Bharat Ek Soch : पिछले 25 वर्षों में दुनिया में बहुत तेजी से बदलाव हुए हैं। कामकाज के तौर-तरीकों से लेकर लोगों के रहन-सहन और सामाजिक व्यवहार तक को तकनीक प्रभावित कर रही है। तकनीक के फायदे और नुकसान पर पूरी दुनिया में बहस चल रही है। आज की तारीख में दुनिया में इंटरनेट यूजर्स की संख्या करीब साढ़े पांच अरब है, जिसमें बड़ी संख्या मोबाइल इंटरनेट यूजर्स की है। इंटरनेट का सबसे अधिक इस्तेमाल सोशल मीडिया के जरिए एक-दूसरे से जुड़ने के लिए हो रहा है। इसमें बच्चे भी पीछे नहीं हैं। ज्यादातर स्कूली बच्चे व्हाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम, टेलीग्राम, स्नैपचैट जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सुपर एक्टिव हैं। इससे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, सामाजिक व्यवहार, बोली और सेहत प्रभावित हो रहा है। सोशल मीडिया की वजह से पड़ रहे नकारात्मक प्रभावों को बच्चों के माता-पिता, दादा-दादी ही नहीं… दुनिया के नक्शे पर दिख रहे। कई देशों की सरकारें भी पूरी शिद्दत से महसूस कर रही हैं।
पिछले हफ्ते ऑस्ट्रेलिया ने मुल्क के बच्चों को सोशल मीडिया के नेगेटिव इफेक्ट्स से बचाने के लिए बड़ा कदम उठाने का ऐलान किया। हालांकि, इसकी चर्चा हमारे देश में अधिक नहीं हुई। दरअसल, ऑस्ट्रेलिया सख्त कानून के जरिए 16 साल तक के बच्चों के लिए सोशल मीडिया बैन करने की तैयारी कर चुका है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे देशों ने भी बच्चों के लिए सोशल मीडिया के इस्तेमाल की लक्ष्मण रेखा खींचने की कोशिश की है। लेकिन, अब तक बहुत कामयाबी नहीं मिली। ऐसे में यह जानने की कोशिश करेंगे कि ऑस्ट्रेलिया में 16 साल से कम उम्र के बच्चों को सोशल मीडिया से कैसे दूर किया जाएगा? ये कैसे पता चलेगा कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल 16 साल से कम उम्र का बच्चा नहीं कर रहा है? फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका, चीन जैसे देशों ने अपने मुल्क के बच्चों को सोशल मीडिया के नकारात्मक प्रभावों से बचाने के लिए किस तरह का रास्ता निकाला और उसमें कितनी कामयाबी मिली? ये सिर्फ की ही समस्या नहीं है, ये पूरी दुनिया की समस्या है। जिसके मोहपाश में दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में करोड़ों रुपये के आलीशान बंगलों में रहने वाले पढ़े-लिखे वर्ग के बच्चे भी हैं और एक कमरे में पूरे परिवार के साथ जिंदगी गुजारने वाले बच्चे भी, जहां मुश्किल से दो वक्त चूल्हा जल पाता है। सोशल मीडिया के मोहपाश का बच्चों की मानसिक और शारीरिक सेहत पर किस तरह असर पड़ रहा है और इसे रोकने में कहां दिक्कतें आ रही है?
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सोशल मीडिया ने गरीब-अमीर के बीच की खाई को पाट दिया
ये सोशल मीडिया का मोहपाश ही है- जिसने रील और शॉर्ट्स की दुनिया में सबको बराबरी के लेबल पर खड़ा कर गरीब-अमीर के बीच की खाई को पाट दिया है। ये छह इंच के स्मार्टफोन का कमाल है- जिसमें धनकुबेरों के बच्चे भी अपनी खुशियां तलाश रहे हैं और दो वक्त की रोटी के लिए मुहाल बच्चे भी। अधिकतर स्कूली छात्र-छात्राएं रोजाना अपना घंटों समय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बिता रहे हैं। रोजाना नई तस्वीर पोस्ट करना, हर पोस्ट पर अधिक लाइक हासिल करना। उनके लिए होमवर्क जैसा बनता जा रहा है। उनके स्टेटस सिंबल और क्लास में रौब से जुड़ चुका है। ये स्थिति सिर्फ भारत ही नहीं, दुनिया के ज्यादातर देश ऐसे हालात से निपट रहे हैं। उन्हें अपने मुल्क के बच्चों का भविष्य खतरे में दिख रहा है। हाल में ऑस्ट्रेलिया ने भी इस खतरे को बहुत गंभीरता से महसूस किया। राजनीति में ऐसे मौके बहुत कम आते हैं, जब सत्ता पक्ष और विपक्ष एक सुर में बोलें।
सोशल मीडिया का नकारात्मक प्रभाव बड़ा मुद्दा
सोशल मीडिया का बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव ऑस्ट्रेलिया में कितना बड़ा मुद्दा है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा रहा है कि जब प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीजी ने कहा कि सोशल मीडिया हमारे बच्चों के नुकसान पहुंचा रहा है, इसे रोकने का समय आ चुका है तो विपक्षी दलों के नेता भी उनके सुर में सुर मिलते दिखे। 18 नवंबर से शुरू होने वाले ऑस्ट्रेलियाई संसद सत्र में इससे जुड़ा बिल पेश करने की तैयारी है। एक ऐसा कानून लाने की तैयारी है- जिससे 16 साल से कम उम्र के बच्चे एक्स, टिकटॉक, इंस्टाग्राम और फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर रोजाना घंटों समय खर्च न करें। अपनी जिंदगी के बेहतरीन और कीमती समय का बेहतर इस्तेमाल कर सकें? अब सवाल ये है कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म कैसे तय करेंगे कि यूजर की उम्र 16 साल से ऊपर है? आखिर ऑस्ट्रेलिया ने किन हालात में 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर नो एंट्री का बोर्ड लगाने का फैसला किया?
