Bharat Ek Soch : दुनिया के ज्यादातर देश एक शख्स की तुनकमिजाजी, जुनून और तौर-तरीकों से परेशान हैं। इस बात की भविष्यवाणी करना मुश्किल है कि वो कब और क्या फैसला लेगा? वो कब अपने फैसलों से पलट जाएगा? किससे गलबहियां करेगा और किसे दुश्मन नंबर वन बताने लगेगा, ये कहना भी बहुत मुश्किल है। यहां बात हो रही है अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की। दूसरी पारी में राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद शायद उनके मुंह से सबसे अधिक निकलने वाला शब्द है- टैरिफ। वो रेसिप्रोकल टैरिफ की बात करते हैं यानी जो देश अमेरिका से जितना टैक्स वसूलेगा, उससे उतना ही टैक्स वसूला जाएगा। दुनियाभर के शेयर बाजार ट्रंप के टैरिफ टैक्टिस का साइड इफेक्ट महसूस कर चुके हैं।
फिलहाल, दुनिया के 75 से अधिक देशों पर टैरिफ अमल को प्रेसिडेंट ट्रंप ने 90 दिनों के लिए रोक दिया है। लेकिन, चाइना को लेकर उनका रुख बहुत सख्त बना हुआ है, वो चीन पर लगातार टैरिफ बढ़ा रहे हैं, जो अब 145 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। टैरिफ वार दुनिया की नंबर वन यानी अमेरिका और नंबर टू यानी चाइनीज इकोनॉमी के बीच है। दोनों में से कोई भी पीछे कदम हटाने को तैयार नहीं है। ऐसे में सवाल उठता है कि ट्रंप अगले चार साल तक दुनिया में और कितनी उथल-पुथल मचाएंगे? आखिर वो अमेरिका को कहां ले जाना चाहते हैं? Make America Great Again एजेंडा को आगे बढ़ाते हुए ट्रंप अपने मुल्क को आबाद करेंगे या बर्बाद? अमेरिका-चाइना के बीच ट्रेड वार में ज्यादा नुकसान किसका होगा? क्या टैरिफ डिप्लोमेसी से प्रेसिडेंट ट्रंप चाइना को अलग-थलग कर पाएंगे? आखिर ट्रंप की बात क्यों मानेंगे दुनिया के ज्यादातर देश? ट्रंप आंधी भारत के लिए एक मौका है या मुसीबत?
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इस फॉर्मूले पर आगे बढ़ रहे ट्रंप
प्रेसिडेंट ट्रंप My way or Highway यानी मेरी बात मानो नहीं तो अपना रास्ता नापो वाली फॉर्मूले पर आगे बढ़ रहे हैं। वो जिस तरह से फैसला ले रहे हैं और अपने फैसलों को पलट रहे हैं, उससे सबसे अधिक डेंट सुपर पावर अमेरिका की साख पर लगा है। दुनिया के ज्यादातर देशों के प्रमुख और तेज-तर्रार कूटनीतिज्ञ जरूर हिसाब लगा रहे होंगे कि प्रेसिडेंट ट्रंप के फैसलों को कितनी गंभीरता से लेना चाहिए? दुनिया की GDP में अमेरिका और चीन की हिस्सेदारी करीब 44 फीसदी है। ऐसे में इन दोनों आर्थिक महाशक्तियों के बीच ट्रेड वार का पूरी दुनिया में सीधा असर पड़ना तय है, जिसका ट्रेलर दिख भी रहा है। आखिर ट्रंप को क्यों लगता है कि चीन के साथ डील में उनके अमेरिका को नुकसान हो रहा है। पिछले साल चीन और अमेरिका के बीच कुल कारोबार रहा करीब 585 अरब डॉलर का, जिसमें अमेरिका ने चीन से 440 अरब डॉलर का माल मंगवाया। वहीं, चाइना ने अमेरिका से सिर्फ 145 अरब डॉलर की खरीदारी की। मतलब, चाइना ने अमेरिका को तीन गुना अधिक माल बेचा। अब इस तस्वीर को ट्रंप बदलना चाहते हैं। उनको लगता है कि चीन या दूसरे देशों से सामान मंगाने की जरूरत क्या है? चाइना की तरह अमेरिका में मैन्युफैक्चरिंग क्यों नहीं हो सकती है? दरअसल, ट्रंप चाहते हैं कि चाइना नहीं अमेरिका को दुनिया की फैक्ट्री के नाम से जाना जाए?
ट्रंप को शायद अंदाजा नहीं है कि चीन-यूएस में क्या अंतर है?
