Bharat Ek Soch: एक अरब चालीस करोड़ लोगों की सेहत की बेहतर देखभाल आसान काम नहीं है। हर कोई अपने लिए अपने करीबियों के लिए अच्छा से अच्छा इलाज चाहता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम-ओ-खास के बीच बेहतर इलाज की चिंता को राजनीतिक दलों ने भी अच्छी तरह समझा और सत्ता में बैठी पार्टियों ने भी इसलिए मुफ्त इलाज की गारंटी देने वाली कई योजनाएं देशभर में चल रही हैं। केंद्र सरकार की अलग राज्य सरकारों की अलग। लेकिन, आज हम मुफ्त इलाज और दवाई की गारंटी वाली योजनाओं को गिनाने या उनके नफा-नुकसान नहीं बता रहे।
हमारे देश में लोग तेजी से बीमार क्यों हो रहे हैं?
हमारे देश में लोग तेजी से बीमार क्यों हो रहे हैं? मरीजों की संख्या दिनों-दिन किस तरह बढ़ती जा रही है? ऐसे में ये समझना भी जरूरी है कि इलाज सिस्टम में कितना बदलाव आ रहा है और उसमें तकनीक का दखल कितना बढ़ रहा है? भारत जैसे देश में दूसरे देशों की तुलना में इलाज महंगा है या सस्ता? क्या इसे और अधिक सस्ता नहीं बनाया जा सकता है? सबके लिए बेहतर इलाज का सिस्टम कैसा होना चाहिए? आज की तारीख में ऐसी कौन सी व्यवस्था की दरकार है – जिसमें लोगों को छोटी-छोटी बीमारियों के लिए बड़े अस्पतालों में दौड़ने की जरूरत न पड़े? ऐसा कौन सा रास्ता लोगों को दिखाया जाना चाहिए – जिससे लोगों को कम से कम दवाइयां खानी पड़े? ऐसा क्या किया जाना चाहिए जिससे लोगों को और सस्ता इलाज मिल सके?
किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है
सबसे पहले ये समझते हैं कि देश के मौजूदा हेल्थ केयर सिस्टम में किसी व्यक्ति को इलाज में किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है। मान लीजिए कि बिहार के गोपालगंज या यूपी के बस्ती के दूर-दराज के किसी गांव के सामान्य किसान के सीने में दर्द या सांस लेने में तकलीफ होती है तो वो क्या करेगा ? क्या गांव से कुछ किलोमीटर की दूरी पर मौजूद प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में उसका इलाज हो पाएगा जिला अस्पताल में बेहतर इलाज मिल पाएगा। ऐसे में उसके पास दो रास्ते हैं– एक तो अपनी बीमारी के साथ जिंदगी जीता रहे और दूसरा इलाज के लिए पटना या वाराणसी पहुंच जाए अगर किसान की आर्थिक स्थिति ठीक हुई तो वो प्राइवेट अस्पताल में जाएगा जहां उसे कई महंगे टेस्ट कराने होंगे। मतलब, मोटा खर्चा । अगर अस्पताल में भर्ती करने की नौबत आई तो लाखों का बिल कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन, अगर किसान की जेब खाली है-तो पटना से दिल्ली तक सरकारी अस्पताल के चक्कर काटता रहेगा। इस उम्मीद के साथ की कभी-न-कभी तो इलाज के लिए उसका नंबर आएगा लेकिन, ज़रा सोचिए कि अगर देश में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में लोगों का भरोसा कायम रहता वो ठीक-ठाक स्थिति में होते वहां डॉक्टर स्थाई रूप से बैठते वहां ही लोगों की छोटी-मोटी तकलीफों का इलाज होता रहता तो लोग शरीर में बीमारियों को क्यों पालते-पोसते केमिस्ट से पूछकर गोलियां क्यों खाते? ऐसे में सवाल उठता है कि क्या देश में इलाज का सिस्टम नीचे से ठीक करने पर गंभीरता से मंथन नहीं होना चाहिए ?
तीन-चार दिन में आप पूरी तरह से ठीक हो जाएंगे
कुछ साल पहले की बात है दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में देश के जाने-माने पॉलिटिकल साइंटिस्ट भर्ती हुए इलाज की हर तरह की सुविधा देखभाल के लिए 24 घंटे नर्स मौजूद। लेकिन, तीसरे दिन ही डॉक्टरों के सामने हाथ जोड़कर कहने लगे कि मुझे डिस्चार्ज कर दीजिए । डॉक्टर बोले की आपकी सेहत में तेजी से सुधार हो रहा है तीन-चार दिन में आप पूरी तरह से ठीक हो जाएंगे। इस पर मरीज ने कहा कि अगर आप लोगों ने डिस्चार्ज नहीं किया तो मैं अस्पताल के बिल से मर जाऊंगा । मैं जिस पॉलिटिकल साइंटिस्ट की बात कर रही थी–अब वो इस दुनिया में नहीं हैं । भले ही दावा किया जाता है कि भारत में दुनिया के कई देशों की तुलना में इलाज सस्ता है। लेकिन, जिन देशों से भारत में इलाज के महंगे-सस्ते होने की तुलना की जाती है उन देशों की प्रति व्यक्ति आय भी तो देखनी चाहिए ऐसे में सवाल उठता है कि देश में इलाज का सिस्टम और कितना सस्ता बनाया जा सकता है? क्या लोगों को महंगे टेस्ट और इलाज से आजादी दिलाई जा सकती है?