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जवाबदेही तय करने की उठी मांग
दुनियाभर में सोशल मीडिया कंपनियों की Accountability यानी जवाबदेही बढ़ाने की मांग जोर-शोर से हो रही है। हालांकि, यूरोपीय देशों में बहुत पहले से बच्चों के लिए सोशल मीडिया के इस्तेमाल की लक्ष्मण रेखा खींचने को लेकर बहस चल रही है। फ्रांस अभी स्कूलों में 15 साल तक की उम्र के बच्चों के मोबाइल फोन इस्तेमाल पर रोक का ट्रायल कर रहा है। इसके कामयाब होने पर पूरे देश में लागू करने की तैयारी है। फ्रांस में पहले से एक ऐसा कानून है, जिसके मुताबिक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बिना अभिभावक की इजाजत के 15 साल से कम उम्र के बच्चों रोकें। कुछ इसी तरह अमेरिका में सोशल मीडिया के मोहपाश से बच्चों को बचाने के लिए कानूनी फिल्टर लगाने की कोशिश भी हुई है। लेकिन, उसका खास असर नहीं दिखा। अमेरिका के स्कूल छात्रों के लिए सोशल मीडिया को एक नशा की तरह देखने लगे हैं। माना जा रहा है कि बच्चों का ध्यान भटकाने में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। वहां के कुछ स्कूल भी इस मामले में अदालत का दरवाजा खटखटा चुके हैं।
लॉकडाउन के समय ऑनलाइन की ओर शिफ्ट हुए बच्चे
कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान बच्चों को क्लासरूम से ऑनलाइन पढ़ाई की ओर शिफ्ट होना पड़ा। खेल के मैदान की जगह बच्चों को ऑनलाइन गेम में मनोरंजन खोजना पड़ा। कोरोना खत्म होने के बाद भी बच्चों का स्क्रीन टाइम कम नहीं हुआ। ज्यादातर बच्चे खेलने-कूदने के लिए घर से बाहर नहीं निकलना चाहते हैं। डिजिटल गैजेट ही उनका गुरु, गाइड और दोस्त सब बन चुका है। ऐसे में बच्चों के व्यवहार पर उनके माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी की बोली या संस्कृति से अधिक इंटरनेट की बोली और तौर-तरीका हावी होता जा रहा है। बच्चे ये नहीं समझ पा रहे है कि उन्हें किसके सामने, क्या बोलना है? इंटरनेट से बच्चों को जानकारी तो मिल रही है, लेकिन ज्ञान नहीं। इंटरनेट संस्कृति की वजह से बच्चों के भीतर सामाजिक अनुशासन और सहनशीलता में भी दिनों-दिन गिरावट आ रही है। ऐसे में ज्यादातर बच्चे असली जिंदगी की चुनौतियों से जूझने की जगह वर्चुअल वर्ल्ड में दिख रही तस्वीर और वीडियो जैसी लाइफस्टाइल की ख्वाहिश लिए नई बीमारियों के भंवर जाल में फंसते जा रहे हैं।
बच्चों की आउटडोर एक्टिविटी हुई कम
कुछ रिसर्च के मुताबिक, सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा असर बच्चों की नींद पर पड़ता है, जिससे उनका कॉन्फिडेंस हिल रहा है। खाने-पीने के तौर-तरीकों पर भी असर पड़ रहा है। मतलब, बच्चों की आउटडोर एक्टिविटी कम होने और स्क्रीन में घुसे रहने की वजह से बच्चों का मेंटल हेल्थ बहुत हद तक प्रभावित हो रहा है। पड़ोसी मुल्क चाइना में भी सोशल मीडिया के बच्चों पर नकारात्मक असर को महसूस किया गया। ऐसे में बच्चों की सोशल मीडिया की लत छुड़ाने के लिए पिछले साल वहां की सरकार ने एक गाइडलाइन्स जारी की, जिसके मुताबिक, रात 10 बजे से सुबह 6 बजे के बीच नाबालिगों के लिए मोबाइल इंटरनेट के इस्तेमाल पर रोक है। देशभर में 16 से 18 साल के बीच की उम्र के युवाओं को सिर्फ 2 घंटे इंटरनेट के इस्तेमाल की इजाजत है। 