Bharat Ek Soch: एक राजनेता को कैसा होना चाहिए? नरेंद्र मोदी जैसा, राहुल गांधी जैसा, नीतीश कुमार जैसा, लालू प्रसाद यादव जैसा, ममता बनर्जी जैसा, अखिलेश यादव जैसा? दूसरे कई और नाम भी आपके जहन में आ रहे होंगे, लेकिन राजनीति में रत्ती भर भी दिलचस्पी रखने वाले हर शख्स के दिमाग में एक ही सवाल आ रहा है कि आखिर नीतीश कुमार की राजनीति सही है या गलत?
वो व्यावहारिक रहे हैं या मौकापरस्त? आखिर ऐसा क्यों है कि नीतीश कुमार पर किसी को आसानी से भरोसा नहीं होता? वो चुनाव में किसी और गठबंधन के साथ उतरते हैं। चुनाव के बाद अपनी सहूलियत के हिसाब से रिश्ते तोड़ते और जोड़ते हैं। ये नीतीश कुमार का राजनीतिक तिलिस्म ही है- जिसमें पिछले 23 साल में बिहार में विधानसभा चुनाव तो पांच बार ही हुए हैं, लेकिन नीतीश बाबू ने 8 बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
पटना की सियासत में फिर भूचाल आया हुआ है। मीटिंग पर मीटिंग जारी है। माना ये भी जा रहा है कि नीतीश के नौवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने की स्क्रिप्ट तैयार हो चुकी है। बस बदलेंगे तो गठबंधन के साझीदार! ऐसे में सवाल उठता है कि नीतीश के पास ऐसी कौन सी जादुई छड़ी है। जादुई मंत्र है, जिसमें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर वही बने रहते हैं? आखिर 2024 की लड़ाई के लिए विपक्षी महागठबंधन ने नीतीश कुमार को संयोजक क्यों नहीं बनाया?
आखिर, वो कौन सी वजह रही- जिसकी वजह से नीतीश ने लालू का हाथ झटकते हुए फिर बीजेपी के रथ पर सवार होने का मन बना लिया? ऐसे में हम आपको बताएंगे कि 24×7 पॉलिटिशन नीतीश कुमार अपनी राजनीतिक की गाड़ी को किस ईंधन से चलाते आए हैं? (Ultram) वो अपनी सहूलियत के हिसाब से कैसे रिश्ता जोड़ते और तोड़ते रहे हैं? बिहार पॉलिटिक्स में अब जेडीयू का क्या होगा? ऐसे सभी सुलगते सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे- अपने स्पेशल शो नीतीश…एक पहेली में।
किसी इंसान के व्यक्तित्व को डिकोड करना आसान नहीं है। उसमें भी अगर नीतीश कुमार जैसा खांटी राजनीतिज्ञ हो तो कल तो जिस नीतीश कुमार को INDI गठबंधन का संयोजक बनाने की बात चल रही थी, जो 2024 में नरेंद्र मोदी को रोकने वाले गठबंधन में एक तरह से सूत्रधार की भूमिका में माने जा रहे थे। आखिर ऐसा क्या हुआ कि नीतीश कुमार ने पाला बदलने का मन बना लिया। आखिर INDI गठबंधन ने नीतीश कुमार को संयोजक क्यों नहीं बनाया? आखिर विपक्षी नेताओं को उन पर भरोसा क्यों नहीं हुआ? क्या INDI गठबंधन में संयोजन नहीं बनाए जाने की वजह से नीतीश ने पाला बदलने का फैसला किया? ये कुछ ऐसे सवाल हैं– जिनका जवाब तलाशे बगैर नीतीश कुमार की राजनीति को डिकोड करना मुश्किल होगा।
भले ही नीतीश कुमार ने डिग्री इंजीनियरिंग की ली हो, लेकिन फुलटाइम पॉलिटिशियन रहे हैं। वो सिर्फ और सिर्फ राजनीति करते हैं…कहा जाता है कि उनकी सभी ज्ञानेंद्रियां राजनीति नफा-नुकसान लगाने की आदी हैं। ऐसे नीतीश कुमार की राजनीति को डिकोड करने के लिए पटना पॉलिटिक्स के पुराने पन्नों को पलटना होगा। जहां से उनका राजनीति में उदय हुआ। पटना में कभी कहा जाता था कि जब तक समोसे में रहेगा आलू, तब तक बिहार में रहेगा लालू, लेकिन जब नीतीश कुमार का दौर शुरू हुआ तो कहा जाने लगा बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है।
पटना में लोग नीतीश की तुलना आलू से कर रहे हैं। जो किसी भी मौसमी सब्जी के साथ आसानी से मिलकर जायके का हिस्सा बनी रहती है। उसी तरह नीतीश भी किसी भी दल के साथ देश, काल, परिस्थिति के हिसाब से गठबंधन करने में उस्ताद हैं। वो जिस राजनीति शास्त्र के सहारे बिहार की सत्ता में बने हुए हैं- उसमें उन्हें कोई मौकापरस्त कहता है। कोई यू-टर्न का मास्टर…कोई पलटूराम…तो कोई कुर्सीजीवी। ऐसे में उनकी राजनीति को समझने के लिए हमें कैलेंडर को पीछे पलटते हुए 1990 के दशक में ले जाना होगा। जब नीतीश और लालू जिगरी दोस्त हुआ करते थे।