जीडीपी का 2 फीसदी खर्च
स्वास्थ्य पर अमेरिका अपनी आय का 14.8 फीसदी, चीन 17.7 फीसदी और ब्रिटेन 10.6 फीसदी खर्च करता है। लेकिन, भारत में स्वास्थ्य पर जीडीपी का करीब 2 फीसदी खर्च होता है। हेल्थ एक्सपर्ट्स की सोच है कि देश में स्वास्थ्य ढांचे को दुरुस्त करने के लिए खर्च जीडीपी का 2 से बढ़ाकर 5 फीसदी तक किया जाना चाहिए। इलाज की दुनिया तेजी से बदल रही है। इसमें रोबोट से सर्जरी तक शामिल है। लेकिन, भारत में अभी भी डॉक्टर और पैरा-मेडिकल स्टाफ की कमी है । ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सरकार मेडिकल में दाखिला के मैकेनिज्म में कोई बदलाव करेगी जिससे देश के भीतर ज्यादा से ज्यादा काबिल डॉक्टरों को तैयार किया जा सके।
कई बार संसाधनों की कमी..
मरीज और डॉक्टर का रिश्ता भरोसे का होता है कोई भी मरीज अपनी सबसे कीमती और प्यारी चीज यानी शरीर डॉक्टर को सौंपता है लेकिन, कई बार संसाधनों की कमी या मैनेजमेंट से जुड़ी दूसरी दिक्कतों की वजह से भरोसा डगमगाता भी दिखता है। ऐसे में सवाल उठता है कि Indian Administrative Service, Indian Police Service, Indian Forest Service की तरह क्या All India medical services नहीं होनी चाहिए…आजादी के बाद मुदलियार समिति ने अलग हेल्थ कैडर बनाने का मशवरा दिया…1973 में करतार सिंह कमेटी ने इसे विस्तार दिया। समय-समय पर कई कमेटियों ने स्वास्थ्य सेवाओं को टॉप गियर में लाने और संसाधनों के बेहतर प्रबंधन के लिए Public health management cadre बनाने की सिफारिश की । ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मेडिकल सेवाओं और उससे जुड़े प्रबंधन को एक छतरी के नीचे लाने की कोशिश होगी? हमारे देश में हज़ारों साल से आयुर्वेद के जरिए इलाज की परंपरा रही है…इसमें शल्य चिकित्सा का भी जिक्र है। पिछले कुछ वर्षों में सरकार आयुर्वेद को बढ़ावा दे रही है । आयुर्वेद के पोस्ट ग्रेजुएट डॉक्टरों को सर्जरी की कई बीमारियों में सर्जरी की भी इजाजत मिल चुकी है। क्या एक ऐसा रास्ता नहीं निकाला जा सकता है…जिसमें इलाज की कोई भी प्रणाली खुद को दूसरे से बेहतर बताने की जगह लोगों के भरोसे को कायम रखते हुए देश की बड़ी आबादी को तंदुरुस्त रखने में योगदान दे।
सिर्फ दवाइयों के दम पर बीमारी से आजादी चाहते हैं
मेडिकल एक्सपर्ट कहते हैं कि आज की तारीख में भारत की बड़ी आबादी जिन बीमारियों की चपेट में आ रही है – उनमें से ज्यादातर लाइफस्टाइल से जुड़ी हैं, जिन्हें सिर्फ और सिर्फ दवाईयों से पूरी तरह ठीक नहीं किया जा सकता है । डॉक्टरों का एक बड़ा वर्ग ये भी मानता है कि ज्यादातर मरीज अपनी लाइफस्टाइल में बगैर कोई बदलाव किए सिर्फ दवाइयों के दम पर बीमारी से आजादी चाहते हैं…जिसकी वजह से लोगों की जिंदगी में दवाइयों की घुसपैठ तेजी से बढ़ती जा रही है। ऐसे में एक अरब 40 करोड़ आबादी वाले भारत को तंदुरुस्त रखने के लिए जितना जरूरी एक बेहतर स्वास्थ्य ढांचा जरूरी है..उतना ही जरूरी है कि लोग अपनी लाइफस्टाइल में भी बदलाव करें। उन तौर-तरीकों से बचना होगा, जो शरीर में धीमा जहर बनकर घुल रहे हैं… सभी चिकित्सा प्रणालियों को सम्मान की नजर देखना होगा…उनके भीतर की अच्छी चीजों को ग्रहण करना होगा । तभी एक खुशहाल और बेहतर जीवन का सपना पूरा होगा।