डोनाल्ड ट्रंप को शायद अंदाजा नहीं है कि चाइना और अमेरिका बहुत में अंतर है। अमेरिका एक उदार लोकतंत्र है, जहां कई तरह के नियम-कायदे हैं। अमेरिका के लोग रिसर्च और इनोवेशन में तो बहुत आगे रहे हैं। लेकिन, फैक्ट्रियों के लिए अनुशासित और सस्ता लेबर फोर्स तैयार करने में चाइना को महारत हासिल है। यही वजह है कि जब कम्युनिस्ट चाइना ने अपनी इकोनॉमी में उदारीकरण का इंजन जोड़ा तो विदेशी कंपनियों को चाइना में अपने लिए बेहतर संभावना दिखी, देशी-विदेशी कंपनियों ने चाइना की जमीन पर कारखाने खड़े किए तो बीजिंग में बैठे हुक्मरानों ने अपने यहां बनने वाले सस्ते सामानों को पूरी दुनिया में बेचने का रास्ता आसान किया। नतीजा ये रहा कि कुछ वर्षों में ही सस्ते चाइनीज प्रोडक्ट का दुनियाभर में डंका बजने लगा। पूरी दुनिया में चाइनीज प्रोडक्ट का डंका बज रहा है।
100 में से 75 मेरिकियों के हाथों में मेड इन चाइना स्मार्टफोन
आज हालात ये है कि हर 100 अमेरिकियों में से 75 के हाथों में मेड इन चाइना स्मार्टफोन दिख जाएगा। चीन में बने लैपटॉप की भी अमेरिका में बहुत डिमांड है। ऐसे में प्रेसिडेंट ट्रंप की पागलपंती के सबसे बड़े भुक्तभोगी तो खुद अमेरिकन होंगे। उन्हें हर मेड इन चाइनीज स्मार्टफोन, लैपटॉप या दूसरी चीजों के लिए डबल से अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी। ट्रंप अमेरिका को दुनिया की फैक्ट्री बनाने का ख्वाब संजोए हुए हैं। शायद वो नहीं जानते कि अमेरिकी लोग चीन के लोगों की तुलना में अधिक आराम पसंद हैं। अमेरिकियों को घंटे के हिसाब से मोटी सैलरी देनी पड़ती है। चीन की आबादी एक अरब चालीस करोड़ है तो अमेरिका की आबादी 34 करोड़ के आसपास है। ऐसे में अमेरिका को अपनी फैक्ट्रियां चलाने के लिए अधिक से अधिक वर्कफोर्स की जरूरत पड़ेगी, जिसके लिए ट्रंप को दूसरे देशों की ओर देखना पड़ेगा?
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टैरिफ पॉलिसी पर भी ट्रंप प्रशासन में दो फाड़
अमेरिका आज जिन चुनौतियों से जूझ रहा है, वो किसी और की नहीं, अमेरिकी हुक्मरानों द्वारा ही पैदा की गई हैं। चाइना को भी आर्थिक रूप से मजबूत बनाने में अमेरिकी पूंजी और कंपनियों की बड़ी भूमिका रही है। अब ट्रंप जिस रास्ते आगे बढ़ रहे हैं, उसमें अपने कई और फैसले पलटने पड़ सकते हैं। मसलन, डोनाल्ड ट्रंप एक ओर अमेरिका में बाहरियों की एंट्री कम करने के लिए वीजा नियमों को कड़ा बनाने में लगे हैं। अवैध प्रवासियों की धर-पकड़ और वापस भेजने का काम धड़ल्ले जारी है। ऐसे में अमेरिका में मैन्युफैक्चरिंग बढ़ाने के लिए वीजा नियमों पर यू-टर्न लेना भी ट्रंप प्रशासन की मजबूरी होगी। Department of Government Efficiency के प्रमुख और बिजनेस टायकून एलन मस्क ने कमान संभालने के बाद जब सरकारी कर्मचारियों से उनके कामकाज का हिसाब मांगा तो कोहराम मच गया। कई विभागों के कर्मचारियों ने अपने कामकाज के बारे में बताने से इनकार कर दिया। टैरिफ पॉलिसी पर भी ट्रंप प्रशासन में दो फाड़ दिखने लगा है। एलन मस्क भी ट्रंप की टैरिफ पॉलिसी के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं।
दोस्तों को फायदा पहुंचाने का भी लग रहा आरोप
इतना ही नहीं, अमेरिकी बाजारों में उथल-पुथल के बीच अपने दोस्तों को स्टॉक में फायदा पहुंचाने का आरोप ट्रंप पर लग रहा है। डेमोक्रेट सांसदों की मांग है कि ये जांच होनी चाहिए कि ट्रंप, उनका परिवार या करीबी अंदरूनी जानकारी के आधार पर शेयर बाजार में गलत तरीके से फायदा तो नहीं उठा रहे हैं? एक ओर प्रेसिडेंट ट्रंप चाइना पर 145 प्रतिशत टैरिफ जारी रखते हैं, दूसरी ओर 75 से अधिक देशों पर टैरिफ पर अमल 90 दिनों के लिए टाल देते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ट्रंप एक ऐसी नई वैश्विक आर्थिक व्यवस्था बनाना चाहते हैं, जिसमें चीन अलग-थलग हो जाए? आखिर, दुनिया के दूसरे छोटे-बड़े देश अमेरिका की बात क्यों मांगेंगे? सिंगापुर जैसे आकार में छोटे देश के प्रधानमंत्री लॉरेंस वोंग का कहना है कि अमेरिका की टैरिफ पॉलिसी वैश्विक व्यापार व्यवस्था में सुधार नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की अस्वीकृति है, जिसका अमेरिका ने कभी समर्थन किया था। ऐसे में ट्रंप की टैरिफ पॉलिसी से पैदा हलचल के बीच नए World Economic Order के उभरने के ग्रह-संयोग बनने लगे हैं?