8 साल से 15 साल के बच्चों को एक घंटे इंटरनेट इस्तेमाल की छूट है। वहीं, 8 साल के कम उम्र के बच्चों को सिर्फ 40 मिनट की इजाजत है। जब भी कोई तकनीक आती है तो उसके फायदे भी होते हैं और नुकसान भी। स्मार्ट फोन से अगर जिंदगी आसान हुई है, दुनिया की हर जानकारी उंगलियों के इशारे पर मौजूद है तो दूसरा सच ये भी है कि मोबाइल इंटरनेट रोजाना आपको दुनिया से कनेक्ट करने के नाम पर अपनों के लिए समय कम देने पर मजबूर कर रहा है। घर-परिवार में संवाद की कड़ियां कमजोर हो रही है। खून के रिश्तों में भी भावनात्मक खाई बढ़ती जा रही है। वर्चुअल कनेक्शन जोड़ने के चक्कर में रियल सोशल कनेक्शन का नेटवर्क दिनों-दिन कमजोर होता जा रहा है।
48 करोड़ है सोशल मीडिया यूजर्स की संख्या
एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में सोशल मीडिया यूजर्स की संख्या करीब 48 करोड़ है। हमारे देश में फेसबुक यूजर्स ही साढ़े सैंतीस करोड़ से अधिक हैं। जरा सोचिए, इसमें से कितने सोशल मीडिया प्रोफाइल स्कूली बच्चों के होंगे? कितने इंस्टाग्राम यूजर्स प्रोफाइल में से कितने बच्चों के होंगे? कितने ऐसे बच्चे होंगे, जो अपनी मम्मी-मौसी या दादा-दादी के नाम पर प्रोफाइल बनाकर एक्टिव होंगे? कितने प्रोफाइल्स में बच्चों ने उम्र से जुड़ी जानकारियां गलत दी होंगी, रोजाना अपना कितना समय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर खर्च कर रहे होंगे। वर्चुअल वर्ल्ड में मौजूद दूसरों की लाइफस्टाइल और बोली देखकर अपनी जिंदगी को कोस रहे होंगे। चुनौतियों से लड़ने का व्यवहारिक ज्ञान सीखने की जगह हवा-हवाई दुनिया में खोए हैं।
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अपने बच्चों के साथ समय बिताएं गार्जियन
ऐसे में सोशल मीडिया एडिक्शन से बच्चों को बचाने की पहली शुरुआत घर के भीतर से होनी चाहिए। गार्जियन को रोजाना कुछ समय जरूर निकालना चाहिए, जिसमें परिवार के सदस्य बिना स्मार्टफोन के आपस में एक-दूसरे के साथ सुख-दुख साझा कर सकें। बच्चों की बात गंभीरता से सुनी जा सके। ऐसा नहीं हो सकता कि खुद तो मोबाइल पर व्यस्त रहें और बच्चों को मोबाइल छोड़ने की सलाह देते रहें। दूसरी शुरुआत स्कूल के स्तर पर होनी चाहिए, जहां रोजाना बच्चों की शुरुआत प्रार्थना और फिजिकल ट्रेनिंग एक्सरसाइज से होनी चाहिए। इससे स्कूली छात्रों को अनुशासित, शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनाने में मदद मिलेगी। तीसरी शुरुआत, सरकार के स्तर पर होनी चाहिए, जिसमें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के लिए ऐसी सख्त गाइडलाइन्स होनी चाहिए, जिससे बच्चों के मोबाइल इंटरनेट और सोशल मीडिया एक्सेस को सीमित किया सके। ऐसे में स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था और देश के भविष्य के लिए सबको गंभीरता से सोचना होगा कि सोशल मीडिया का कब, कहां और कितना इस्तेमाल करना है, जिससे बच्चों की क्रिएटिविटी प्रभावित न हो। गलत सूचनाओं के भंवर जाल में फंसकर सच्चाई से दूर न हों। सोशल मीडिया पर रिश्ता जोड़ने के चक्कर में इतना समय न बर्बाद कर दें, जिससे करीब के रिश्तों में ही दूरी बन जाए।