपटाए। रिटायरमेंट के बाद अपना Cooling Period खुद जजों की ओर से तय किया जाए, स्वयं जजों की से अपनी संपत्ति सार्वजनिक की जाए। खुद, चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बीआर गवई भी मानते हैं कि रिटायरमेंट के बाद लेने से जनता का न्यायपालिका में भरोसा कम होता है। ऐसे में हमारी न्यायपालिका के भीतर से गुजर रही तीन फॉल्टलाइनों पर खासतौर से ध्यान देने की जरूरत है। एक, निचली अदालतों से लेकर ऊपर तक भ्रष्टाचार पूरी तरह खत्म करने का फूलप्रूफ मैकेनिज्म। दूसरा, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति का ऐसा मैकेनिज्म, जिससे अधिक से अधिक काबिल, ईमानदार और चरित्रवान लोगों को जगह मिल सके। ऐसे लोगों की नहीं जो जज की कुर्सी पर रहते ही अपने Post Retirement प्लान पर सोचते रहते हैं। तीसरा, देश की अदालतों में लंबित 4.59 करोड़ मुकदमों के जल्द निपटना के लिए रास्ता निकालना। हमारे देश की न्यायपालिका को अपने भीतर की कमियों पर खुद आत्ममंथन करना चाहिए। इससे पहले की उन कमियों को दुरुस्त करने की कोशिश बाहर से हो, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और साख पर बट्टा लगे, उससे पहले ही न्यायपालिका के भीतर से बदलाव की शुरुआत होनी चाहिए। क्योंकि, स्मार्ट फोन, सोशल मीडिया और हाई स्पीड इंटरनेट के दौर में लोगों की सोच तेजी से बदली है। लोग हर संस्थान के बारे में राय उनके कामकाज के तौर-तरीकों से रखते हैं। जिस तरह स्मार्ट फोन पर एक टच के साथ पलक झपकते ही बहुत से काम हो जाते हैं, उसी तरह अदालतों से भी फटाफट न्याय मिलने की उम्मीद आम आदमी कर रहा है।