नेताओं की महत्वाकांक्षा राजनीति का रास्ता कैसे बदलती है- इसका एक पन्ना लालू यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद खुलता है। शायद नीतीश कुमार को लगने लगा था कि दोनों ने साथ राजनीति शुरू की, भले ही वो लालू की तुलना में बाद में विधायक बने, लेकिन कहां लालू और कहां वो यानी नीतीश। राजनीतिक में निजी महत्वाकांक्षा को साधने के लिए विचारधारा की चादर ओढ़ने का काम भी बड़ी सफाई से होता है। 90 के दशक में बिहार में समाजवादी आंदोलन पर जातियां हावी हो चुकी थीं।
मंडल कमीशन को लागू करवाने वाले जनता दल के अंदर ही पिछड़ी जातियों को लेकर खींचतान शुरू हो गई। लालू यादव पर एक खास जाति को बढ़ावा देने के आरोप लगने लगे थे। इसी असंतोष के गर्भ से 1994 में नीतीश कुमार ने जॉर्ज फर्नांडीस के साथ मिलकर समता पार्टी का गठन किया। यहां से एक अलग तरह की राजनीति शुरू हुई। 1994 में बनी समता पार्टी कुछ साल में ही बीजेपी के साथ नजर आने लगी। अटल बिहारी वाजपेयी को दिल्ली की गद्दी में स्थापित करने के लिए समता पार्टी ने एक बड़ा किरदार निभाया। जॉर्ज फर्नांडिस NDA के संयोजक बने और नीतीश कुमार को बिहार में स्थापित करने की जुगत शुरू हो गई।
नीतीश कुमार पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने तो सिर्फ 7 दिन बाद ही उन्हें इस्तीफा देना। इसके बाद वो पटना से दिल्ली की राजनीति में शिफ्ट हो गए। अपनी इमेज को लेकर बेहद संजीदा रहने वाले नीतीश कुमार वाजपेयी सरकार में रेल मंत्री रहते एक बड़े चेहरे के तौर पर स्थापित हो चुके थे। वक्त की नजाकत समझते हुए 2003 में शरद यादव की अगुवाई वाले जनता दल का जॉर्ज फर्नांडीस और नीतीश कुमार की समता पार्टी से विलय हुआ और जनता दल यूनाइटेड की छतरी तनी, लेकिन उनकी राजनीति को बड़ी पहचान मिली 2005 में….जब बीजेपी के समर्थन से उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली। साल 2013 में जब बीजेपी ने नरेंद्र मोदी के चेहरे को आगे किया तो नीतीश ने एनडीए के जहाज से उतरने का बड़ा फैसला ले लिया। उसके बाद बिहार से सुशासन बाबू ने एक ऐसी राह पकड़ी जिसे राजनीतिज्ञ और राजनीतिक विश्लेषक अपने-अपने तरीके से परिभाषित करते हैं।
साल 2014 में नरेंद्र मोदी के उदय के बाद नीतीश कुमार और लालू प्रसाद एक-दूसरे के करीब आने लगे, लेकिन सत्ता में आने मजबूरी ने असंभव को संभव बना दिया। वहीं, साल 2017 में लालू परिवार पर भ्रष्टाचार का आरोप जड़ते हुए गठबंधन से अलग हो गए और बीजेपी के साथ मिलकर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। साल 2022 में उनका बीजेपी से फिर मन टूटा और लालू प्रसाद की याद आई। महागठबंधन के साथ खड़े हो गए। मतलब, नीतीश कुमार 2014 से लेकर अब तक तीन बार पाला बदल चुके हैं और अब चौथी बार की तैयारी में हैं। अब सवाल उठता है कि अब नीतीश कुमार का राजनीतिक भविष्य क्या है? उनकी पार्टी जेडीयू का क्या होगा? क्या बिहार में सोशलिस्ट पॉलिटिक्स और जातीय राजनीति का पन्ना अब बंद होने वाला है?
राजनीति और क्रिकेट में हमेशा अनिश्चितता बनी रहती है। क्रिकेट में कई बार फैसला आखिरी ओवर की आखिरी बॉल से तय होता है। ऐसे में नीतीश कुमार के मन में क्या चल रहा है – इसे पढ़ने का दावा करने वाले राजनीतिक पंडित भी कई बार गच्चा खा चुके हैं। उन्हें करीब से जानने वाले दबी जुबान में ये भी कहते हैं कि नीतीश कुमार के दिमाग के दाएं हिस्से में क्या चल रहा है, इसका अंदाजा दिमाग के बाएं हिस्से को भी नहीं होता है, लेकिन एक बात तय है कि नीतीश कुमार आसानी से मुख्यमंत्री की कुर्सी अपने हाथ से नहीं जाने देंगे। संभवत:, उन्हें डर सता रहा होगा कि कहीं सत्ता हाथ से जाने के बाद उनकी पार्टी के नेता भी बिखर कर बीजेपी या आरजेडी में न मिल जाएं, तो नीतीश कुमार के साथ गठबंधन में नया साझीदार बनने की राह पर बढ़ रही पार्टियों को भी डर सता रहा हो कि पता नहीं कब फिर से पलट जाएं। ऐसे में नीतीश की राजनीति फिर एक ऐसे दोराहे पर खड़ी है- जहां उन्हें हर कोई पहले से ज्यादा शक की नज़रों से देख रहा है और ऐसी अविश्वसनीय छवि के लिए संभवत: नीतीश कुमार खुद जिम्मेदार हैं?
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