भारत से हाथ मिलाना चाहता है चीन
डोनाल्ड ट्रंप खुद दावा कर चुके हैं कि अमेरिका टैरिफ लगाकर रोजाना 2 बिलियन डॉलर की कमाई कर रहा है। इस हिसाब से साल भर में 730 बिलियन डॉलर की कमाई होगी, लेकिन रोजाना 2 बिलियन डॉलर कमाई के चक्कर में 30 ट्रिलियन की GDP वाले अमेरिका को कितनी कीमत चुकानी पड़ेगी। इसका तो अभी सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। राष्ट्रपति ट्रंप ने भी नहीं सोचा होगा कि उनकी टैरिफ टैक्टिस का चाइना इस तरह से जवाब देगा? चाइना का साफ-साफ कहना है कि झुकने की जगह आखिर तक लड़ेंगे? आज की तारीख में चीन का कहना है कि अमेरिका के खिलाफ बीजिंग और दिल्ली के हाथ को मिलाना चाहिए।
हाल में अमेरिका के एक जाने-माने अर्थशास्त्री Professor Jeffrey Sachs भारत आए थे। एक निजी न्यूज चैनल के कार्यक्रम में बोलते हुए Jeffrey Sachs ने कहा कि अमेरिका भारत का इस्तेमाल चीन के खिलाफ करना चाहता है, भारत के लिए सुझाव है कि अमेरिका के चक्कर में न पड़े। भारत का दायरा अमेरिकी खेल से बहुत बड़ा है। इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था में इंपोर्ट की बड़ी भूमिका है। चीन की अर्थव्यवस्था एक्सपोर्ट के ईंधन से चल रही है। वहीं, भारत की अर्थव्यवस्था में प्रोडक्शन और कंजम्शन दोनों है। ऐसे में ट्रंप आंधी में भी भारत के सामने संभावनाएं भी हैं और चुनौतियां भी।
किस रास्ते आगे बढ़ेगा भारत?
भारत के सामने बड़ा सवाल यही है कि मौजूदा वैश्विक उथल-पुथल के बीच किस रास्ते आगे बढ़े? क्या अमेरिका-चीन के बीच जारी ट्रेड वार के बीच भारत के लिए अवसरों के नए खिड़की-दरवाजे खुल रहे हैं? इसे दो तरह से देखा जा सकता है। पहला, टैरिफ की वजह से चाइनीज सामान अमेरिका में महंगा मिलेगा। ऐसे में भारतीय प्रोडक्ट के सामने कंपटीशन लेबल थोड़ा कम होगा। लेकिन, मैन्युफैक्चरिंग में चाइना की जगह लेने के लिए भारत को अभी बहुत दौड़ लगानी होगी। दूसरा, ट्रंप के टैरिफ से बचने के लिए कंपनियां चीन से भारत का रुख कर सकती है। अब सवाल उठता है कि क्या विदेशी कंपनियों को चाइना जैसी सहूलियतें भारत में भी मिल पाएंगी? पिछले कुछ वर्षों में भारत ने तेजी से स्वदेशी की ओर कदम बढ़ाया है। दुनिया में तनाव के बीच रिश्तों को कैसे संतुलित तरीके से साधा जाता है, इसमें भारत को महारत हासिल है। मसलन, यूक्रेन-रूस युद्ध में भारत ने किसी भी पक्ष का साथ नहीं दिया, लेकिन अपनी जरूरत का सस्ता तेल रूस से खरीदने में हिचक नहीं दिखाई। भारत अच्छी तरह जानता है कि राष्ट्रपति ट्रंप क्या चाहते हैं और चाइना के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के मन में क्या है? दोनों ही Unpredictable हैं। दोनों में से किसी पर भी आंख बंद कर भरोसा नहीं किया जा सकता है।
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ऐसे में दिल्ली डिप्लोमेसी को अमेरिका और चीन दोनों के साथ रिश्ते सतर्कता के साथ आगे बढ़ाना और घरेलू जरूरतों के हिसाब से नए बाजार तलाशते होंगे? प्रेसिडेंट ट्रंप जिस तरह अमेरिका को चला रहे हैं। फैसला ले रहे हैं और अपने ही फैसलों को पलट रहे हैं। उससे सबसे अधिक नुकसान अमेरिका की क्रेडिबिलिटी का हुआ है। अमेरिकी राष्ट्रपति की बात की वैल्यू ही नहीं रह गई है। अपनी पहली पारी में जाते-जाते डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिकी लोकतंत्र की शान में बट्टा लगाया और अब जिस रास्ते आगे बढ़ रहे हैं, उसका नतीजा यही होगा कि दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सैन्य महाशक्ति को कोई गंभीरता से नहीं लेगा? अमेरिका जैसे उदार लोकतंत्र वाले देश के लिए इससे बड़ा नुकसान और क्या हो सकता है?